Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 2
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 420
________________ जाति, वर्ग, विधर्मी लोगों के आचारों की स्वीकृति है कि नैतिक दोषों से रहित अच्छे शूद्रों के आचार, उनके पुत्रों और अन्यों के लिए अनुल्लंघनीय हैं (भले ही वे वेद को न जानते हों)। पश्चिमी देशों की तुलना में प्राचीन भारत में अत्यधिक धार्मिक सहिष्णुता पायी जाती थी। देखिये इस ग्रंथ का खंड २,अध्याय ७ एवं अध्याय १६ जहां पर हमने इस विषय में कुछ प्रकाश डाल दिया है। अशोक ने अपने सातवें स्तम्भाभिलेख (एपि० इ०, जिल्द २, पृ० २७२) में कहा है कि उसने संघों, ब्राह्मणों, आजीवकों और अन्य सम्प्रदायों (पाषंडों) की परवाह (मत-रक्षा) की है। भगवद्गीता (६।२३-२५) ने घोषणा की है कि जो भक्त अन्य देवताओं की पूजा करते हैं वे स्वयं कृष्ण की ही पूजा करते हैं और नो पितरों एवं अन्य तत्त्वों की पूजा करते हैं, वे भी कांक्षित फल की प्राप्ति करते हैं। मानसोल्लास ने प्रतिपादित किया है कि दूसरे देवताओं के प्रति निन्दा एवं घृणा का परित्याग करना चाहिये और किसी मूर्ति या मन्दिर को देख कर श्रद्धा प्रकट करनी चाहिये न कि घृणा की दृष्टि से आगे चला जाना चाहिये । विभिन्न प्रदेशों के लोगों ने निस्संदेह एक-दूसरे के आचारों और रीतियों की खिल्ली उड़ायी है, उदाहरणार्थ, 'जीवन्मुक्तिविवेक' नामक दार्शनिक ग्रंथ का कहना है कि दक्षिण के ब्राह्मण उत्तर के ब्राह्मणों को मांसभोजी कहकर निन्दित करते हैं और उत्तर के ब्राह्मण दक्षिण के ब्राह्मणों को मातुलकन्या से विवाह करने के कारण गहित कहते हैं। उन्होंने इसलिए भी उन की निन्दा की है कि दक्षिणी ब्राह्मण लोग मेलों अथवा यात्राओं में मिट्टी के बरतन लेकर जाते हैं। यह धार्मिक सहिष्णुता सम्बन्धी सामान्य मनोवृत्ति का ही फल था कि स्मृतियों एवं निबन्धों ने नास्तिक सम्प्रदायों के आचारों को राजा द्वारा शासित होने को कहा है। याज्ञवल्क्य ने व्यवस्था दी है कि राजा को श्रेणियों, व्यवसायियों, पाषंडों एवं सैनिकों के धर्मों अथवा विधियों को खंडित होने से बचाना चाहिये । ३१नारद (समयस्यानपाकर्म, १-३) ने कहा है कि राजा को पाषंडों, व्यापारियों, श्रेणियों एवं अन्य वर्गों के समयों (रीतियों या विधानों) की रक्षा करनी चाहिये और जो भी परम्परागत आचार-कृत्य, उपस्थिति-विधि एवं जीविका-साधन आदि उनमें विशिष्ट रूप से पाये जायें उनको राजा द्वारा बिना किसी परिवर्तन का रंग लगाये छूट मिलनी चाहिये । बृहस्पति ने प्रतिपादित किया है कि कृषकों, कारुओं, मल्लों(कुश्तीबाजों), कुसीदिओं (ब्याज पर धन देनेवालों),श्रेणियों, नर्तकों, पाषंडों और चोरों के विवादों का निर्णय उनकी रीतियों के अनुसार होना चाहिये । ३२ इसमें कोई सन्देह नहीं है कि कुछ स्मृतियों ने नास्तिकों आदि के लिए कठिन नियम बना दिये हैं । गौतम (६१७) के मत से स्नातक को म्लेच्छों, अपवित्र लोगों एवं पापियों (अधार्मिकों) से बातचीत नहीं करनी चाहिये । ३ ३ मनु (६।२२५) का कथन है कि राजा को राजधानी के जुआरियों, नर्तकों, नास्तिकों (पाषंडों), शौडिकों (सुराजीवियों) आदि को निकाल बाहर करना चाहिये । मनु (४॥३०) ने पुनः कहा है कि नास्तिकों, दुष्टों आदि को शब्द द्वारा अर्थात् मौखिक रूप से भी आतिथ्य नहीं देना चाहिये । जहाँ नास्तिक लोगों का आधिपत्य हो गया हो वहां निवास नहीं करना चाहिये । याज्ञ० (२०७०) एवं नारद (ऋणादान १८०) के मत से पाषण्डियों या नास्तिकों को साक्षी नहीं बनाना चाहिये । इन उक्तियों की व्याख्या कई ढंग से की जा सकती है। सम्भवतः गौतम एवं मनु के वचन उन युगों के द्योतक हैं जब कि बौद्धों एवं जैनों तथा वेदधर्मानुयायियों के मनोभावों के बीच पड़ी गहरी खाई तब तक ताजी ही थी, अर्थात उन्हीं दिनों वे वेद ३१. श्रेणिनगमपाखंडिगणानामप्ययं विधिः । भेदं गेषां नृपो रक्षेत्पूर्ववृत्ति च पालयेत् ॥ याज० (२।१६२) ३२. कीनाशाः कारुका मल्लाः कुसीदश्रेणिनर्तकाः । लिगिनस्तस्कराश्चैव स्वेन धर्मेण निर्णयः । बृहक (व्य मा० १०२८१; व्य० नि०, पृ० ११; व्य० प्र०, पृ० २३)। ३३. न म्लेच्छाशुच्यधार्मिकः सह सम्भाषेत । गौतम (१७)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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