Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 2
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 453
________________ १०१२ धर्मशास्त्र का इतिहास कोई अन्य साक्ष्य (गवाही)न उठ खड़ा हो तो इतने पुराने आचार वैधानिक ही समझे जायेंगे और यह कहा जायगा कि उनके पीछे युगों की परम्पराएँ रही हैं । आचार की प्रामाणिता की सिद्धि के लिए उदाहरणों की आवश्यकता होती है, किन्तु इस विषय में उदाहरणों की संख्या पर कोई बल नहीं दिया जाता, ऐसा आधुनिक न्यायालयों ने निर्णय दिया है । कुछ विशिष्ट विवादों में विशिष्ट उदाहरणों की आवश्यकता नहीं भी समझी जाती, किन्तु ऐसे लोगों की संमतियाँ, जो किसी आचार के अस्तित्व की जानकारी रखने के योग्य समझे जाते हैं, अधिक बल रखती हैं, भले ही उनके पीछे कोई विशिष्ट उदाहरण या दृष्टांत न हो। इस विषय में यह कह देना आवश्यक है कि पुराने काल के बहुत-से आचार, विशेषतः कुलाचार किसी अचानक घटना, प्रचलित मनोभाव में परिवर्तन या सम्बन्धित व्यक्तियों की सहमति के कारण कभी-कभी अप्रचलित मान लिये जाते हैं। किसी जाति में यदि ममेरी बहिन से विवाह आचार द्वारा व्यवस्थित है तो इससे यह अर्थ नहीं निकालना चाहिये कि मौसी या फूफी की पुत्री से भी विवाह करना वैधानिक होगा। देखिये इस ग्रंथ का खंड २, अ०६। किसी आचार की सिद्धि, प्रयोग अथवा रीति की एकरसता एवं अनवरतता पर निर्भर रहती है, ऐसा नहीं है कि आचार की उत्पत्ति केवल आचरण, अनुकरण एवं अबोधता या पारस्परिक समझौते से होती है । आचार अयुक्तिसंगत नहीं होना चाहिये । हमने देख लिया है कि हिन्दू समाज में पुत्रियों को उत्तराधिकार से वंचित करना अयुक्तिसंगत नहीं माना गया है। प्राचीन काल में किसी मन्दिर अथवा उसकी पूजा पर किसी विशिष्ट जाति का अधिकार आचारसंगत या युक्तिसंगत समझा जा सकता था, किन्तु यह आज की सुसंस्कृत वृत्तियों की दृष्टि से गहित-सा लगता है। आचार को अनैतिक नहीं होना चाहिये । आचार की अनैतिकता सम्पूर्ण जाति की भावना से समझी या जाँची जा सकती है । वह आचार, जो नीच जातियों की स्त्री को बिना तलाक दिये या बिना जाति को कुछ दंड दुसरा विवाह करने की अनुमति देता है, अनैतिक समझा जाता है और बम्बई के उच्च न्यायालय ने इस विषय में स्पष्ट निर्णय दिया है । बम्बई के उच्च के न्यायालय ने नर्तकियों द्वारा दत्त क-पुति का ग्रहण करना अवैधानिक माना है, किन्तु मद्रास के उच्च न्यायालय ने इसे वैधानिक माना है,यदि उस पुत्रिका का ग्रहणवेश्यावृत्ति के उद्देश्यों से न किया जाय। ब्रह्मपुरांण(१११।१५ एवं ४४-४६) का कथन है कि क्षत्रियों में कई प्रकार के विवाह प्रचलित हैं, यथा वधू को बलपूर्वक उठा ले जाकर विवाह करना अथवा (वर के) हथियारों से विवाह करना। कुछ जातियों में कृपाण-विवाह प्रचलित है। आधुनिक काल में कृपाण एवं तलवार-विवाह न्यायालयों द्वारा शूद्रों के लिए भी अवैधानिक कहा गया है। बहुत-से आचार एवं रीतियाँ आज कानूनों द्वारा वजित कर दिये गये हैं, यथा सती, शिशु-हत्या, दासता, कुछ अवस्था तक बच्चों के विवाह, मंदिरों में देवदासियों के रूप में स्त्रियों का समर्पण । ऐसा हो जाने पर कोई न्यायालय आज किसी को इन विषयों में आचार का सहारा नहीं लेने देगा।। किस प्रकार किसी समय प्रचलित आचार एवं व्यवहार समाप्त हो सकते हैं अथवा अमान्य ठहराये जा सकते हैं, यह बात गत अध्याय के कलिवज्यों से प्रमाणित हो जाती है। गत अध्याय में कुछ वैधानिक कलिवज्यों का भी वर्णन कर दिया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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