Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 2
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 418
________________ स्मृति की अपेक्षा आचारों, रीतियों की विशेषता ६७७ मनु (१२।१०८-१०६) एवं वसिष्ठ (१।६) द्वारा प्रदर्शित है, आचार वह माना गया है जो उत्तम चरित्र वाले एवं स्वार्थ-रहित शिष्टों एवं ब्राह्मणों द्वारा उद्घोषित एवं पालित होता रहा है। मेधातिथि (मनु २।६) का कथन है कि वेदज्ञ शिष्टों का आचार अनुल्लंघनीय होता है। क्रमशः प्रत्येक दृष्टार्थरहित रीति कालान्तर में अनुल्लंघनीय समझी जाने लगी और अन्त में शूद्रों, प्रतिलोम जातियों एवं वर्णसकर शाखाओं की रीतियाँ राजा द्वारा विज्ञापित की जाने लगीं। स्मतियों, टीकाओं एवं निबंधों के मत से सम्यक रीतियों की विशिष्टताएँ पूर्व-मीमांसा के लेखकों द्वारा नियमित विशिष्टताओं के समान ही हैं; अर्थात् परम्पराओं एवं रीतियों को प्राचीन होना चाहिये, श्रुति-स्मृति के नियमों की विरोधी न होना चाहिये, शिष्टों द्वारा अनुमोदित होना चाहिये, उन्हें इस प्रकार व्यवस्थित होना चाहिये कि अनधिकारी लोग उन्हें छू न सकें, उन्हें अनैतिक नहीं होना चाहिये अथवा उनका स्वरूप ऐसा नहीं होना चाहिये कि वे प्रचलित मनोभावों द्वारा निन्द्य ठहरा दी जाय । अप्रचलित परम्पराएँ त्याज्य होती हैं, जैसा कि हम कलिवर्ण्य के अध्याय में आगे स्पष्ट करेंगे। गौतम, मन, बृहस्पति, कात्यायन आदि लेखकों के आधार पर कहा जा सकता है कि परम्पराएँ एवं रीतियाँ देशों (या जनपदों), पुरों एवं ग्रामों, जातियों, कुलों तथा अन्य सम्प्रदायों, यथा--गणों, श्रेणियों, संघों, नैगमों एवं वर्गों द्वारा व्यवस्थित, अनुमोदित अथवा मान्य होती हैं। इनके विषय में तथा गोत्रों एवं शाखाओं के रीति-रिवाजो के विषय में हम आगे पढ़ेंगे । अभी हम सामान्यतः परम्पराओं के विषय में ही कुछ आरम्भिक विचार उपस्थित करेंगे । मध्यकाल के धर्मशास्त्रलेखकों ने यह स्पष्ट किया है कि प्रचलित स्मृति की व्यवस्थाओं के विरोध में परम्पराएँ सुव्यवस्थित रूप से गठित होनी चाहिये और उन्हें विशिष्ट मान्य परम्पराओं के बाहर के विषयों की सीमा से दूर रहना चाहिये, अर्थात् समानता के आधार पर वे सीमा का अतिक्रमण कर अन्य परम्पराओं को छू नहीं सकतीं। उदाहरणार्थ, स्मृतिच० (१, पृ० ७१) एवं स्मृतिमुक्ताफल (वर्णाश्रम, पृ० ३१)का कथन है कि यद्यपि किसी स्थान की परम्परा के अनुसार मातुलकन्या से विवाह हो सकता है, किन्तु मौसी या मौसी की पुत्री से विवाह सम्बन्ध कभी नहीं हो सकता, क्योंकि प्रचलित मनोभाव इसके विरोध में है और प्रचलित मनोभाव का आदर होना ही चाहिये (मनु ४।१७६)। इसी प्रकार 'संस्कारकौस्तुभ' (प०६१३) एवं 'धर्मसिन्धु' का कथन है कि जहाँ विवाह के लिए सपिंड सम्बन्ध की सीमाओं को संकीर्ण करने के लिए स्थानीय अथवा कुल की रीति हो, वहाँ केवल वे ही, जो उस स्थान के रहनेवाले हों या उस कूल से सम्बन्धित हों, उस रीति का पालन कर सकते हैं, किन्तु यदि वह व्यक्ति, जो किसी अन्य स्थान का हो और किसी दूसरे कुल का हो, इस प्रकार की सपिंड सम्बन्ध वाली रीति का अनुसरण करे तो वह पापी ठहराया जायगा । भारतवर्ष विशाल देश है, अतः किसी एक स्थान का सदाचार किसी सुदूर स्थान के लिए अनुकरणीय नहीं हो सकता (परा० मा० १।२, पृ० ६५)। अब हम कुछ शब्द देशों की परम्पराओं (रीतियों) के विषय में लिखेंगे । वैदिक काल में भी रीतियाँ कृत्य संबंधी विस्तारों के विषय में एक दूसरी से भिन्न थीं । शतपथब्राह्मण (१।१।४।१३) का कथन है कि प्राचीन युगों में यजमान की पत्नी ही हविष्कृत के लिए उठती थी, किन्तु इस (शतपथ के) काल में पत्नी या पुरोहित वैसा करने के लिए उठता है। व्यवहार संबंधी अन्य प्रकार की विभिन्नताओं के लिए और देखिये उसी ब्राह्मण में (१२।३।५।१ एवं १२।६।१।४१)। ऐतरेय ब्राह्मण में मतों का प्रकाशन एवं उन्हीं का परित्याग दोनों वर्णित हैं ('तत् तथा न कुर्यात्' या 'तत् तत् नादृत्यम्' १२१७, १७११, १८१८, २८।१, २६।५) । और देखिये तै० ब्रा० (१।१।८, १६३।१ एवं ३।८।८)। गृह्मसूत्रों एवं धर्मसूत्रों के काल में विभिन्न देशों में विवाह संबंधी एवं अन्य विषय संबंधी विभिन्न परम्पराएँ थीं जिनके विषय में हमने इस अध्याय के आरम्भ में ही संकेत कर दिया है। बौधायन ने उत्तरीय और दक्षिणी लोगों के आचारों ५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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