Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 2
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 421
________________ १८० धर्मशास्त्र का इतिहास विरोधी धर्म उदित हुए थे और उन के विरोध में बातें कही जाने लगी थीं। किन्तु उपयुक्त व्यवस्थाओं में अधिकांश वेदानुयायियों के लिए व्यक्तिगत रूप में ही प्रतिपादित हुई थीं। उनसे नारद, बृहस्पति आदि के उपर्युक्त वचन खंडित नहीं माने जा सकते । बिना किसी विरोधाभास के यह बात कही जा सकती है, कि चौथी शताब्दी के उपरान्त भारतीय शासननीति सभी प्रकार के धर्मों के रक्षण करने में प्रवृत्त थी, अर्थात् राजा किसी भी प्रकार किसी के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता था। कुलाचारों के विषय में हम आगे कुछ विशेष संकेत करेंगे । और देखिये इस ग्रन्थ का खंड २, अध्याय ६ । विभिन्न वैदिक शाखाओं के अनुयायियों द्वारा अनुमोदित या उनमें पाये जानेवाले तथा गृह्यसूत्रों में वर्णित धार्मिक कृत्यों के विषय में जो आचार, रीतियाँ आदि हैं उनके विषय में निबन्धों ने बहुत से उदाहरण उपस्थित किये हैं । दृष्टान्त-स्वरूप हम कुछ उदाहरण यहां दे रहे हैं । याज्ञ० (१।२४२) के मत से श्राद्ध के लिए आमन्त्रित ब्राह्मणों को भोजन कराने के उपरान्त ही पितरों को पिंड देना चाहिये, किन्तु मनु (३।२६१) ने कहा है कि ब्राह्मणों को भोजन कराने के पहले भी पिण्डदान किया जाता है। स्मृतिचन्द्रिका (श्राद्ध, १०४७१) का कथन है कि इस विषय में अपनी वैदिक शाखा का अनुसरण करना चाहिये । पंचमहायज्ञों में एक पितृयज्ञ भी है, जो कुछ लोगों (यथा कात्यायन) के मत से तर्पण है और मनु (३८१) के मत से श्राद्ध है, किन्तु 'स्मृतिचन्द्रिका' (१, पृ० २०८) का कथन है कि इस विषय में अपनी शाखा का अनुसरण करना चाहिये । यही बात तर्पण के विषय में भी लागू है (स्मृतिच० १, पृ० १६१ एवं मदनपारिजात प० २८६) । गर्भाधान के मास में, जब कि सीमन्तोन्नयन संस्कार किया जाता है, अपने गृह्यसूत्र के नियमों का अनुसरण करना चाहिये (स्मृतिच० १, पृ० १७ एवं परा० मा० १, भाग २, प० २२) । यही बात नामकरण संस्कार के विषय में भी है (ल्मृतिचं० १, पृ० २१ एवं परा० मा० १, भाग २ प० २५) । गौतम (११।२१-२२) आदि का कथन है कि राजा को श्रेणियों तथा समुदाय की रीतियों का पालन कराना चाहिये । ऐसी रीतियों के विषय में देखिये इस खंड के अध्याय २१ का आरम्भिक अंश । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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