Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 2
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 447
________________ १००६ धर्मशास्त्र का इतिहास यह उपर्युक्त कलिवज्यों की पूर्ण सूची है जो 'आदित्यपुराण'से (एक या दो को छोड़कर उद्धृत की गयी है। अब हम उन कलिवयों को, जो अन्य ग्रन्थों में इतस्ततः बिखरे पड़े है, इस विवेचन को पूर्ण करने के लिए आगे दे रहे हैं। (४७) संन्यास प्रहण--व्यास ने कलियुग के ४४०० वर्षों के उपरान्त संन्यास को वर्जित ठहराया है, किन्तु देवल ने (निर्णयसिन्धु, ३, पूर्वार्ध पृ० ३७०, स्मृतिमुक्ताफल, वर्णाश्रम, पृ० १७६, यतिधर्मसंग्रह, पृ०२-३) एक अपवाद इस सीमा तक दिया है कि जब तक समाज में चारो वर्णों का विभाजन चलता रहे एवं वेद का अध्ययन चलता रहे तब तक कलियुग में संन्यास लिया जा सकता है। 'निर्णयसिन्धु' ने व्याख्या की है कि तीन दण्डों वाला (निदण्ड) संन्यास ही वर्जित है न कि एक दंड वाला । बौधायन (२।१०।५३, एकदण्डी वा) ने विकल्प दिया है कि त्रिदंडी या एकदंडी हो सकता है, किन्तु याज्ञ० (३१५८)ने यति को त्रिदंडी ही कहा है। मनु (१२।१० = दक्ष७।३०) ने कहा है कि वह व्यक्ति त्रिवंडी है जो अपने शरीर, वाणी एवं मन पर नियंत्रण रख सकता है। दक्ष (७२६, अपरार्क, पृ० ६५३) का कथन है कि यति को त्रिदंडी इसलिए नहीं कहा गया है कि वह बाँस के तीन दंडों को धारण करता है, प्रत्युत इसलिए कि वह आध्यात्मिक नियंत्रण रख सकता है (श्लोक २६) । दक्ष (१।१२-१३) ने कहा है कि जिस प्रकार मेखला, मृगचर्म एवं काष्ठदण्ड वैदिक ब्रह्मचारी के बाह्य लक्षण हैं, उसी प्रकार तीन दंड यति के लिए विशिष्ट चिह्न है। देखिये इस ग्रन्थ का खंड २, अ० २७ । यदि कलिवर्ण्य का यह वचन संन्यास को सर्वथा वजित ठहराता है तो यह भी कहा जा सकता है कि वास्तव में संन्यास धर्म का पालन कभी नहीं किया गया और न इसको कभी वास्तविक सम्मान ही मिला। फिर भी आज भी प्रति वर्ष सैकड़ों-हजारों संन्यासी होते चले जा रहे हैं। यदि जैसा कि 'निर्णयसिन्धु' का कथन है, यह कलिवयं केवल तीन दण्डों को अमान्य ठहराता है दो यह व्यर्थ का वयं है, क्योंकि इससे केवल बाहरी लक्षणों को महत्ता मिलती है न कि तत्सम्बन्धी वास्तविक रहस्य को। (४८) अग्निहोत्र का पालन या अग्न्याधान करना-व्यास (भट्टोजि दीक्षित, चतुर्विशतिमत, पृ० ५५) ने कलियुग में श्रौत अग्निहोत्र को संन्यास के साथ वजित कर दिया है,किन्तु जैसा कि हमने गत कलिवर्ण्य में देख लिया है, देवल ने इस विषय में अपवाद दिया है। कुछ निबंधों एवं लेखकों ने, यथा निर्णयसिन्धु' एवं भट्टोजि ने व्याख्या की है कि कलियुग में सर्वाधान अग्निहोत्र ही वर्जित है न कि अर्धाधान अग्निहोत्र। अग्निहोत्र का अर्थ है 'आधान' अर्थात् श्रौत अग्नियों को स्थापित रखना । जब कोई व्यक्ति तीन श्रौत अग्नियाँ स्थापित करता है तो वह ऐसा अपनी आधी स्मात अग्नि के साथ करता है और आधी स्मार्त अग्नि को अलग रखता है। इसी को अर्धाधान कहते हैं। जब वह स्मात अग्नि को अलग नहीं रखता तो यह सर्वाधान कहलाता है। यह बात लौगाक्षि (निर्णयसिन्धु, ३, पृ० ३७०),भट्टोजि आदि ने भी कही है। 'मिताक्षरा' (याज्ञ० ३।४५) ने भी सर्वाधान एवं अर्धाधान का उल्लेख किया है । अतः इन व्याख्याओं के अनुसार सर्वाधान को प्राचीन युगों में अनुमति प्राप्त थी (एक व्याख्या से कलियुग में ४४००वर्षों तक), किन्तु कलियुग में (कम से कम कलि के ४४०० बर्षों के उपरान्त) केवल अर्धाधान की अनुमति मिली है। (४६) नरमेध--इस विषय में विशेष जानकारी के लिए देखिये 'नारदीय पुराण'(पूर्वार्ध, २४।१३-१६) । तैत्तिरीय ब्राह्मण (३।४।१-१६) ने नरमेध की विधि का वर्णन किया है । (ब्राह्मणे ब्राह्मणमालभते क्षत्राय राजन्यम् । मरुदभ्यो वैश्यम् । तपसे शूद्रम् )। प्राचीनतम उक्तियाँ यह नहीं व्यक्त करतीं कि कोई मानव मारा जाता था, सारी विधि प्रतीकात्मक मात्र है । वाजसनेयी संहिता (३०१५) के बहुत से वचन तैत्तिरीय ब्राह्मण के समान हैं ।त०ब्रा० (३।४।१= वाज० सं० ३०१५) में आया है-"ब्राह्मण ब्राह्मण को दिया जाना चाहिये (आध्यात्मिक शक्ति) क्षत्रिय क्षत्र को (सैनिक शक्ति), वैश्य मरुतों को' आदि। आप० श्री० सू० (२०।२४) के मत से ब्राह्मण या क्षत्रिय इस यज्ञ को सम्पादित करता है जिसके द्वारा वह शक्ति एवं शौर्य तथा सारी समृद्धि की उपलब्धि करता है । इसमें अग्नि एवं सोम को ११ पशु मेंट दिये जाते है जिनके लिए११ यज्ञ-यूप(स्तम्भ)होते है। जब ब्राह्मण एवं अन्यों पर पर्यग्निकरण का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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