Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 2
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 441
________________ १००० धर्मशास्त्र का इतिहास रहने के प्रायश्चित्त की व्यवस्था दी है। यदि ब्राह्मण किसी शूद्र या चाण्डाल नारी से व्यभिचार करे तो संवर्त (१६६१७०) के मत से उसे चान्द्रायण-व्रत करना पड़ता है, किन्तु पराशर (१०।१७-२०)ने इससे अधिक कठिन प्रायश्चित्त की व्यवस्था दी है। किन्तु कलिवयं की व्यवस्था ऐसी है कि प्रायश्चित्त के उपरान्त भी असवर्ण नारियों के साथ व्यभिचार के अपराधी व्यक्ति अपनी जाति के लोगों के साथ सम्बन्ध नहीं स्थापित कर सकते, अर्थात् वे जातिच्युत हो जाते हैं । और देखिये 'धर्मसिन्धु'(२, पूर्वार्ध, पृ० ३५८) जहाँ यही बात शूद्रों के लिए कही गयी है । यह कलिवर्य निस्सन्देह नैतिकता की कठोरता के लिए व्यवस्थापित है, किन्तु इससे जाति-गुणविशेष की रक्षा भी हो जाती है। - (२४) किसी नीच जाति के व्यक्ति से सम्भोग करने पर माता (या उसके जैसी सम्मान्य स्त्री)का परित्याग कलिवर्ण्य है । स्त्रियों के व्यभिचार के लिए प्रायश्चित्त के विषय में सूत्रों एवं स्मृतियों की व्यवस्थाएँ सभी कालों में एक-सी नहीं रही हैं । गौतम (२३।१४) एवं मनु (८।३७१) के मत से किसी नीच जाति के पुरुष से सम्भोग करने वाली स्त्री को राजा द्वारा कुत्तों से नोचवा डाला जाना चाहिये । किन्तु अन्य स्मृतियाँ (स्वयं मनु ११।१७७) इतनी कठोर नहीं हैं, प्रत्युत वे व्यभिचारियों से सम्बन्धित व्यवहार (कानून) के विषय में अधिक उदार हैं । मनु (६।५६) एवं याज्ञ० (३।२-५)ने पुरुष के व्यभिचार(पारदार्य) को उपपातक कहा है और सभी उपपातकों के लिए चान्द्रायण व्रत प्रायश्चित्त की व्यवस्था दी है। (मनु १११११७ एवं याज्ञ० ३।२६५)। वसिष्ठ (२१।१२) के मत से तीन उच्च वर्णों की नारियाँ यदि किसी शूद्र से व्यभिचार करायें और उन्हें कोई संतानोत्पत्ति न हुई हो तो उन्हें प्रायश्चित्त से शुद्ध किया जा सकता है, अन्यथा नहीं । याज्ञ० (१७२)ने कहा है कि वह नारी व्यभिचार के अपराध से बरी हो जाती है जिसे व्यभिचार के उपरान्त मासिक धर्म हो जाय, किन्तु यदि व्यभिचार से गर्भाधान हो जाय तो वह त्याज्य है। 'मिताक्षरा' (याज्ञ०१।७२) ने कहा है कि याज्ञ० और वसिष्ठ के मत को एक ही अर्थ में लेना चाहिये और परित्याग का तात्पर्य घर से निकाल देना नहीं है, प्रत्युत उसे धार्मिक कृत्यों तथा उसके साथ सम्भोग से उसे वंचित कर देना मात्र है। वसिष्ठ (२१।१०)ने चार प्रकार की स्त्रियों को त्याज्य माना है-पति के शिष्य से या पति के गुरु से सम्भोग करनेवाली तथा पतिहन्ता या नीच जाति के पुरुष से व्यभिचार करने वाली नारी। याज्ञ० (३।२६६-२६७)ने कहा है कि पतित नारियों के लिए नियम पुरुषों के समान हैं, किन्तु उन्हें भोजन, वस्त्र एवं रक्षण मिलना चाहिये और नीच जाति के पुरुष से सम्बन्ध करने पर उन्हें जो पाप लगता है, वह स्त्रियों के तीन महापातकों में परिगणित होता है। देखिये 'मिताक्षरा' (याज्ञ० ३।२६७) । उपस्थित कलिवर्ण्य में आया है कि वह स्त्री, जो अपने सम्बन्ध (माता, बड़ी बहिन आदि) के कारण व्यक्ति से सम्मान पाने का अधिकार रखती है, उसके द्वारा न तो त्याज्य है और न सड़क पर छोड़ दिये जाने के योग्य है, भले ही वह किसी नीच जाति के व्यक्ति के साथ व्यभिचार करने की अपराधिनी हो। स्पष्ट है, यह कलिवयं वचन स्त्रियों के प्रति प्राचीन वचनों की अपेक्षा अधिक उदार है। और देखिये इस विषय में इस ग्रंथ का खंड २.० ११।आप० धर्मसू० (१।१०।२८।६)ने कहा है कि पुत्र को अपनी माता की सेवा करनी चाहिये और उसकी आज्ञाओं का पालन करना चाहिये, चाहे वह पतित ही क्यों न हो। अवि० (१६५-१६६) एवं देवल (५०-५१) का कथन है-'यदि कोई स्त्री असवर्ण पुरुष के सम्भोग से गर्भ धारण कर ले तो वह सन्तानोत्पत्ति तक अशुद्ध है । किन्तु जब वह गर्भ से मुक्त हो जाती है या उसका मासिक धर्म आरम्भ हो जाता है, तब वह सोने के समान पवित्र हो जाती है।" अनि (१६७-१६८) ने आगे कहा है कि यदि स्त्री अपनी इच्छा से किसी अन्य के साथ सम्भोग करे या वह वंचित होकर ऐसा करे या उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई वैसा करे या छिपकर वैसा करे तो वह त्याज्य नहीं होती, मासिक धर्म तक उसे देख लेना चाहिये और वह पुनः रजस्वला होने पर पवित्र हो जाती है। अत्रि एवं देवल की उदारता कलिवयं वचन से और चमक उठती हैं, क्योंकि वह व्यभिचारिणी माँ को त्याज्य नहीं कहता, पर नीच जाति से सम्भोग करनेवाली अन्य स्त्रियों के त्याग की अनुमति देता है। देवल ने म्लेच्छों द्वारा बलपूर्वक संभुक्त एवं गर्भवती बनायी गयी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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