Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 2
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

View full book text
Previous | Next

Page 438
________________ कलिवयों की तालिका ६६७ गोहत्या अत्यन्त घृणित समझी जाने लगी और कलिवर्ज्य - सम्बन्धी उक्तियों ने इस विषय में इस प्रकार की मान्यता को, जो शताब्दियों से चली आ रही थी, केवल पंजीकृत कर दिया । (१५) सौत्रामणी में मद्यपान का प्रयोग कलिवर्ज्य है । सौतामणी सोमयज्ञ नहीं है, प्रत्युत यह पशुयज्ञ के साथ एक इष्टि है । यह शब्द सुनामन् ( इन्द्र के एक नाम) से बना है । आजकल इसके स्थान पर दूध दिया जाता है, जिसे 'आपस्तम्बश्रौतसूत्र' ने प्राचीन काल में भी प्रतिपादित किया था । गौतम ( ८।२०) ने सौतामणी को सात हविर्यज्ञों में रखा था। राजसूय के अन्त में या अग्निचयन में या तब जब कोई व्यक्ति अत्यधिक सोमपान करने से वमन करने लगता था या अधिक मलत्याग करने लगता था, तो इसका सम्पादन होता था । इस विषय में देखिये इस ग्रन्थ का खंड २, अध्याय ३५ । (१६) अग्निहोत्रहवणी का चाटना तथा चाटने के उपरान्त भी उसका प्रयोग कलिवर्ज्य है। अग्निहोत्र में स्रुब को दाहिने हाथ में तथा स्रुच (अग्निहोत्रहवणी) को बाये हाथ में रखा जाता था तथा अग्निहोत्रहवणी में 'स्रुव द्वारा दुग्धपात्र से दूध निकालकर डाला जाता था । अग्निहोत्र होम के उपरान्त अग्निहोत्र हवणी को दो बार चाट लिया जाता था जिससे दुग्ध के अवशिष्ट अंश साफ हो जायें। इस प्रकार चाटने के उपरान्त उसे कुश के अंकुरों से पोंछकर उसका प्रयोग पुनः किया जाता था । सामान्यत: यदि कोई पात्र एक बार चाट लिया जाता है तो किसी धार्मिक कृत्य में उसे फिर से प्रयोग करने के पूर्व पुनः शुद्ध कर लेना परमावश्यक है। किन्तु यह नियम अग्निहोत्रहवणी एवं सोम के चमसों ( पात्र प्यालों) के विषय में लागू नहीं था । किन्तु अब यह कृत्य कलिवर्ज्य है । ( १७ ) वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना अब कलिवर्ज्य है । धर्मशास्त्र में इसके विषय में सविस्तार नियम दिये गये हैं। देखिये गौतम ( ३।२५-३४), आप ० ध० सू० (२|६|२१|१८ से २२६ । २३।२ तक ), मनु ( ६।१-३२), वसिष्ठ (६।१ - ११ ) एवं याज्ञ० ( (३।४५-५५) । और देखिये इस ग्रन्थ का खंड २, अ० २७ । संन्यास के विषय में हम आगे लिखेंगे । (१८) वैदिक अध्ययन एवं व्यक्ति की जीवन-विधि के आधार पर अशौचावधि में छूट अब कलिवर्ज्य है । अघ का अर्थ है अशौच ; वृत्त ( जीवन - विधि) का सम्बन्ध है पवित्र अग्निहोत्र करने या शास्त्रानुमोदित नियमों के अनुसार जीवन-यापन करने से ( मनु ४।७-१० ) । किसी सपिण्ड की मृत्यु पर ब्राह्मण के लिए अशौचावधि दस दिनों की होती है ( गौतम १४|१; मनु ५।५६ एवं ८३), किन्तु अंगिरा ( मिताक्षरा, याज्ञ० ३।२२) ने सभी वर्णों के लिए इस विषय में दस दिनों की अशौचावधि प्रतिपादित की है । दक्ष ( ६ | ६ ) एवं पराशर ( ३।५ ) का कहना है कि वह श्रोत्रिय ब्राह्मण जो वैदिक अग्निहोत्र करता है और वेदज्ञ है, अशौच से एक दिन में मुक्त हो जाता है, अग्निहोत न करने वाला वेदज्ञ ब्राह्मण तीन दिनों में; किन्तु जो दोनों गुणों से हीन है, दस दिनों में मुक्त होता है। 'अपरार्क' ( पृ० १६४) एवं हरदत्त ( गौतम १४।१) ने इसी विषय में बृहस्पति के वचन दिये हैं । 'मिताक्षरा' (याज्ञ० ३।२८-२६ ) का कथन है कि अशौचावधि का संकोच ( कम करना) सब बातों के लिए सिद्ध नहीं है, इसका प्रयोग केवल विशिष्ट बातों तक ही सीमित है, यथा दानग्रहण, अग्निहोत्र - सम्पादन, वेदाध्ययन तथा वे कृत्य जिनके सम्पादन में अशौचावधि में संकोच न करने के कारण कष्ट या कोई विपत्ति आ सकती है। 'मिताक्षरा' के इस कथन से यह स्पष्ट सिद्ध है कि विज्ञानेश्वर ( ११वीं शताब्दी के अन्त में) अशौचावधि के संकोच की वर्जना के विषय में अनभिज्ञ थे और उसके विषय में उन्होंने किसी प्रकार का आदर नहीं प्रदर्शित किया है । अशौचावधि के संकोच के मूल में सम्भवतः यही आशय था कि इससे गड़बड़ी हो सकती थी, क्योंकि एक व्यक्ति अपने को विद्वान् कहकर छुटकारा पा सकता है तो उसका पड़ोसी ऐसा अधिकार नहीं जता सकता । (१६) ब्राह्मणों के लिए प्रायश्चित्तस्वरूप मृत्यु दण्ड कलिवर्ज्य है । मनु (११।८६) ने व्यवस्था दी है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454