Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 2
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 412
________________ स्मृतियों को द्विविधा में शिष्टाचार एवं तक का अनुसरण ६७१ में मध्यकाल के निबन्धों और टीकाकारों को बाध्य होकर व्याख्या द्वारा नियम प्रतिपादित करने पड़े। बहुत पहले एक बात प्रतिपादित की जा चुकी थी कि जब दो स्मृति-वचनों में विरोध हो तो शिष्टों के व्यवहार पर आधारित तर्क को अधिक बल देना चाहिये (याज्ञ० २।२१) ।१३ 'मिताक्षरा' ने कहा है कि ऐसी स्थिति में ऐसा समझना चाहिये कि एक स्मृति-वचन सामान्य नियम देता है तो दूसरा स्मृति-वचन विशिष्ट नियम, जो सामान्य नियम की अपेक्षा अच्छा समझा जाता है, या ऐसा समझना चाहिये कि वह स्मृति-वचन भिन्न परिस्थितियों से सम्बन्धित है या अन्तिम रूप में उसे विकल्प रूप में लेना चाहिये । किन्तु इन निष्कर्षों तक पहुँचने में शिष्टों के आचारों का अनुसरण करना चाहिये, जो किसी नियम को मान्यता देते हैं, किसी को छोड़ देते हैं या उसकी चिन्ता नहीं करते। बृहस्पति का कथन है-'किसी विवाद के निर्णय में केवल शास्त्रों पर निर्भर नहीं रहना चाहिये, क्योंकि निर्णय में तर्क के अभाव से धर्म की हानि होती है ।"१४ नारद (१।४०) ने 'मिताक्षरा' के समान ही कहा है-''जब धर्मशास्त्र के वचनों में विरोध हो तो ऐसा घोषित हुआ है कि (उस स्थिति में) तर्क का सहारा लेना चाहिये । क्यों किलोक-व्यवहार (शिष्टों का आचरण) बलवान् होता है और उनसे धर्म (स्मृति-वचन) अपेक्षाकृत दुर्बल पड़ जाता है (अथवा उससे धर्म का उचित ज्ञान हो जाता है)।" निष्कर्ष यह है कि जब शास्त्रीय नियम संकीर्ण सिद्ध हों जायें या जब वे प्रगतिशील समाज के मतों की संगति में न बैठ सकें तो शिष्टों के वचन को प्रामाणिकता मिलनी चाहिये ।। एक' नियम एसा भी था कि जब धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र के नियमों में विरोध पड़ जाय तो प्रथम को अधिक बल या प्रामाणिकता मिलनी चाहिये और दूसरे को तिरस्कृत कर देना चाहिये ।१५देखिये आप० ध० सू० (१।६।२४। २३); याज्ञ०(२०२१); नारद (१।३६) एवं कात्यायन (२०)। अर्थशास्त्र के नियमों का सम्बन्ध लौकिक उद्देश्यों की पति से है और धर्मशास्त्र के नियम अदष्टार्थ हैं, अर्थात उनसे पारलौकिक फल प्राप्त होते हैं, अतः आध दृष्टिकोण से उसे अपेक्षाकृत अधिक महत्ता प्राप्त है।। स्मृतियों के विरोध के समाधान के लिए कई प्रकार की विधियाँ प्रतिपादित हुई हैं । बृहस्पति का कथन है"मनुस्मृति को प्रमुखता या प्रधानता प्राप्त है, क्योंकि वह वेदार्थ उपस्थित करती है(अर्थात् वेदों के वचनों के अर्थ को एकत्र करती है); वह स्मृति जो मनु के अर्थ के विपरीत है,अच्छी नहीं मानी जाती अर्थात उसे प्रशंसा नहीं मिलती।"१६ १३. स्मृत्योविरोधे न्यायस्तु बलवान् व्यवहारतः । याज० (२।२१) । १४. न्यायमनालोचयतो दोषमाह बृहस्पतिः । केवलं शास्त्रमाश्रित्य न कर्तव्यो हि निर्णयः। युक्तिहीने विचारे तु धर्महानिः प्रजायते ॥ व्य० मयूख (पृ० ७); परा० मा० (३, पृ० ३६); व्य०मातृका (पृ.० २८१); स्मृतिच० (२, १० २४); व्य० प्र० (पृ. १३); धर्मशास्त्रविरोधे तु युक्तियुक्तो विधिः स्मृतः। व्यवहारो हि बलवान् धर्मस्तेनावहीयते ।। नारद (१।४०) । व्य० मातृका (१०२८२) के मत से 'युक्ति' का अर्थ है लोकव्यवहार । और देखिये व्यवहारतत्त्व (प०१६६); धर्मशास्त्र योस्तु विरोधे लोकव्यवहार एवादरणीयः ।...अवहीयते अवगम्यते, हि गतावित्यस्माद्धातोः । १५. यत्र विप्रतिपतिः स्याद्धर्मशास्त्रार्थशास्त्रयोः । अर्थशास्त्रोक्तमुत्सृज्य धर्मशास्त्रोक्तमाचरेत ॥ नारद (१।३६); मेधा० (मनु ७।१) : १६. वेदार्थोपनिबद्ध (वष ?) त्वात् प्राधान्यं हि मनोः स्मृतम् । मन्वर्थविपरीता तु या स्मृतिः सा न शस्यते॥ तावच्छास्त्राणि शोभन्ते तर्कव्याकरणानि च । धर्मार्थमोक्षोपदेष्टा मनुवन्न दृश्यते ।। बृह० (कुल्लू क, मनु ११)। और देखिये अपराकं (पृ० ६२८), स्मृतिच० (१, पृ० ६ एवं ७)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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