Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 2
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 413
________________ ६७२ धर्मशास्त्र का इतिहास यही बात अंगिरा ने भी कही है। 'मिताक्षरा' (याज्ञ० ३।३००) ने मनुस्मृति आदि को 'महास्मृति' को संज्ञा दी है । कुछ लेखकों ने वैदिक वचन उद्धृत किया है--मनु ने जो कुछ कहा है वह, वास्तव में, भेषज (औषध) है।' यहाँ मनु को (मनुस्मृति के लेखक मनु को) वेदों में उल्लिखित मनु के समनुरूप माना गया है।' १७ किन्तु इससे अधिक सहायता नहीं प्राप्त होती। अतः एक अन्य दृष्टिकं ण उपस्थित विया गया कि कुछ कालों में आचार के कुछ विशिष्ट नियम तथा कुछ विशिष्ट स्मतियाँ विशिष्ट प्रामाणिकता रखती हैं । मन (१।८५-८६ = शान्तिपर्व २३२।२७-२८ = पराशर १।२२-२३ = बृहत्पराशर १, पृ.० ५५) ने स्वयं कहा है कि किसी प्रचलित युग के विषय (या विभिन्न युगों के विषय) में धर्मों की गति विभिन्न है, यथा--कृत (सत्य) में तप प्रमुखतम धर्म था, त्रेता में ज्ञान, द्वापर में यज्ञ और कलि में दान प्रमुखतम धर्म है । इसका केवल तात्पर्य यह है कि किसी विशिष्ट युग में कोई विशिष्ट धर्म महत्त्वपूर्ण माना जाता है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि एक युग का विशिष्ट धर्म दूसरे युग में वजित है। पराशर (१।२४ = बृहत्पराशर १, पृ० ५५) ने घोषित किया है कि कृतयुग में मनु द्वारा उद्घोषित नियम माने जाते थे और इसी प्रकार त्रेतायुग में गौतम द्वारा, द्वापर युग में शंख-लिखित द्वारा एवं कलियुग में पराशर द्वारा उद्घोषित धर्मों को मान्यता मिली है। इस दृष्टिकोण से भी कठिनाइयाँ दूर नहीं होती, क्योंकि मध्य काल के निबन्धों एवं टीकाओं से पता चलता है कि पराशर द्वारा जो उद्घोषि त अथवा आज्ञापित किया गया था उसे लोगों ने या तो निन्द्य समझा अथवा मान्यता न दी। स्मृतियों की बहुत-सी व्यवस्थाएं इसी कारण से कलिवर्य (कलियुग में वर्जित) ठहरा दी गयीं और यह कहा गया कि जो कृत्य किसी समय शास्त्रों द्वारा व्यवस्थित अथवा अनुमोदित था, वह अब मान्य नहीं हो सकता, विशेषतः जब कि वह लोगों की दृष्टि में निन्द्य सिद्ध हो और उससे स्वर्ग की प्राप्ति न हो।१६ यही वचन याज्ञ० (१।१५), बृहन्नारदीयपुराण (२४।१२),मनु (४७६), विष्णु (७१।८४-८५), विष्णुपुराण (३।११।७), शुक्र (३३६४)एवं बार्हस्पत्य सूत्र (५।१६) ने भी कहा है। और देखिये इस खंड का अध्याय २७ । 'मिताक्षरा' ने उपर्युक्त वचनों को कुछ कृत्यों के वर्जित करने के लिए (यद्यपि वे प्राचीनकाल में विहित ठहराये गये थे) प्रमाणस्वरूप माना है (याज्ञ० २।११७ एवं ३।१८) व्यवहारप्रकाश (पृ०४४२) आदि में भी यही बात कही गयी है। किन्तु, व्याख्या की ऐसी विधियाँ भी कुछ विवादों के विषय में व्यर्थ सिद्ध होती है। किसी की मृत्यु पर क्षत्रियों आदि के लिए सूतक की अवधियों के विषय में स्मृतिवचनों में मतैक्य नहीं है और उनमें इतना विरोध है कि महान लेखक विज्ञानेश्वर (याज्ञ०३।२२) को कहना पड़ा कि वे इस विषय में स्मृतिवचनों के अनुरूप कोई विधिवत् व्याख्या नहीं दे सकेंगे, क्योंकि शिष्टों के वचनों के मतैक्य के अभाव में (बहुत से शिष्ट उन वचनों से भिन्नता के कारण सहमत नहीं हैं) ऐसा करना व्यर्थ है। ऐसी ही कठिनाई में विश्वरूप (याज्ञ० ३।३०) भी पड़ गये हैं। टीकाकारों(माधव, परा० मा० ११, १०८४ आदि) ने ऐसा कहा है कि साधारण लोग परिश्रमसाध्य धार्मिक कृत्यों (जिन्हें करने के लिए कठिन से कठिन नियम प्रतिपादित हैं)की अपेक्षा सरल नियमों की ओर दौड़ते हैं।२० १७. श्रुतिरपि यद्व किं च मनुरवदत्तद् भेषजम् । स्मृतिमुक्ताफल (वर्णाश्रम, पृ० ६)। यह वचन ते० सं० (२।२।१०।२) एवं काठक (११:५) में पाया जाता है। १८. कृते तु मानवो धर्मस्त्रेतायां गौतमः स्मृतः । द्वापरे शंखलिखितः कलो पाराशरः स्मृतः ॥ पराशर (१।२४; स्मृतिचं० १, पृ० ११: आचाररत्न पृ० १२)। १९. परित्यजेदर्थकामी धर्मपीडाकरो नृप । धर्ममध्यसुखोदकं लोकविद्विष्टमेव च ॥ विष्णुपुराण (३।२।७); धर्ममपि लोकविक्रुष्टं न कुर्यात् लोकविरुद्धं नाचरेत् । बार्हस्पत्यसूत्र (५।१६)। २०. अतः कलो प्राणिनां प्रयाससाध्ये धर्म प्रवृत्यसम्भवात् सुकरो धमोऽत्र बुभुत्सित :। परा० मा० (१, भाग १, पृ. ८४)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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