Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 2
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 415
________________ ६७४ धर्मशास्त्र का इतिहास याज्ञ० (१३) ने पुराणों को ऐसे ग्रन्थों की कोटि में गिना है जिनसे राजा या अन्य कोई धर्म-ज्ञान प्राप्त कर सकता है, आप० ध० सू० (१।६।१६।१३, १।१०।२६।८ एवं २।६२३।३) ने एक पुराण से उद्धरण दिये हैं और एक स्थान (२।२४।६) पर भविष्यपुराण का नाम लिया है। यह विचारणीय है कि आपस्तम्ब द्वारा पुराणों के उद्धत कुछ मत कलिवज्यं नामक परिच्छेद में दिये गये मतों के विरोध में हैं और ऐसा कहा जाता है कि वे मध्यकाल के निबन्धों में आदित्यपुराण से लिये गये हैं। हमने गत अध्याय में देख लिया है कि तन्त्रवार्तिक ने पुराणों, मनुस्मृति एवं इतिहास को पूरे भारतवर्ष में सार्वजनीन माना है। जब कि मनु ऐसा कहते कि स्मृति धर्म का मूल है तो उनके कहने का यह तात्पर्य नहीं है कि स्मृति के अन्तर्गत पुराण भी सम्मिलित हैं (मनु २।१०)। मनु (३३२३२) एवं याज्ञ० (३।१८६) ने 'पुराणानि' शब्द प्रयुक्त किया है जो स्पष्टतः बहुवचन में है। अतः स्पष्ट है कि स्मृतियों को बहुत-से पुराणों के विषय में जानकारी थी । 'मेधातिथि' ने टिप्पणी दी है कि उनका प्रणयन व्यास द्वारा हआ था और उन्होंने संसार की सष्टि आदि के विषय में वर्णन किया है। स्त्रीपर्व (१३१२) ने भी बहुवचन का प्रयोग किया है और स्वर्गारोहणपर्व (५।५६।४७) न कृष्ण-द्वैपायन (व्यास) को अठारह पुराणों का प्रणेता माना है। आदिपर्व (१२६३-२६४) का कथन है कि इतिहास और पुराण (के अध्ययन) से वेदको समृद्ध करना चाहिये और वेद उस मनुष्य से भय खाता है जिसका ज्ञान अल्प होता है (यह मेरी हानि करेगा = मामयं प्रहरिष्यति) । 'भागवतपुराण' (१।४।२५) के मत से स्त्रियों,शूद्रों एवं केवल जन्म से ज्ञात होने वाले ब्राह्मणों (ऐसे ब्राह्मण जो वेद नहीं पढ़ते और केवल ब्राह्मणकुल में जन्म लेने के कारण ब्राह्मण कहे जाते हैं)पर व्यास ने कृपा करके महाभारत का प्रणयन किया।२४ यही बात पुराणों के प्रणयन के उद्देश्य के विषय में भी कही जा सकती है । दक्षस्मृति (२०६६) ने कहा है कि इतिहास और पुराण का पाठ दिन (आठ भागों में विभाजित) के छठे एवं सातवें भाग में करना चाहिये ।२५औशनसस्मृति (३, पृष्ठ ५१५, जीवानन्द) ने वेदाध्ययन के लिए उत्सर्जन के उपरान्त माघ मास से लेकर प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष को उचित माना है और इसी प्रकार वेदांगों और पुराण के अध्ययन के लिए कृष्ण पक्ष की व्यवस्था दी है। ऐसा लगता है कि उपस्थित पुराणों में कुछ ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में ही प्रणीत हो चुके थे और प्रारम्भिक काल से ही उनमें धर्मशास्त्रीय विषय पाये जाते रहे हैं। हम आग चलकर पुराणधर्म के विषय में एक पृथक् अध्याय लिखेंगे । क्रमश: कुछ शताब्दियों के अन्तर्गत ही पुराण अति विख्यात हो गये, वेद तथा प्रारम्भिक स्मृतियों द्वारा व्यवस्थित कुछ मौलिक कृत्य अप्रचलित हो गये और नये प्रकार की पूजाविधियाँ एवं कृत्य पुराणों द्वारा व्यवस्थित होकर जनसाधारण में फैलने लगे । व्यास-स्मृति (१।४) एवं संग्रह का कथन है कि स्मृति एवं पुराण के विरोध में स्मृति को वरीयता मिलनी चाहिये । २६ अपरार्क (१०६) ने उद्धरण देकर कहा है कि वही धर्म परम धर्म है जो वेद से समझा जाता है और वह धर्म अवर(जो वर न हो),निकृष्ट, (अप्रधान) धर्म है जो पुराणों आदि २४. स्त्रीशूद्रद्विजबंधूनां त्रयो न श्रुतिगोचरा । इति भारतमाख्यानं कृपया मुनिना कृतम् ।। भागवत (१।४। २५); तेनोक्तं सात्वतं तंत्र यज्ज्ञात्वा मुक्तिभाग्भवेत् । यत्र स्त्रीबदासानां संस्कारो वैष्णवो मतः ॥ देखिये परिभाषाप्रकाश (पृ. २४)। २५. इतिहासपुराणाद्यः षष्ठसप्तमको नयेत् । दक्ष (२१६६, अपराकं पृ० १५७) । २६. श्रुतिस्मृतिपुराणानां विरोधों यत्र दृश्यते । तत्र श्रोतं प्रमाणं स्यात् तयोवैधे स्मृतिर्वरा ॥ व्यास (१।४); श्रुतिस्मृतिपुराणेषु विरुद्धेषु परस्परम् । पूर्व पूर्व बलीयः स्यादिति न्यायविदो विदुः ॥ सग्रह (स्मृतिमुक्ताफल, वर्णाश्रम, पृ०७)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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