Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 2
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

View full book text
Previous | Next

Page 414
________________ वैविक और वेदबाह्य स्मृति तथा पुराणों के प्रमाण का विचार कुछ विषयों में ऐसी व्यवस्था दी गयी थी कि जहाँ स्मृतियों में विरोध हो तो बहुमत को मान्यता देनी चाहिये। गोभिलस्मृति (३।१४८-१४६) ने कहा है कि जहाँ (स्मृतियों के) वचनों में विरोध हो, प्रामाणिकता उसी को मिलनी चाहिये जो स्मृतिवचनों के बहुमत से समर्थित हो, किन्तु जहाँ दो वचन समान रूप से प्रामाणिक हों, वहाँ तर्क का सहारा लेना चाहिये । २१ मेधातिथि' (मनु २।२६ एवं ११।२१६), 'मिताक्षरा' (याज्ञ० ३।३२५), 'स्मृतिचं०' (१ पृ० ५), 'अपराक' (पृ० १०५३), 'मदनपारिजात' (पृ० ११ एवं ६१)आदि के मत से सभी स्मृतियाँ शास्त्र की संज्ञा पाती हैं और जब एक ही विषय पर कुछ स्मृतिवचनों में विरोध हो तो वहाँ विकल्प होता है और जब कोई विरोध न हो तो सभी स्मतियों के सभी नियम उस विषय में प्रयुक्त होते हैं। यह कथन 'सर्वशाखाप्रत्ययन्याय' या 'शाखान्तराधिकरण' नामक सिद्धान्त पर आधारित है (देखिये जैमिनि २।४।६ और उस पर शबर का भाष्य)।। ऐसा कहा गया है कि पाषण्ड सम्प्रदायों के ग्रन्थों का परित्याग होना चाहिये । मनु उन्हें स्मृतियों के नाम से ही पुकारते हैं, किन्तु वे वेदबाह्य (वैदिक मान्यता के बाहर वाली) कहलाती हैं। मनु (१२१६५) ने घोषित किया है"वेदबाह्य स्मृतियाँ एवं सभी अन्य झूठे अथवा तर्कहीन मत मृत्यु के उपरान्त निष्फल माने गये हैं, क्योंकि वे तमोनिष्ठ अथवा अज्ञान पर आधारित हैं।"२२वेदान्तसूत्र (२।१।१) में भी 'स्मृति' शब्द सांख्यदर्शन-सम्बन्धी ग्रन्थों के लिए प्रयुक्त किया गया है । तन्त्रवार्तिक (पृ० १६५) का कथन है कि बौद्ध तथा अन्य नास्तिक सम्प्रदाय अपने सिद्धान्तों को वेद पर आधारित नहीं मानते, यह दुष्ट पुत्र द्वारा माता-पिता के प्रति व्यक्त घृणा के समान है। उनमें (उनके ग्रन्थों में) जो व्यवस्थाएँ प्रतिपादित हैं, वे चौदह विद्याओं के विरोध में पायी जाती हैं। केवल कुछ विषयों में, यथा इन्द्रिय-निग्रह, दान आदि से सम्बन्धित उक्तियों में समानता है। वे सब बुद्ध के समान ऐसे लोगों द्वारा प्रतिपादित हैं, जिन्होंने वेदमार्ग का परित्याग किया था और वेदविरोधी हो गये थे, वे ऐसे लोगों के लिए प्रतिपादित हुईं थीं जो तीनों वेदों के बाहर थे और अधिकांश में शूद्र थे या ऐसे थे जो चारों वर्णों और आश्रमों के अन्तर्गत नहीं परिगणित होते थे। 'मेधातिथि' (२६) ने कुमारिल के इस कथन को स्वीकृत कर कहा है कि शाक्य, भोजक एवं क्षपणक लोग वेद को प्रमाण नहीं मानते, और उद्घोष करते हैं कि वेद अप्रामाणिक है और उसके विरोध में सिद्धान्त बघारते हैं। चतुर्विशतिमत का कथन है कि अर्हत् (जिन), चार्वाक एवं बौद्धों के वचनों का परित्याग करना चाहिये क्योंकि वे विप्रलम्भक (भ्रामक) हैं।२३ अब हम स्मृतियों एवं पुराणों के विरोध के प्रश्न पर विचार करेंगे । हमने इस महाग्रन्थ के खंड २, अध्याय १ में दिखलाया है कि पुराण धर्मशास्त्र सम्बन्धी विषयों से सम्पृक्त हैं, अर्थात पुराणों में धर्मशास्त्र सम्बन्धी बातों की बहुलता पायी जाती है। सूत्रों एवं आरम्भिक स्मृतियों ने पुराणों को धर्म का मूल नहीं माना है, यद्यपि गौतम (११।१६) एवं २१. अल्पाना यो विधातः स्यात्स बाघो बहुमिः स्मृतः । प्राणसंमित (ध्राण? ) इत्यादि वासिष्ठं बाधितं यथा ॥ विरोधो यत्र वाक्यानां प्रामाण्यं तत्र भूयसाम्। तुल्यप्रमाणकत्वे तु न्याय एवं (एव ?) प्रकीर्तितः॥ गोभिलस्मृति (३.१४८-१४६) । और देखिये वसिष्ठ (१११५७, जहाँ वैश्य ब्रह्मचारी के दंड की लम्बाई के विषय में कहा गया है) एवं मलमासतत्त्व (पृ० ७६७) । २२. या वेदबाहाः स्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टयः। सर्वास्ता निष्फलाः प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ताः स्मृताः ॥ मनु (१२१६४) एवं तंत्रवात्तिक (जै० १।३।५, पृ० १६६)। २३. अर्हच्चार्वाकवाक्यानि बौद्धादिपठितानि च । विप्रलम्भकवाक्यानि तानि सर्वाणि वर्जयेत् ॥ चतुर्विशतिमत (स्मृतिचा०, वर्णाश्रम, पृ०७; स्मतिच० १, पृ० ५)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454