Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 2
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 396
________________ श्रुति अनुसारिणी स्मृतियों की ही मान्यता ६५५ इस प्रकार के विरोध के विषय में तीन उदाहरण दिये हैं-- वेदोक्ति हैं; 'पुरोहित को औदुम्बर स्तम्भ छूकर स्तोत्र पढ़ना चाहिये,' किन्तु स्मृति-कथन यह है कि औदुम्बर स्तम्भ कपड़े से पूर्णतः ढँका रहना चाहिये । वेदोक्ति है; "जिसको पुत्रोत्पत्ति हुई हो और जिसके बाल अभी काले हों उसे अग्निहोत्र आरम्भ करना चाहिये', किन्तु स्मृति की उक्ति यों है कि अड़तालीस वर्षों तक वैदिक अध्ययन-व्रत करना चाहिये । वेदोक्ति है; 'जब अग्निषोमीय कृत्य समाप्त हो जाय तो यजमान के घर भोजन न करना चाहिये', किन्तु स्मृति वाक्य यह है कि सोम लता के क्रय के उपरान्त यज्ञ के लिए दीक्षित व्यक्ति के यहाँ भोजन करना चाहिये । इस विषय में जैमिनि का कथन है कि जब विरोध उपस्थित हो जाय तो स्मृतिवचन का तिरस्कार कर देना चाहिये और जब कोई विरोध न प्रकट हो तथा वैसा वचन श्रुति में न पाया जाय तो ऐसा अनुमान लगाना चाहिये कि वह वचन किसी वैदिक वचन पर आधारित है । कुमारिल ने शबर के उदाहरणों की समीक्षा है और निर्णय किया है कि अन्य उक्तियों से इन उदाहरणों का कोई भेद नहीं प्रकट होता । उन्होंने इस विरोध को दूर करने का प्रयत्न किया है। हम स्थानाभाव से इस विवेचन के विस्तार में नहीं पड़ेंगे । बर (जैमिनि १।३।४ ) ने कहा है कि वेद-वचनों के विरोध में जो तीन स्मृति-वचन दिये गये हैं वे प्रामाणिक नहीं हैं, क्योंकि उनके पीछे लौकिक वृति (लोभ आदि) की सिद्धि सम्भव है। जब किसी स्मृति वचन के पीछे कोई स्पष्ट वृत्ति प्रकट हो जाय तो उस वचन के लिए वेद का आधार ढूंढना अनुचित है । शबर ने आधुनिक समालोचक के समान, पुरोहितों के दोषों को देखा है। कुछ पुरोहितों ने औदुम्बर स्तम्भ को वस्त्र से पूर्णतः इसलिए ढँक दिया कि उन्हें लम्बा वस्त्र दक्षिणारूप में प्राप्त हो जायगा, कुछ पुरोहितों ने सोम क्रय के उपरान्त ही दीक्षित यजमान के यहाँ भूख के कारण निःशुल्क भोजन पाने की व्यवस्था कर दी ( यह भी उनके लोभ का द्योतक है) यथा कुछ लोगों ने अपने अपौरुष ( नपुंसकता ) को छिपाने के लिए ४८ वर्षों तक वेदाध्ययन की व्यवस्था कर दी । तन्त्रवार्तिक ने प्रयत्न करके सिद्ध करना चाहा है कि इन उदाहरणों में लोभ जैसी स्पष्ट वृत्ति नहीं पायी जाती ( पृ० १८८ - १८६) । शबर (जैमिनि १।३।४ ) ने जो व्याख्या की है उसका तात्पर्य यह है कि जो स्मृति-नियम श्रुति-नियमों के विरोध में पड़ते हैं तथा जिन स्मृति वचनों में लौकिक वृत्ति की झलक है वे न तो प्रामाणिक ही हैं और न उनके अनुसार चलना आवश्यक ही है, किन्तु स्मृति के अन्य नियम प्रामाणिक हैं । उपर्युक्त विवेचन से धर्मशास्त्रों में उल्लिखित एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त की झलक मिल जाती है। वह सिद्धान्त यह है - "जब किसी नियम या आदेश के विषय में कोई स्पष्ट वृत्ति या उद्देश्य प्रकट हो जाता है तो उसके लिए कोई अलौकिक कारण बताना अनुचित है ।" यह सिद्धान्त आप० ध० सू० ( १।४ / १२/१२ ) के निम्न वचन से प्राचीन है -- ' जब व्यक्ति कोई कार्य इसलिए करते हैं कि वैसा करने से उन्हें आनन्द मिलता है, तो वहाँ शास्त्र की बात ही नहीं उठती।" शबर ने भी कहा है- "उन स्मृति-नियमों की प्रामाणिकता उसी उद्देश्य पर निर्भर रहती है जिसके लिए वे बने हुए हैं, किन्तु जिन नियमों के पीछे कोई स्पष्ट उद्देश्य नहीं होता, वे वेद पर आधारित होते हैं (अर्थात् उनकी प्रामाणिकता उसी पर निर्भर है ) ।' कुल्लूक (मनु ३।७) ने शबर के इन शब्दों को उद्धृत किया है -- 'मनु का कथन है कि जिस कुल में संस्कारों का तिरस्कार हो, जहाँ पुरुष-संतान न उत्पन्न होती हों, जहाँ वेदाध्ययन न होता हो, जिसके सदस्यों के शरीर पर लम्बे-लम्बे बाल हों, और जो अर्श, यक्ष्मा, मंदाग्नि, अपस्मार (मिर्गी), कृष्ण एवं श्वेत 'कुष्ठ ७. हेतुदर्शनाच्च । जं० ( १।३।४); लोभाद्वास आदित्समाना औदुम्बरीं कृत्स्नां वेष्टितवन्तः केचित् । तत्स्मृतेबीजम् । बुभुक्षमाणाः केचित् श्रीतराजकस्य भोजनमाचरितवन्तः । अपुस्त्वं प्रच्छादयन्तश्चाष्टाचत्वारिंशद्वर्षाणि drब्रह्मचर्यं चरितवन्तः । तत एषा स्मृतिरवगम्यते । शबर ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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