Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 2
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 408
________________ नीतिसम्मत रीति, परंपरा और वर्गगत या सामूहिक आचार की मान्यता मनु ने कतिपय स्थानों पर परम्पराओं एवं रीतियों के प्रतिष्ठापन की व्यवस्था दी है-"विजयी राजा द्वारा विजित देश की वैधानिक परम्पराओं को प्रामाणिकता एवं अनुल्लंघनीयता दी जानी चाहिये" (मनु ७।२०३); 'धर्मज्ञ राजा को चाहिये कि वह जाति, जनपदों (देशों), श्रेणियों एवं कुलों के धर्मों (रीतियों या नियमों या विधियों) की जानकारी सावधानी से करे और उन्हें उन विशिष्ट स्थानों में व्यवस्थित करे। शिष्टों (सद् व्यक्तियों) एवं धर्मज्ञ द्विजों द्वारा प्रयुक्त जो धर्माचरण हैं उसे राजा द्वारा नियम के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहिये,बशर्ते वह जनपदों, कुलों एवं जातियों की परम्पराओं के विरुद्ध न हो" (मनु ८।४१ एवं ४६)। मेधातिधि (मनु २१६) ने कहा है कि यह राजा का कर्तव्य है कि वह यह समझ ले कि जनपदों, कुलों, जातियों एवं श्रेणियों की परम्पराएँ वेद-विरुद्ध तो नहीं हैं अथवा अन्यों के लिए अहितकर तो नहीं है,अथवा पूर्णरूपेण अनैतिक(यथा अपनी माँ से विवाह करना) तो नहीं हैं; केवल वे ही परम्पराएँ राजा द्वारा प्रतिष्ठापित होनी चाहिये जो ऐसी नहीं हैं ; शिष्टों के सदाचार वेद-स्मृतिकथनों के अभाव में सम्मान्य होने चाहिये और यह समझना चाहिये कि वे वेद पर आधारित हैं (शिष्टों को वेदज्ञ, अलोलुप एवं सदाचारी होना परमावश्यक है)। मेधातिथि ने इस प्रकार के सदाचार के कई उदाहरण दिये हैं और महाभारत (वनपर्व ३१३।११७) के वचनों का सहारा लिया है--"(सत्य) धर्म का तत्व अंधेरी गुफा में छिपा हुआ है; (ऐसी स्थिति में एक मात्र) मार्ग वही है जिसका अनुसरण महाजन (शिष्ट जन) करते हैं।" मनु (१।११८) ने घोषित किया है कि उन्होंने अपने शास्त्र (शास्त्र-विधान या व्यवस्था विधि) में देशों (जनपदों), जातियों एवं कुलों के प्राचीन (बहुत दिनों से चलते आये हुए) कानूनों (या परम्पराओं) एवं पाषंडियों (नास्तिकों या वेद-विरोधियों) तथा श्रेणी (व्यापारियों आदि के वर्ग) के नियमों का विवेचन किया है । याज्ञ० (१।३४३) ने व्यवस्था दी है कि जब विजयी राजा किसी देश को जीतता है तो उसे वहाँ की परम्पराओं, कानूनों एवं व्यवहार-विधियों (कानूनी प्रणालियों) अथवा न्याय-विधियों तथा पीढ़ियों से चली आयी हुई कुलरीतियों (जब कि वे शास्त्र विरोधी न हों) को सुरक्षित रखना चाहिये और जैसा कि 'मिताक्षरा' ने कहा है कि राजा को अपने देश की रीतियों को विजित देश पर लादकर विरोध नहीं खड़ा करना चाहिये। याज्ञ० (२।१६२) ने मनु और गौतम के समान प्रतिपादित किया है कि राजा को उसी प्रकार श्रेणियों (शिल्पियों के समुदायों, दलों अथवा वर्गों), नैगमों (व्यवसायियों), पाषंडियों एवं अन्य समुदायों (यथा आयुधजीवियों के समुदाय के समान अन्य समुदायों) की विभिन्न रीतियों को उसी प्रकार मान्यता देनी चाहिये जिस प्रकार वह विद्वान् ब्राह्मणों के प्रयोगों ६. जातिजानपदान्धर्मान् श्रेणीधर्माश्च धर्मवित् । समीक्ष्य कुलधर्माश्च स्वधर्म प्रतिपादयेत् ।। मनु (८।४१)। इस पर मेधातिथि ने यो टीका की है-"समीक्ष्य विचार्य किमाम्नायविरुद्धा अथ न तथा पीडाकराः कस्यचिदुत न एवं विचार्य येऽविरुद्धास्तान प्रतिपादयेत् अनुष्ठापयेदित्यर्थः ।......मातृबिवाहादि सार्वभौमेन निवारणीयः ।......एककार्यापन्ना वणिककारुकुसीदचातुर्विद्यादयः तेषां धर्माः श्रेणीधर्माः।" कुछ ग्रन्थों में ऐसा आया है कि पारसीकों में माता से विवाह करने की अनैतिक प्रथा थी । देखिये यशस्तिलकचम्पू-श्रूयते हि वंगीमण्डले नृपतिदोषाद् भदेबेष्वासवोपयोगः पारसीकेषु च स्वसवित्रीसंयोगः सिंहलेषु विश्वामित्रसृष्टि-प्रयोग इति ।' (चौथा आश्वास, पृ०६५)। देखिये स्मृतिमुक्ताफल (पृ० १३०) एवं स्मृतिच० (१, पृ० १०)। ७. अथाप्ययं न्यायो महाजनो येन गतः सपन्था इति...। विद्वांसो पत्र निष्कामाः प्रवृत्तिपूर्वा अनिंद्याश्च लोके अथाप्रामाणिकी प्रवृत्तिः सापि वेदप्रामाण्यात् सिद्धवेति । मेघा० (मनु २।१ ) । वनपर्व (३१३३३१७) का मूल श्लोक यह है-'तको प्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम् । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः । विश्वरूप (याज्ञ. १६) ने भी 'धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम्' ये शब्द उधृत किये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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