Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 2
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 382
________________ स्त्रीधन को क्षेत्रीय मान्यताएं ६४१ अब हमें यह देखना है कि टीकाकारों एवं निबन्ध कारों ने किस प्रकार स्त्रीधन की व्याख्या की है। आज के न्यायालयों ने टीकाकारों द्वारा स्थापित मान्यताओं को ही प्रामाणिकता दी है । अतः इस दृष्टि से व्यावहारिक उपयोगों के लिए उनके दृष्टिकोणों की समीक्षा परमावश्यक है । सर्वप्रथम हम 'मिताक्षरा' के मत का उद्घाटन करेंगे। याज्ञ० (२११४३) की व्याख्या में 'मिताक्षरा' का निम्न कथन है--"पिता, माता, पति एवं भ्राता द्वारा जो कुछ दिया जाय; विवाह के समय वैवाहिक अग्नि के समक्ष मामा आदि द्वारा जो कुछ भेटें दी जायँ; आधिवेदनिक, अर्थात् (पति द्वारा) दूसरी स्त्री से विवाह करते समय जो भेंट दी जाय [जिसका वर्णन आगे के उसे अपनी पूर्व पत्नी को देना चाहिये' इन शब्दों की व्याख्या में (याज्ञ०२।१४८) किया जायगा]; 'आद्य (अर्थात् इसके समान अन्य) शब्द से संकेत मिलता है उस धन का जो उत्तराधिकार, क्रय, विभाजन, परिग्रह, उपलब्धि से प्राप्त होता है-मनु आदि ने इन्हें स्त्रीधन कहा है। 'स्त्रीधन' शब्द यौगिक है न कि पारिभाषिक । जब तक योगसम्भव अर्थ मिले, पारिभाषिक अर्थ का सहारा लेना अनुचित है।" 'मिताक्षरा'ने स्त्रीधन की परिभाषा विस्तृत कर दी और उसमें उन पाँच सम्पत्ति-प्रकारों को सम्मिलित कर लिया जिन पर गौतम (१०।३६)के मत से व्यक्ति कई प्रकारों से स्वामित्व प्राप्त कर लेता है। स्पष्ट है, 'मिताक्षरा' के मत से किसी भी प्रकार का धन स्त्रीधन की संज्ञा पा सकता है,चाहे वह स्त्री द्वारा किसी पूरुषकी विधवा की हैसियत से उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त हो या माता के रूप में प्राप्त हो या पत्नी अथवा माता की हैसियत से विभाजन द्वारा प्राप्त हो (याज्ञ० २।११५ या १२३)। 'आद्य' की व्याख्या 'मदनपारिजात' (पृ० ६७१), सरस्वतीविलास' (पृ० ३७६), 'व्यवहारप्रकाश' (पृ० ५४२) एवं बालम्भट्टी को भी मान्य है। किन्तु 'दायभाग' ने 'आद्य' को सीमित अर्थ में रखा है। 'जीमूतवाहन' ने याज्ञ ० (२।१४३) में 'आधिवेदिनिकंचव' एढ़ा है और कहा है कि स्त्रीधन मनु (६१६४) के छः प्रकारों तक ही सीमित नहीं है, प्रत्युत उसमें अन्य स्मृतियों में वर्णित अन्य प्रकार भी सम्मिलित हैं। 'जीमूतवाहन' ने अन्त में कहा है-"वही स्त्रीधन है जिसे दान रूप में देने, विक्रय करने तथा बिना पति के नियन्त्रण के स्वतंत्र रूप से उपभोग करने में स्त्री का पूर्ण अधिकार है।''दायभाग' ने स्वतंत्र रूप से लेन-देन करने योग्य धन के प्रकारों को स्पष्ट रूप से नहीं दिया है, किन्तु स्त्रीधन की परिभाषा करने के उपरान्त ही इसने कात्यायन (शिल्प आदि द्वारा तथा अन्य लोगों की भेंट से प्राप्त धन के विषय में)एवं नारद (४१२८, पति द्वारा जो कुछ प्राप्त हो, उसमें अचल को छो मृत्यु के उपरान्त भी व्यय आदि कर सकती है) को उद्धृत किया है । इससे स्पष्ट है कि 'दायभाग' के म प्रदत्त अचल सम्पत्ति को छोड़ कर सम्बन्धियों द्वारा दी गयी सभी प्रकार की भेंटें तथा अन्य लोगों से प्राप्त अन्य भेंटें. जो विवाह के समय या विदाई के समय प्राप्त होती है, स्त्रीधन के अन्तर्गत मानी जाती हैं। किन्तु वह धन जो स्त्रीद्वारा उत्तराधिकार के रूप में या विभाजन से या अन्य लोगों से भेंट के रूप में (उपर्युक्त दो प्रकारों को छोड़कर) या शिल्प आदि कर्मों या परिश्रम से प्राप्त होता है, स्त्रीधन नहीं कहलाता । 'दायतत्त्व' ने दायभाग का अनसरण किया है। 'स्मृतिचन्द्रिका' ने स्त्रीधन की परिभाषा नहीं दी है, किन्तु इसने 'मिताक्षरा' द्वारा दी गयी आद' की व्याख्या स्वीकृत नहीं की है। स्पष्ट है, इसने दायभाग के मार्ग का अनुसरण किया है । 'पराशरमाधवीय' (मद्रास क्षेत्रीय ग्रन्थ ) ने, लगता है, 'मिताक्षरा' का अनुसरण किया है, क्योंकि उसमें आया है--"आद्य में 'आधिवेदनिक' एवं वह धन सम्मिलित है जो उत्तराधिकार, विक्रय आदि से प्राप्त होता है।" "विवादचिन्तामणि' (मिथिला के प्रामाणिक ग्रन्थ) में स्त्रीधन की सामान्य परिभाषा न देकर मनु, याज्ञ० विष्णु ०, कात्या० एवं देवल द्वारा प्रस्तुत स्त्रीधन प्रकारों का वर्णन किया गया है, अतः वह दायभाग के समान ही है। 'व्य० मयूख' ने स्त्रीधन के दो प्रकार दिये हैं"पारिभाषिक एवं अपारिभाषिक । प्रथम में ऋषियों द्वारा व्यक्त वह धन है जो स्त्रीधन का द्योतक होता है, दूसरे में वह धन है जो विभाजन या शिल्प आदि कर्मों से प्राप्त होता है। 'वीरमित्रोदय' (वाराणसी क्षेत्र के प्रामाणिक ग्रन्थ) ने मिताक्षरा का अनुसरण किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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