Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 2
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 363
________________ ६२२ धर्मशास्त्र का इतिहास उत्तराधिकार की वरीयता घोषित की है, यथा--उसने सगे भाई को विमाता के पुत्र की अपेक्षा तथा तीन पुरुष उत्तराधिकारियों को विधवा की अपेक्षा अधिक वरीयता दी है । इस विषय में प्रिवी कौंसिल ने निम्न आदेश दिया है"अब यह स्पष्ट है कि 'मिताक्षरा' के अनुसार,जहाँ रिक्थाधिकार रक्त-संबंध या रक्त-समूह से उत्पन्न हुआ माना जाता है, रक्त की सन्नि कटता या गोत्रज की सन्निकटता के निर्णय के लिए रिक्थाधिकार की वरीयता की खोज पिण्डदान देने की पात्रता में करनी चाहिये।" यह उक्ति विचिन-सी है। इससे प्रकट होता है कि रिक्थाधिकार के लिए पिण्डदान की योग्यता आवश्यक नहीं है, यह केवल गोनजों में वरिष्ठ उत्तराधिकारी पाने के लिए उपयोगी मात्र है । ३० ___ मिताक्षरा द्वारा उद्धृत 'विष्णुधर्मसूत्र' का वचन यों है-यदि वंश चलाने के लिए पुन या पौत्र न हों तो दौहित्र को धन मिलता है, क्योंकि पितरों की अन्त्येष्टि क्रिया के लिए पुत्री के पुत्र अपने पौत्रों के समान गिने जाते हैं। यह बात मनु (६।१३६) के समान ही है, जहाँ यह आया है कि दौहित्र को पिण्डदान करना चाहिये और धन लेना चाहिये । इससे प्रकट होता है कि मनु, विष्णु आदि ने रिक्थाधिकार के लिए पिण्डदान करने की योग्यता को मान्यता दी है, किन्तु यह भावना आगे व्याख्यात नहीं की जा सकी। रक्त-सम्बन्ध वाली भावना याश० (२।१२७) द्वारा उपस्थापित उत्तराधिकार-सं बंधी अनुव्रम में छिपी हुई-सी है । याज्ञ० (२।१२७) का कथन है कि क्षेत्र ज-पुत्र दोनों की अर्थात् जनक एव पत्नी (जिससे वह उत्पन्न किया जाता है) के पति की, सम्पत्ति ग्रहण करता है और दोनों को पिण्ड देता है । याज्ञवल्क्य यह नहीं कहते कि वह दोनों को पिण्ड देता है इसलिए उसे (दोनों की) सम्पत्ति मिलती है । अतः यह कथन भी यही स्वीकार करता है कि पिण्डदान करना मानो जो धन लेता है उसका एक कर्तव्य वा (किन्तु यह बात उसके लिए नहीं है जो संतान रूप में पुत्र है)। इससे प्रकट होता है कि मिताक्षरा के सिद्धान्त पर प्राचीनता की मुहर लगी हुई है, और बंगाल को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में अधिकांश निबन्धों ने यही बात मानी है । दायभाग'की यह उपपत्ति या उक्ति (जो बहुत पहले उद्योत नामक लेखक द्वारा सम्भवतः घोषित की गयी थी) ३१ कि मृत व्यक्ति के धन का ग्रहण उस पारलौकिक कल्याण पर निर्भर है जो उसे प्राप्त होता है,संक्षेप में यों व्यक्त की जा सकती है-"यह उक्ति मुख्यतया 'बौधायनधर्मसूत्र एवं'मनुस्मृति' पर आधारित है। विभाजन के प्रकरण में (जो ६।१०३ से आरंभ होता है) मनु (६।१३७) ने घोषित किया है कि पुत्र , पौत्र एवं प्रपौत्र द्वारा अत्यन्त श्रेष्ठ पारलौकिक कल्याण किया जाता है ; मनु (६।१०६) का कथन है कि पुत्र को पिता से सम्पूर्ण धन प्राप्त होता है क्योंकि वह पिता को ऋणमुक्त करता है। दौहित्र भी परलोक में नाना की रक्षा करता है (६।१३६) अतः वह नाना के धन का अधिकारी है। किन्तु ६१८७ के पूर्व मनु ने (यह घोषित करते हुये कि सपिण्डों में अति सन्निकटता वाला उत्तराधिकारी होता है) तीन पूर्वजों के पिण्डदान की चर्चा की है; मनु (६।२०१) ने अन्धे आदि को रिक्याधिकार से वंचित कर दिया है क्योंकि वे श्राद्ध आदि धार्मिक कर्म करने के अयोग्य हैं। अत: यह स्पष्ट होता है कि मनु आदि ने रिफ्याधिकार की प्राप्ति को पारलौकिक कल्याण करने पर निर्भर रखा है। दायभाग ने इस बात को पद-पद पर कहा है और इस पर बल दिया है। उसका कथन है-"दो उद्देश्यों से धन की प्राप्ति की जाती है, सांसारिक सुखोपभोग के लिए एवं दान आदि कर्मों द्वारा ३०. देखिये बुद्धसिंह-बनाम-ललसिंह (४२, आई० ए० २०८, पृ. २०७) । नहि पिण्डवानाधिकार एवं वायग्रहणे प्रयोजकः, ज्येष्ठे सति कनीयसामनधिकारेपि दायग्रहणात् ।......गोत्रजानां दायहराणामनेकेषां समवाये पिण्डदानाद्युपकारित्वं धनस्वामिनो यत्तदनुपकारिव्यावर्तकपरं न तु तदेव प्रयोजकम् । व्य० प्र० (पृ० ४६१) । ' ३१. उपकारकत्वेनैव धन-सम्बन्धो न्यायप्राप्तो मन्वादीनाममिमत इति मन्यते । इति निरवद्य विद्योद्योतन खोतितोऽयमर्थो विद्वद्भिरादरणीयः । दायभाग (११।६।३१-३२, पृ० २१६) । Jain Education International Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

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