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न्याय-कार्य-विधि
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होते थे; किसी व्यक्ति से सूचना प्राप्त करना, उस सूचना को व्यवहारपदों के अनुकूल किसी एक में रखना, दोनों दलों की बहसों एवं साभियों पर विचार करना तथा निर्णय करना (नारद १।३६) । जब वादी समय पर उपस्थित होता है और प्रणाम करता है तो राजा या न्यायाधीश पूछता है-"क्या कार्य है ? तुम्हें किस प्रकार की पीड़ा दी गयी है ? बिल्कुल न डरो, बोलो किसने, कब और क्यों पीड़ा दी ?" इस प्रकार पूछे जाने पर जो कुछ प्रत्युत्तर मिलता है उस पर न्यायाधीश सभ्यों एवं ब्राह्मणों के साथ विचार करता है । यदि यह न्याय के भीतर रखे जाने योग्य समझा जाता है तो न्यायाधीश वादी को मुहरबन्द आदेश देता है या पुरुष द्वारा प्रतिवादी को बुला भेजता है। जो कुछ वादी द्वारा कहा जाता है, भले ही वह स्नेह, क्रोध या लोभ के आवेश में आकर कहा गया हो, लिख लिया जाता है (नारद २।१८)। निम्नलिखित लोगों को न्यायालय में नहीं बुलाया जाता था--'रोगी, नाबालिग, अत्यधिक वृद्ध (७० वर्षीय व्यक्ति), विपत्तिग्रस्त, धार्मिक कृत्य में संलग्न व्यक्ति, जिसके आने से सम्पत्ति की हानि हो, दुर्भाग्य (मृत्यु आदि) ग्रस्त, राजकर्म में लिप्त, नशे में चूर, पागल, नौकर, स्त्री (नवयुवती, जिसका परिवार विपत्ति-ग्रस्त हो, जो उच्च कुल की हो या जिसने अभी हाल में बच्चा जना हो या जो वादी की जाति से ऊंची जाति की हो) । नारद (१।५३) के मत से गाय चराने की ऋतु में गोरखियों (गोरक्षकों या गाय चराने वालों), बोने के समय कृषकों, शिल्पकरों (जब कि वे कार्य-संलग्न हों) एवं युद्धसंकुल योद्धाओं को स्वयं उपस्थित होने के लिए नहीं बुलाना चाहिए। इन लोगों के स्थान पर उनके प्रतिनिधियों से काम चल जाता था। हत्या, चोरी, बलात्कार, निषिद्ध भोजन करने, सिक्का बनाने आदि के अपराधों में अपराधियों को सुरक्षापूर्वक लाया जाता था। किन्तु वे नारियां जो अपने परिवार का भरण-पोषण स्वयं करती थीं, वे जो भ्रष्टचरित थीं अथवा अकेली थीं या जो जातिच्युत थीं उन्हें कचहरी में स्वयं आना पड़ता था। बुलाये जाने पर आने योग्य व्यक्तियों के न आने पर झगड़े वालो सम्पत्ति के अनुसार उसे दण्ड भरना पड़ता था (देखिए कात्यायन १००-१०१,स्मतिचन्द्रिका २, पृ० ३४ एवं अपरार्क पृ० ६०७) । जुर्माना लेने के पश्चात् एक मास तक प्रतीक्षा करने के उपरान्त प्रतिवादी के दोष के कारण वादी के पक्ष में निर्णय दे दिया जाता था। किन्तु यदि निश्चित या नियत तिथि के उपरान्त प्रतिवादी उपस्थित होता था तो मुकदमा पुनः खुल सकता था। इतना ही नहीं, शत्र के आक्रमण, दुभिक्ष, महामारी या किसी रोग के समय राजा पुन: बुलाने की सूचना देता था, न कि अनुपस्थित रहने पर दण्डित करता था। गम्भीर अपराधों में अपराधी को स्वयं उपस्थित होना पड़ता था।
वकील--क्या प्राचीन भारत में वकील होते थे? स्मृतियों से तो यह बात नहीं प्रकट हो पाती, किन्तु यह स्पष्ट है कि स्मृति-विधानों में पारंगत लोग कचहरी में नियुक्त रहते थे और वे किसी दल के मुकदमे की पैरवी अवश्य करते रहे होंगे। नारद, बृहस्पति एवं कात्यायन द्वारा उपस्थापित विधान इतना नियमबद्ध था कि बिना दक्ष अथवा स्मृति-पारंगत लोगों की सहायता के मुकदमे का कार्य नहीं चल सकता था। शुक्र.० (४।५।११४-११७) में निम्नलिखित बात पायी जाती है-जो व्यक्ति किसी पक्ष का प्रतिनिधित्व करता था उसे झगड़े की सम्पत्ति का ११ १ , भाग मिलता था.....। प्रतिनिधि की नियक्ति किसी पक्ष द्वारा ही होती थी, न कि यह राजा की इच्छा पर निर्भर रहती थी। यदि प्रतिनिधि के लोभ के कारण मकदमे में असफलता मिलती थी तो उसे अर्थ-दण्ड मिलता था। मिलिन्द पञ्हो (जिल्द ३६, १०२३८) से भी प्रकट होता है कि प्राचीन काल में वकील (धम्मपणिक) होते थे।
वादी चाहे तो प्रतिवादी की गतिविधि पर व्यवधान उपस्थित कर सकता था, क्योंकि ऐसा न करने से प्रतिवादी भाग सकता है, कोई बहाना ढूढ़कर झगड़े वाली सम्पत्ति का दुरुपयोग कर सकता है । इस प्रकार के प्रतिरोध की आसेध संज्ञा थी। मिताक्षरा (याज्ञ० २१५) में आसेध के चार प्रकार बताये गये हैं; (१) स्थानासेध (घर या मन्दिर से अन्यत्र न जाने की आज्ञा),(२) समयासेध (किसी नियत तिथि पर उपस्थित होने की आज्ञा),(३) प्रवासासेध (किसी प्रकार की माना करने पर निषेध) तथा (४) कार्यासेध (यथा सम्पत्ति के बंचने या खेत जोतने का निषेध)। ये आसेध विवाद
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