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धर्मशास्त्र का इतिहास चलते समय तक रहते थे । इम विषय में देखिए नारद (१।४७-५४), वृहस्पति (व्यवहारप्रकाश, पृ० ४२, स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ३०-३१ में उद्धृत), कात्यायन (१०३-११०) । किन्तु उन लोगों पर, जिन्हें नियमानुकूल उपस्थित होना कोई आवश्यक नहीं था, आसेध के नियम लागू नहीं होते थे।
जब प्रतिवादी बला लिया जाता था तो वादी के साथ उसे न्यायाधीश के समक्ष खड़ा कर दिया जाता था। तब दोनों की ओर से जमानतें (प्रतिभति) होती थीं। प्रतिवादी के जमानतदार को प्रतिवादी पर लगा अर्थदण्ड देना पड़ता था(यदि प्रतिवादो अर्थ-दण्ड न दे और कहीं भाग जाय तभी ऐसा होता था)। यदि वादी का दावा झूठा सिद्ध हो जाय तो उसके जमानतदार को झगड़े की सम्पत्ति का दूना अर्थ-दण्ड देना पड़ता था (याज्ञ०२।१०-११)।यदि जमानतदार न मिले तो वादी या प्रतिवादी को न्यायालय के साध्यपाल की हिरासत में रहना पड़ता था और उसे माध्यपाल को उसकी प्रति दिन की वेतन-रकम देनी पड़ती थी।३२निम्नलिखित व्यक्ति जमानतदार नहीं हो सकते थे-स्वामी (यदि वादी या प्रतिवादी उसका नौकर हो),शत्र, स्वामी द्वारा अधिकृत व्यक्ति, बन्दी, दडित व्यक्ति, बड़े-बड़े पापों एवं अपराधों के दोषी, कुटम्ब-सम्पत्ति का साझीदार, मित्र, नैष्ठिक ब्रह्मचारी,जो राजा का कार्य करने के लिए नियुक्त किया गया हो, संन्यासी जो उतना अर्थ-दण्ड न दे सके, जीवित पिता वाला व्यक्ति, वह जो जमानत वाल व्यक्ति को उभाड़ तथा जिसके विरोध में बहुत-सी बातें ज्ञात हों। यदि कोई व्यक्ति जमानत न मिलने पर हिरासत में रखा जाता तो उसे दिनचर्यासम्बन्धी आवश्यक कार्य (यथा-स्नान, सन्ध्या, वन्दन आदि) करने दिये जाते थे। यदि वह हिरासत से भाग जाय तो उसे आठ पण दण्ड के रूप में देने पड़ते थे (कात्यायन ११६, पराशरमाधवीय द्वारा उद्धृत ३, ५८)।
जब प्रतिवादी न्यायालय में उपस्थित होता है तो वादी द्वारा दी गयी सूचना उसकी उपस्थिति में वर्ष, मास, पक्ष, दिन, दलों के नाम, जाति आदि के साथ लिखी जाती है (याज्ञ० २१६)। जब वादी प्रथम बार कचहरी में आता है तो केवल विवाद का विषय मान लिखा जाता है, जब प्रत्यर्थी अथवा प्रतिवादी आता है तो सारी बातें ब्यौरेवार लिखित होती हैं । इस कार्य को स्मृतियों में पक्ष, भाषा, प्रतिज्ञा आदि की संज्ञा से बोधित किया जाता है। ३ ३ कहीं-कहीं पक्ष के लिए 'पूर्व पक्ष' लिखा जाता है (कात्यायन १३१, नारद २।१)। 'वादी' एवं 'प्रतिवादी' शब्द सामान्यतः क्रम से 'प्लेंटिफ'एवं 'डेफेन्डेण्ट' के लिए प्रयुक्त होते थे, किन्तु कभी-कभी 'वादी' शब्द मुकदमेबाजों ('प्लेंटिफ या डे फेण्डेण्ट' दोनों) के लिए भी प्रयुक्त होता था।'अर्थी' (जो न्यायालय की सहायता की माँग करता है) एवं अभियोक्ता' 'वादी' के पर्याय शब्द हैं। इसी प्रकार 'प्रत्यर्थी' एवं 'अभियुक्त' 'प्रतिवादी' के पर्याय शब्द हैं। उपर्युक्त पक्ष', 'भाषा' एवं 'प्रतिज्ञा' शब्द 'प्लैण्ट' के द्योतक हैं । कात्यायन (१३०-१३१) के अनुसार न्यायाधीश पक्ष (भाषा, प्रतिज्ञा या प्लैण्ट) को बड़ी सावधानी से लिखित कराता है। इस विषय में विशेष वर्णन के लिए देखिए, कात्यायन (१३०-१३१), व्यवहारतत्त्व (पृ० २०५), मृच्छकटिक (अंक ६), नारद (२।७), कौटिल्य (३।१); और देखिए, कात्यायन (१२७१२८), मिताक्षरा (याज्ञ ० २।६), अपरार्क (पृ० ६०८),बृहस्पति (स्मृतिचन्द्रिका पृ० ३६ एवं व्यवहारमयूख पृ० २६४) । ये नियम इण्डियन प्रोसीड्योर कोड, आर्डर ७ नियम-१-५ में भी पाये जाते हैं।
३२. अथ चेत्प्रतिभूर्नास्ति कार्ययोग्यस्तु वादिनः । स रक्षितो दिनस्यान्ते दद्यात् भृत्याय वेतनम् ।। कात्यायन (मिताक्षरा द्वारा उद्धत, याज्ञ० २६१०, एवं व्यवहारप्रकाश द्वारा उद्धत, पृ० ४४ ) ।
३३. आवेदनसमये कार्यमानं लिखितं प्रथिनोऽग्रतः समामासादिविशिष्ट लिख्यते इति विशेषः। भाषा प्रतिज्ञा पक्ष इति नार्थान्तरम् । मिताक्षरा (याज० २१६) ।
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