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धर्मशास्त्र का इतिहास
है (नारद, विवादरत्नाकर पृ० १६१, कात्यायन ६६०, अपराकं पु० ८०० एवं विवादरत्नाकर पृ० ६६५)। विष्णु० (५।१५३-१५४ एवं १५७-१५८) के मत से उपयुक्त परिस्थितियों में भतक को १०० पण तथा स्वामी को वेतन तथा १०० पण दण्ड रूप में देने पड़ते हैं। कात्यायन (६६०) के मत से यदि स्वामी नौकर को यात्रा में बीमार पड़ जाने या थक जाने के कारण छोड़कर आगे बढ़ जाता है तो उसे ग्राम में तीनदिन तक प्रतीक्षान करने के कारण अर्थ-दण्ड देना पड़ता है। नारद (६७) के मत से यदि व्यापारी किसी गाड़ी या भारवाही पशु को लेने के लिए समझौता करके उन्हें नियुक्त नहीं करता तो उसे निश्चित किराये का चौथाई देना पड़ता है और यदि वह उन्हें नियुक्त कर यात्रा के कुछ भाग में ही छोड़ देता है, तो उसे पूरा किराया देना पड़ता है। यदि व्यापार का सामान राजकर्मचारी द्वारा पकड़ लिया जाय या चोरी चला जाय तो उसे ढोने वाले नौकर को पूर्व निश्चित पारिश्रमिक का (यात्रा के अनुपात से) कुछ भाग मिल जाता है (कात्यायन ६६१) । बृहस्पति के अनुसार यदि स्वामी काम लेकर भृतक को वेतन न दे तो उसे गजा द्वारा दण्डित होना पड़ता है और निश्चित वेतन देना पड़ता है। यदि कोई व्यक्ति हाथी, घोड़ा, बैल, गदहा एवं ऊँट किराये पर लेकर और काम कराकर उन्हें नहीं लौटाता है तो उसे किराये के साथ लौटाना पड़ता है। ये नियम किराये के घर तथा जलाशय या हाट के विषय में भी लागू हैं (कात्यायन ६६२) । नारद (६।२०-२१) का कथन है कि यदि कोई स्तोम (किराया)तय कर किसी की भूमि पर गृह-निर्माण करता है तो वह रुपये देकर तथा ईंट, लकड़ियाँ आदि लेकर उसे छोड़ सकता है, किन्तु यदि बिना किराया दिये और स्वामी की इच्छा के प्रतिकूल कोई इस प्रकार गृह-निर्माण करता है तो उसे उस गृह को छोड़ते समय सारा सामान भी छोड़ना पड़ता है। बृहस्पति का कथन है कि यदि किसी का नौकर किसी दूसरे के साथ अनुचित व्यवहार (चोरी) करता है तो स्वामी को हरजाना देना पड़ता है। मत्स्यपुराण (२२७१६) का कथन है कि यदि गुरु किसी को कोई शिल्प आदि सिखाने के लिए धन लेता है किन्तु सिखाता नहीं तो उसे पूरा धन दण्ड रूप में देना पड़ता है।
__ उपर्युक्त बातों से स्पष्ट होता है कि स्मृतियों में नौकरी से सम्बन्धित करार तथा किराये पर वस्तुओं के लेन-देन आदि के नियम एक-साथ ही दिये हुए हैं।
कौटिल्य (३।१४) के मत से भृतकों के संघों के सदस्यों को वेतन संघ ही देते थे। जैसा पूर्व निश्चित रहता था उसी के अनुसार सारी कमाई बराबर-बराबर बाँट दी जाती थी । याज्ञ० (२१२६५) का भी कथन है कि साझेदारी के नियम कर्षकों एवं शिल्पिकों के लिए भी यथावत् प्रयुक्त होते हैं।
नारद (६।१८), याज्ञ० (२।२६१) एवं मत्स्यपुराण (२२७।१४४-१४६) में वेश्याओं एवं वेश्यागामियों के धन-सम्बन्धी उत्तरदायित्वों का वर्णन है। मत्स्यपुराण (२२७।१४४-१४६) में आया है कि ब्राह्मण वेश्यागामियों
६. हस्त्यश्वगाखरोष्ट्रादीन् गृहीत्वा भाटकेन यः । नार्पयेत्कृतकृत्यार्थः स तु दाप्यः सभाटकम् ॥ गृहवार्यापणादीनि गृहीत्वा भाटकेन यः। स्वामिने नायेद्यावत्तावदाप्यः सभाटकम् ॥ कात्यायन (६६२-६६३, स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २०५; विवादरत्नाकर प० १६८-१६६; पराशरमाधवीय ३, पृ० ३३०-३३१) । 'भाटक' शब्द 'भृति का ही प्राकृत रूपान्तर है जो स्वयं संस्कृत हो गया है । संस्कृत में वेतन और वृत्ति शब्द पारिश्रमिक के लिए प्रयुक्त होते हैं तथा भाटक या स्तोम गृह या भूमि आदि के किराये के रूप में।
७. प्रभुणा विनियुक्तः सन् भृतको विदधाति यत् । तदर्थमशुभं कर्म स्वामी तत्रापराध्नुयात् ॥ बृहस्पति (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २०४, विवादरत्नाकर पृ० १६२) । मूल्यमादाय यो विद्यां शिल्पं वा न प्रयच्छति । दण्ड्यः स मूलं सकलं धर्मज्ञेन महीभृता ॥ मत्स्यपुराण (२२७।६, विवादरत्नाकर पृ० १६३) ।
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