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धर्मशास्त्र का इतिहास "राजा दिन भर कचहरी में रहता है और उसके काम में कोई बाधा नहीं आने देता।" कौटिल्य (१।१६) ने भी इस विषय में लिखा है-"जब राजा कचहरी में रहे तो कार्यार्थियों (निपटारा कराने के लिए आये हुए लोगों अर्थात् मुवक्किलों) को द्वार पर बहुत देर तक नहीं खड़ा रहने दे, क्योंकि राजा तक पहुंच न हो सकने के कारण, राजा के आस-पास के लोग उचित एवं अनुचित कार्यों में गड़बड़ी उत्पन्न कर देंगे और प्रजा में असतोन्ष होगा, फलतः राजा शत्रु के हाथ में चला जायगा।"३ राजा की कचहरी या न्यायालय को धर्मासन (शंखलिखित) या धर्मस्थान (नारद १।३४, मनु ८।२३ एवं शुक्र ४।५।४६) या धर्माधिकरण (कात्यायन एवं शुक्र ४।५।४४) कहा जाता था। कालिदास (शाकुन्तल ५) एवं भवभूति (उत्तररामचरित १) ने धर्मासन शब्द का प्रयोग किया है।
स्मृतिकारों का कहना है कि अति प्राचीन काल में स्वर्णयुग था, लोग नीतियुक्त आचरण करते थे, आगे चलकर उनके जीवन में बेईमानी घुस आयी, इसी से विद्वानों एवं राजा ने नियमों का निर्माण किया और कानूनों (व्यवहारों) का प्रचलन हुआ (मिलाइए गौतम ८।१) । मनु (१।८१-८२ = शान्तिपर्व २३१।२३-२४) ने लिखा है कि कृतयुग (सत्ययुग) में धर्म अपनी पूर्णता के साथ विराजमान था, किन्तु आगे चलकर चोरी, झूठ एवं धोखाधडी के कारण क्रमशः तीनों युगों (नेता, द्वापर एवं कलियुग) में धर्म की अवनति होती चली गयी। इस विषय में और देखिए शान्ति० (५६। १३) । किन्तु इस प्रकार के कथन में कहीं-कहीं विरोध भी पाया गया है। मनुस्मृति एवं महाभारत में ही मात्स्यन्याय की भी चर्चा हुई है। इन बातों का तात्पर्य यही है कि स्मृतिकार चाहते थे कि जनता राजा के एकाधिकारों के समक्ष झुके। ऋग्वेद (१०।१०।१०) के काल से लेकर आगे तक के सभी लेखकों ने यही विश्वास किया है कि धार्मिकता एवं नैतिकता में लगातार अवनति होती चली गयी है। कुछ ग्रन्थों में मात्स्यन्याय का जो वर्णन है कि वह केवल राजतन्त्रात्मक शासन की उच्चता घोषित करने के लिए है । नारद (१।१) का कहना है कि जब लोगधार्मिक एवं सत्यवादी थे उस समय न तो व्यवहार (कानून) की आवश्यकता थी और न द्वेष या मत्सर था। जब मनुष्यों में धर्म का पास होने लगा तब धर्म एवं न्याय का प्रवर्तन हुआ और राजा झगड़ों को दूर करने वाला एवं दण्डधर (अपराधी को दण्ड देने वाला) घोषित हआ। यही बात वहस्पति ने भी कही है। प्राचीन काल के ऋत की धारणा अब धर्म की भावना ने ले ली। ऋत शब्द
राजा न करोति सुखे स्थितः । व्यक्तं स नरके धीरे पच्यते नात्र संशयः ॥ शुक्र ४।५।८; देखिए उत्तरकाण्ड ५३।६, जहां ऐसे ही शब्द हैं; शंखलिखितौ--राजा स्वाधीनवृत्तिरात्मप्रत्ययकोशः स्वयं कृत्यानुदशी विप्रस्वनिवृत्तश्चिरं भद्राणि पश्यति । राजनीतिप्रकाश, पृ० १३४।
३. उपस्थानगतः कार्यार्थिनामद्वारासङ्ग कारयेत् । दुर्दशो हि राजा कार्याकार्यविपर्यासमासन्नः कार्यते । तन प्रकृतिकोपमरिवशं वा गच्छेत् । अर्थशास्त्र (१।१६)।
४. धर्मस्थानं प्राच्यां दिशि तच्चाग्न्युदकः समवेतं स्यात् । शंख (स्मृतिचन्द्रिका, अध्याय २, पृ० १६ में उद्धृत); धर्मशास्त्र विचारेण मूलसार विवेचनम् । यत्राधिक्रियते स्थाने धर्माधिकरण हि तत् ।। कात्यायन (स्मृतिचन्द्रिका, अध्याय २, पृ० १६ में उद्धृत), पराशरमाधवीय (३।१, पृ० २२); व्यवहारप्रकाश (पृ० ८) में आया है--"धर्मशास्त्रानुसारेण अर्थशास्त्रविवेचनम् ।" यही बात शुक्रनीतिसार (४।५।४४) में भी यथावत् है । और देखिए सरस्वतीविलास (पृ० ६३)--"यत्र स्वाने आवेदितव्यतत्त्वनिष्कर्षः धर्मशास्त्रविचारेण निर्णतृभिः क्रियते इति धर्मस्थानम् । अस्यैव धर्माधिकरणमिति नामान्तरम् ।"
५. धर्मेकतानाः पुरुषा यदासन सत्यवादिनः । तदा न व्यवहारोऽभूत्र द्वषो नापि मत्सरः ।। नष्टे धर्म मनुष्याणां व्यवहारः प्रवर्तते । द्रष्टा च व्यवहाराणां राजा दण्डधरः स्मृतः॥ नारद १।१।१; धर्मप्रधानाः पुरुषाः पूर्वमासन्न
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