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॥०॥ सू० ॥ १६ ॥ विप्र विचारो देवनां, लक्षण कहीए संखेव ॥ स०॥ सिद्ध स्वरूपी जे होये, तेहने ए नहीं देष ॥ स० ॥ सू० ॥ १७ ॥ दूध मांहि घृत रस रहे, विश्वा नल काष्ठ मांहि ॥ स० ॥ तिल मांहे तेल जिम रहे, जीव कलेवर थांहीं ॥ स० ॥ सू० ॥ १८ ॥ ज्ञान दर्शन चारित्र तथा, जे कह्या पालणहार ॥ स० ॥ लख चोराशी फेमीने, नावे नर अवतार ॥ स० ॥ सू० ॥ १७ ॥ ध्यान शुकल मन ध्यावतां, मुगति रमणी होये हाथ ॥ स० ॥ पहेले खंडे ढाल चौदमी, नेम कहे सांजलो साथ ॥ स० ॥ सू० ॥ २० ॥
उदा.,
रूप रस गंध वरण नहीं, उदादिकादि नाहिं ॥ जेह निरंजन नित्य बे, ज्ञानमय या त्यांहिं ॥ १ ॥ ते विष्णु सदाशिव जणी, ते किम कहीए देव ॥ अवर अज्ञानी जे नरा, तेहनी करे बे सेव ॥ २ ॥ नाम मात्र जे उपन्या, गुण अवगुण जे होय ॥ बुद्धि विना केम उपजे, सुणो वात सौ कोय ॥ ॥ वलतो उत्तर केम होये, विप्र तणां मन जंग ॥ हाथ जोमी प्रणिपति करी, कड़े सहु अनुषंग ॥ ४ ॥ वाद करंता दारीया, जीत्या तमे बेहु जाय ॥ कथा कहो कोइक नवी, सांजलवा होंश थाय ॥ ५ ॥ मनोवेग बोल्यो तिढां, संखेपे करूं एक ॥ गणेश विचार विवरी करी,