Book Title: Dharmpariksha Ras
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 320
________________ मपरी १६०॥ एक साध ॥ श्राव्यो देखी चिंतवे, चिंतामणि में लाध ॥५॥ मोदक तस प्रतिला- खक नीने, वांदे बे कर जोम ॥ देवे करी घर आंगणे, वृष्टि कनकनी क्रोड ॥६॥ समुजदत्त नामे वणिक, दान तणां फल देख ॥निंदे निज निरधनपणुं, शेव प्रशंस विशेख ॥७॥ ढाल नवमी. सुण मेरी सजनी रजनी न जावेरे-ए देशी. हुँ हवे परदेशे जश् धन खाटुंरे, दलिखी तणुं नाम पूरे दाटुंरे ॥ चार मित्रशुं समुदत्त चाख्योरे, सिंहलदीप जश् नयणे निहाल्योरे ॥१॥ पलास गाम अनुक्रमे पहोतारे, मांहो मांही कदे गहगहतारे ॥ समुदत्त कहे रहे| अहींयारे, मन माने ते जाउँ तिहारे ॥२॥ सहुको वली शहां एकग था|रे, पनी आपणी दिशे जाशुरे ॥ बीजो साथ नगरमा पेगेरे, सरोवर पाळे समुदत्त बेगेरे ॥३॥ अशोक नामे सोदागर श्राव्योरे, समुपदत्तने तेणे बोलाव्योरे ॥ जो तुं माहरा घोमा पालेरे, ताहरु माग्युं करुं हवालेरे ॥ ४॥ दिन मांहे दोय वेला नूतिरे, खट मास अंतरे कंबल जूतिरे ॥त्रण वरसनी अवधि कीजेरे, अश्व युगल मन गमता लीजेरे H॥५॥ एम परवीने रह्यो समुदत्तरे, अशोक पुत्रीशुं लाग्युं चित्तरे ॥ मीनं फल || ॥१६०

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