Book Title: Dharmpariksha Ras
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown
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खंग
॥१५॥
धर्मपरी तेदने देखी तातनेरे लोल, मलवा करे उमाहरे ॥ सु० व्य० ॥ ॥ गामां उंट ने
पोठीयारे लोल, जलां जरी क्रयाणरे ॥ सु॥ बेहेन तणी अनुमति लेरे लोल, सागर कीध प्रयाणरे ॥ सु व्य० ॥ ए ॥ नगर अव्युं जव ढ़करुंरे लोल, निसरीया साथ मूकरे ॥ सु॥ उतावला घर जाइएरे लोल, राते गया वाट चूकरे ॥ सु० व्य० ॥१०॥ अटवी मांही जर पड्योरे लोल, नूखे अति पीमायरे ॥ सु॥ फल पाकां ने फूटरांरे लोल, सहुने श्राव्यां दायरे ॥ सु० व्य० ॥ १९॥ सागर पूजे तेहनेरे लोल, कहो
एहनुं तुमे नामरे ॥सु नाम अमे जाणुं नहींरे लोल, एशुं नहीं मुज कामरे ॥ सु० भव्य० ॥ १२ ॥ जेणे फल खाधां ते ढग्यारे लोल, धरणी तले ध्रसकायरे ॥ सु॥ स्त्रीरूप धरी वनदेवतारे लोल,नियम परीदे थायरे ॥सुव्य० ॥१३॥ सरस सुगंध फल
आगलेरे लोल, मूकी नाखे नारीरे ॥ सु०॥ ए फल सुंदर जे जखेरे लोल, रोग |जरा दे निवारीरे ॥ सुव्य ॥ १४ ॥ जरा जाजरी हुँ हतीरे लोल, तरुणी थ फल खायरे ॥ सु०॥ सागर कहे नाम एहनुंरे लोल, मुजने सुणावो मायरे ॥
सु व्य० ॥ १५ ॥ नाम नथी हुँ जाणतीरे लोल, तो मुजने डे निमरे ॥ सु०॥ व्रतनो नंग करूं नहींरे लोल, ज्या जीवं त्यां सीमरे ॥ सु० व्य० ॥ १६ ॥ दृढपणुं देखी
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