Book Title: Dharmpariksha Ras
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 323
________________ ढाल दशमी. उदया ते पुररो मांगवोरे, गढ अरबुदरी जान महाराजा, श्रमा मोरी, केसरीयो वर रुमोजी लागे - ए देशी. समुद्रदत्त दवे चालीयोरे, साथे कमल श्री लेय ॥ जन जोजो ॥ अशोक नौवाहक शिखव्यारे, उतरतां कड़े तेय ॥ जन जोजो सहु कोय ॥ वात पूरव जे होय ॥ ए कणी ॥ १ ॥ जिनधर्म सखाइ जीवनेरे, इण जव परजव जोय ॥ जन० ॥ धर्म विना धंधे पड्यारे, सुख नवि पामे कोय ॥ ज० वा० ॥ २ ॥ अश्व युगल जो तुं दीएरे, नदी उतारुं तुज ॥ ज० ॥ समुद्रदत्त कहे तुमे चोरटारे, बोलो एवं अबुज ॥ ज० वा० ॥ ३ ॥ जो तुं बेसीश नावमारे, तो रहेशे हय दोय ॥ ज० ॥ कमलश्री कहे पीयुजीरें, सवि चिंता नाखो खोय ॥ ज० वा० ॥ ४ ॥ आकाशगामी उपरेरे, चढी बेसो मुज संग ॥ ज० ॥ जलगामी हाथे धरीरे, जलनिधि तरो निःशंक ॥ ज० वा० ॥ ५ ॥ तेम करीने उतरे, श्राव्यां चंपापुरी मांद ॥ ज० ॥ एक अश्व नृपने दीयोरे, भूप पुत्री दे उबाह ॥ ज० वा० ॥ ६ ॥ अर्ध राज वली उपरेरे, बे नारीशुं सुख ॥ ज० ॥ समुद्रदत्त नित जोगवेरे, दूर गयां सवि दुःख ॥ ज० वा० ॥ ७ ॥

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