Book Title: Dharmpariksha Ras
Author(s): Unknown
Publisher: Unknown

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Page 298
________________ धर्मपरी | १४८ ॥ ढाल पहेली. मुज लाज वधारो रे-ए देशी. ब्रह्म कवातरे, सुप शेव सुजातरे, दिन रयणी न जात चिंता वे मुजनेरे ॥ ते टालो जाइरे, जेम सद्गति थाइरे, तुं परम सखाइ कहुं हुं तुजनेरे ॥ १ ॥ चिंता | हेतु दाखोरे, कांइ मनमां न राखो, जे मुजने नाखो ते करशुं सहीरे ॥ सोमदत्त वली बोलेरे, तुं पुरुष अमोलेरे, तारे कोण तोले खावे इस महीरे ॥ २ ॥ सोमा मुज कन्यारे, गुण लक्षणे धन्यारे, नहीं एवी अन्या सोपुं तुज जणीरे ॥ ब्राह्मण नहीं खीखोरे, जिन धर्मे जीणोरे, जोइ प्रवीणो करजो एहनो धणीरे ॥ ३ ॥ शेठे कयुं वारुरे, परमेसर सारुरे, एम करशुं विचारी आणी निज मंदिरेरे ॥ द्विज सरगे पहोतरे, जिहां सुख बढ़ोतरे, शेठ गुणयुत पाले पुत्रीनी परेरे ॥ ४ ॥ संगति साध्वीनीरे, साते धाते जीनीरे, जिन धरमे लीनी करती जिन पूजनारे || दीवी रुद्रदत्तेरे, लागी तस चित्तेरे, निज मित्रने पूबे ए केहनी धूयारे ॥ ५ ॥ मित्र कहे सुख जाइरे, | सोमदत्तनी जाइरे, धनपाल घरे या वाधे सुंदरीरे ॥ रुद्रदत्त कहे परणीरे, करीश हुं घरणीरे, ए अनोपम तरुणी सोवन मुडमीरे ॥ ६ ॥ हुती वरुजागीरे, दीक्षिता खं २४८.

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