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परी०
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मोद धरे विश्वास तो ॥ ५ ॥ लांबु लिंग देखी करी ए, जिक्षा घाले सार तो ॥ कंदमूल वनफल घणां ए, हरने थापे नार तो ॥ ६ ॥ जरतार जगत बोकी करी ए, हींडे ईश्वर साथ तो ॥ सुंदरी कहे शंभु सांजलो ए, लीजे आपण बाथ तो ॥ ७ ॥ एक कड़े शंकर सुणो ए, उधरजो महाराज तो ॥ अंगे आलिंगन रुयको ए, कृपा करी यो खाज तो ॥ ८ ॥ वनमां शंकर जइ रह्यो ए, ध्यान धरे अपार तो ॥ तापस कामनी तिहां गइ ए, | ईश्वरशुं जोग विकार तो || || तापस तव दुःखीया थया ए, नारीए मूक्यो संग तो ॥ विचार करे सघला मली ए, केम रहेशे घर रंग तो ॥ १०॥ देवपूजा रही आपणी ए, अंगे गयां | सनान तो ॥ रांधण सिंघण सहु तज्यां ए, भूखे गया जीव ज्ञान तो ॥ ११ ॥ श्रपने मूकी धरे ए, हरने सेवे नार तो ॥ शंकरने केम श्रापीए ए, एबे त्रिभुवन तार तो ॥ १२ ॥ नारी मोही आपणी ए, जेह देखीने अंग तो ॥ दंग करो तुमे तेहनो ए, श्रापीने करो जंग तो ॥ १३ ॥ तापस मलीने श्रापीयो ए, लिंग पड्युं ततकाल तो ॥ भुवन मांदे ते विस्तर्यु ए, कर्म करे विकराल तो ॥ १४ ॥ लिंगे लक्षण प्रगट की यो ए, त्रिभुवन पांड्यो त्रास तो ॥ नर नारी संजावीया ए, लोक पामे बहु दास्य तो ॥ १५ ॥ रुद्र कोप्यो
खंग २
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