Book Title: Devdravya Author(s): Mohanlal Sakarchandji Publisher: Mohanlal Sakarchandji View full book textPage 7
________________ . 6 केटलाएक श्रावको एम समजे छे के देवद्रव्य साचववानो अधिकार गुरुजीनो छै. आम समजीने अज्ञान श्रावको चरित्रथी भ्रष्ट थयेला एवा जतिओने ते द्रव्य सोंपे छे. पण श्रावकाचाररास तथा बीजा अनेक ग्रंथोमां साधु तथा यतिओने द्रव्यने अडकवानी पण चोख्खी ना कही छे, तो पासे राखq तथा धीरधार करवी तेमज वेपार करवो तेनी हा क्याथी ज होय ? माटे एवी रीते जति विगेरेने तेनी सोपण करवीज न जोइए, आ प्रमाणे समजवामां आव्या छतां जे श्रावक तेओने देवद्रव्य अथवा स्वद्रव्य आपे छे ते तेना महाव्रतोनो भंग करावनार थाय छे. . - 7 श्राद्धविधि तथा योगशास्त्रदीपिका विगेरे अनेक ग्रंथोमां कधुं छे के, पुन्यवंत श्रावकोए पुन्यधर्मनी वृद्धिने हेते तथा शासनना उद्योतने निमित्ते देरासरो, धर्मशाळाओ, पोसहशालाओ, उपाश्रयो, ज्ञानना भंडारो, प्रभुना आभुषणो, प्रभु पधराववाना रथो, पालखीओ, इंद्रध्वजो, चामरो, चैत्यना उपगरणो तथा ज्ञानना उपगरणो विगेरे अनेक वस्तुओ पोताना द्रव्यथी, अथवा प्रयासथी निष्पन्न थयेलुं के करेलुं देवद्रव्य के साधारण द्रव्य होय तेमाथी नीपजाववी; नीपजावीने ते साहित्योथी शासननी उन्नत्ति करी, पाछळ तेनी व्यवस्था थाय तेवो बंदोबस्त करी अथवा उपज करी आपी श्रीसंघने संभाळने अर्थे सोपवी अने पोते पोतानी हयातीमां बनती रीते मदद करी देखरेख राखवी; पण ते प्रमाणे नं करता जो कोइ पोतानी मोटाइ गणी, आपवा लेबाना काममाPage Navigation
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