Book Title: Devdravya
Author(s): Mohanlal Sakarchandji
Publisher: Mohanlal Sakarchandji

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Page 33
________________ (32) तो खरा के, तेनुं तेज अधिक छे के चंद्रनुं ? पछी लघु पुण्यसार जे वहाणना तट उपर बेठो हतो तेणे दुर्दैवथी प्रेराइने रत्न हाथमां लीधुं, अने क्षणवार रत्न उपर अने क्षणुवार चंद्र उपर दृष्टि करवा लाग्यो. एम करता करता तेना हाथमाथी ते रत्न तेना मनोरथनी साथे समुद्रमां पडी गयु. जेथी बने जणा समान रीते दुःखी थइ गया. पछी पोताना नगरमां आवी कोइ ज्ञानी गुरुने पोतानो पूर्वभव पूछयो. ज्ञानी.बोल्या-"पूर्वभवे तमे चंद्रपुर नगरमां जिनदत्त अने जिनदास नामे वे परम आहेत् (श्रावक) श्रेष्टी हता. एक वखते ते नगरना श्रावकोए मळीने ते बंने श्रेष्टीने उत्तम धारी ज्ञान द्रव्य अने साधारण द्रव्य रक्षण करवाने सोंप्युं. एक वखते एवं बन्यु के जिनदत्त श्रेष्टीए पोताना चोपडामां बराबर तपासीने पोतानुं नामुं लखनारनो' मासिक पगार चडेलो तेनो निर्णय कर्यो, पण पोतानी पासे बीजुं द्रव्य न होवाथी 'आ पण ज्ञानवें स्थान छे' एवं विचारीने ते लेखकने पगारना चडेला बार द्राम ज्ञानद्रव्यमाथी आप्या. बीजो श्रेष्टी जिनदास जे साधारण द्रव्यनी व्यवस्था करतो हतो, तेणे एक वखते 'साधारण द्रव्य सात क्षेत्रने योग्य होवाथी श्रावकोने पण योग्य छ,' एम विचारी पोताना घरना जरुरी काममां बीजा.द्रव्यना अभावथी ते साधारण द्रव्यमांथी बार द्राम वापयर्या. अनुक्रमे ते बने श्रेष्टी मृत्यु पामी दुःकर्मवडे प्रथम नरके गया. ते पछी देवद्रव्यने भक्षण करनारा सागरश्रेष्टीनी जेम सर्व नरकमां अने एकेन्द्रिय, दींद्रिय, त्रींद्रिय,

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