Book Title: Devdravya
Author(s): Mohanlal Sakarchandji
Publisher: Mohanlal Sakarchandji

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Page 55
________________ (54) रणी करवा मन दोराय, मन मुकामे नहि रहेता, चालती क्रियानो लाभ नहि लेतां अन्य अन्य स्थाने भटके, तेथी चालु करणी निष्फळपाय थई जाय. चालु क्रियामां अंगारानी वृष्टिवत् लेखी शकाय. - 2 शून्यतादोष-जे कई धर्मकरणी करवामां आवे ते संमूर्छिमनी परे उपयोग शून्यपणे समज वगर अथवा शब्द, अर्थ के तदुभयना लक्ष वगरज कराय अथवा तो हुं शुं करुं छु ? में शुं कयु ? तमेज हवे मारे शुं करवातुं छे ? तेनुं जेमां कशुंज भान न होय, एवी शून्य करणीथी शो लाभ थई शके ? कशोन नहिं. भाव वगरनी करणीमां शो रस ? 3 अविधि दोष-जे धर्मकरणीनो जेवो क्रम ( मर्यादा) जणावेल होय तेथी विपरीत-उलटपालट आपमतिथी करे के ज्ञा. नीने पूछी यथार्थ समज मेळव्या वगरज जेम फावे तेम गाडरीया प्रवाहे करे या तो अधिक ओछी करे अथवा आगळ पाछळ करे तेथी स्वहित भाग्येज थाव, अविधिथी तो उलटुं अहित पण थाय. - 4 अति प्रवृत्ति दोष-दिगंबरनी पेरे देश, क्राळ, भावने तपास्या वगर गजा उपरांतनी क्रिया करवानो खोटो आग्रह कहो के कदाग्रह करे तेथी पण लाभने बदले हानिज थाय छे. .

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