Book Title: Devdravya
Author(s): Mohanlal Sakarchandji
Publisher: Mohanlal Sakarchandji
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________________ (53) समां पश्चात् होय तेमना उपर अनुकंपा लावी जेम तेओ पण अ. भ्यासमा आगळ वधी आपणी बरोबर थाय तेम इच्छQ अने करवू पण नाहक तेमनी उपेक्षा के अवगणना करवीज नहिं. गमे तेवा पापी तथा देव गुरुना निंदक होय तोपण तेमनी उपर द्वेष करवामां पोताने तेमन तेमने कशो फायदो थतो नथी, तेथी द्वेष तो नज करवो. तेमज तेवा निर्दय प्राणीओ साथे राग पण करवामां कशुं स्वहित के परहित सधातुं नथी तेथी राग पण न करवो. तेमनाथी तो तद्दन उदासीनज रहेg हितकारी छे. उपर संक्षेप मात्रथी कहेली मैत्री, मुदिता, करुणा अने माध्यस्थ्य भावनाथी सदाय आपणा आत्माने सुवासित राखवो. वळी विधिना प्रस्तावे शास्त्रकारे कहेलुं छे के: " दग्ध शून्य ने अविधि दोष, अति प्रवृत्ति जेह, चार दोष छंडी भजो, भक्ति भाव गुण गेह." मतलब के विधि रसिक जनोए दग्धदोष, शुन्यतादोष, अविधिदोष अने अतिप्रवृत्तिदोष; ए चार दोषोने अवश्य तजवा जोइए. उक्त चार दोष रहित देव गुरु के तीर्थ संबंधी.सेवा भक्ति बहु गुणकारी-अत्यंत लाभदायी थई शके छे, माटे ते चारे दोषनुं स्वरुप समजवा अने समजीने निर्दोष करणी करवा प्रयत्न करवो घटे छे. . 1 दग्धदोष-कोइ एक धर्मकरणी करतां बीजी बीजी क

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