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________________ देवद्रव्य. मुनिमहाराजश्री दोलतविजयजी महाराजनी मेरणाथी छपावी प्रकट करनार. दसाडावाळा शा. मोहनलाल साकरचंदजी तरफथी पोताना महूम पुत्र गीरधरलालना पुन्यार्थे भेट. वीर संवत् 2443 विक्रम संवत् 1673 सने 1617 घी “श्रानंद " प्रीन्टींग प्रेसमां शाह गुलाबचंद ललुभाइए छाप्यु-भावनगर. किंमत अमृल्य. (एकवार सायंत वांचवानी खास शरत समजवी.)
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________________ देवद्रव्य. देवद्रव्यना मुख्य वे प्रकार छे. 1 साधारण चैत्योर्नु द्रव्य, 2 तीर्थ- द्रव्य. आ बंने द्रव्यमा तीर्थ द्रव्य विशेषाधिक छे, कारण के साधारण चैत्योनुं द्रव्य जरुर पडे तो तीर्थना कार्यमा वापरी शकाय छे, परंतु तीर्थ द्रव्य अन्य चैत्योमां वापरी शकातुं नथी, कारण के ते द्रव्य तीर्थ रक्षणने माटे एकहुं करवामां आवे छे. आवी रीते तीर्थ द्रव्य सर्वोत्कृष्ट छे. शास्त्रकारे देवद्रव्यना रक्षणनी अत्यंत आवश्यकता बतावी छे अने तेना विनाशथी अथवा उपेक्षा करवाथी बहु भय बताव्यो छे, आ भय नथी पण यथार्थ परिणाम छे. कारणके प्राणीनुं भवोभवमां हित करनार तरीके देव परम उपकारी छे. तेमनी भक्तिमां वापरवानुं द्रव्य ते देवद्रव्य कहेवाय छे. तेनुं रक्षण करवू ते देवनी ज भक्ति छे. . मुख्यत्वे करीने देवद्रव्यनो बीगाड थवाना नीचे जणाव्यां छे तेज कारणो होय छे.
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________________ हगाम अथवा शहेरमा अगाउ सारी स्थितिमा होवा तमाम श्रावकवर्ग नबळी स्थितिमा आवी जाय ते दरम्यान देवद्रव्यनी संभाळ राखनार कोइ सारी स्थिा चालू होतुं नथी त्यारे तेमां जरुर बीगाड थाय छे.. 2 केटलाएक मोटा माणसो नामना उपरी गई, वहीवट करनारने हाथे तेनी नजरमां आवे तेम देवद्रव्यनी तथा ते संबंधी मीलकतनी लेवढदेवड करवा तथा खरच करवा तथा कारभार चलाववा दइ, पोते बीनदरकारी थइ, तपास न राखी, तेवा माणसने भरुसे बेसी रहेवाथी, अथवा तो शरममां पडी जेम करे तेम करवा देवाथी, तेमन कोइ सारा वहीवट करनार अथवा संभाळनार पुन्यशाळी मळ्या होय अथवा मळे, अने ते कोई वात पूछे अथवा बतावे अथवा मदद मागे तो ते न आपवाथी, अने वखतपर तेना कृत्यमा अजाणपणाथी अनायासे आवेली भूलने वखोडवाथी, अथवा तो ते कामनो सपळो बोजो तेने शिर नाखी देवानी दहशत बताववाथी के नाखी देवाथी, अने पोते अलग रही वातो करवाथी तथा तेवा बीजा कारणोथी बीगाड थतो आपणा सांभळवामां आव्यो छे, अने आवे छे. आ प्रमाणे बीगाड थाय छे तेना मुख्य कारणीक प्रथम तो आपणेज छीए. कारण के पूर्वाचार्यो जेओ महान् पंडितो हता अने अवसरना जाण हता, तेओ श्रीचंदकेवळी चरित्र, उपदेशमा
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________________ (3) साद, श्राद्धविधि, श्राद्धजीतकल्प, विवेकविलास, अर्थदीपिका, योगशास्त्रनी टीका, द्रव्यसीत्तरी, आचारोपदेश, आचारदिनकृत्य, पूजाप्रकरण, शत्रुजय लघुकल्प तथा संबोधसीत्तरि आदि अनेक ग्रंथोमां देवद्रव्यनी व्यवस्था केवी रीते करवी, केवी रीते अने क्यां वापरयु, केम वृद्धि करवी, वृद्धि करवाथी तथा रक्षण करवाथी शुं फायदो छ, न करवाथी शुं नुकशान छे, उवेखी मुकवाथी शुं प्रायश्चित छ, संभाळ कोणे करवी उचित छे विगेरे सविस्तरपणे कही गयेला छे. तेवा ग्रंथो आपणे सुगुरु समीपे सांभळेला अथवा वांचेला छतां, तेमां बतावेली रीति प्रमाणे न चाली, पोतानो स्वार्थ वहालो करी तथा बीनदरकारी थइ, जेम चाले तेम चालवा दइए छीए अने ते विषे कांइ पण विचार न करतां घरमा तथा बीजे ठेकाणे बेसी, नकामी वातो करी, वखत गुमावीए छीए; वळी कांइ करता नथी एटलुंज नहीं परंतु वखतपर तेवा काम करनारनी वातो करी, शुद्ध रीते संभाळ राखनारा गुणवंत पुरुषोना दिल दुखावी, कंटाळो आपी तेमने काम छोडी देवानी फरज पाडीए छीए, अने तेवा काममा गेरव्याजबी रीते चालनारा तथा बीगाड करनारा अने योग्य रीते संभाळ नहीं राखनारा पुरुषोना गुण गाइ अथवा तेमने मदद करी, तेमनुं उपराणुं लइ, थता वीगाडमां वधारो कराववानां कारणीक थइए छीए. आ मोटी दिलगीरीनी वात छे, माटे तेवी रीते न वर्तवु अने सारी रीते वर्तवू ते सर्वे जैनधर्मी मुझ सज्जनोनी
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________________ मुख्य फरज छे. आ उपरथी सत्य वर्तणुके वर्त्तवानुं सर्वे श्रावक भाइओए पोताना हृदयमां मुकरर करवू जोइए. देवद्रव्य संबंधी जूदा जूदा ग्रंथकारोए केवी रीते कथन करेलं छे ते ग्रंथना नाम साथे आ नीचे दर्शाव्युं छे: 1 श्रीसारावली पयन्नामां कहुं छे के:पूयाकरणे पुन्नं, एगगुणं सयंगुणं च पडिमाए / जिणभवणेण सहरसं, अनंतगुणं पालणे होइ // 1 // - अर्थ-पूजा करवाथी एकगणुं पुन्य थाय, तेथी सोगणुं पुन्य प्रतिमा भराववाथी थाय, तेथी हजारगणुं पुन्य जिनचैत्य कराववाथी थाय अने अनंतगणुं पुन्य तेनुं पालण करवाथी एटले तीर्थमुं, चैत्यर्नु अथवा देवद्रव्यतुं रक्षण करवाथी थाय. . 2 श्राद्धविधि ग्रंथमा देवद्रव्यने अधिकारे कर्तुं छे के, धरमादाना हरकोइ खाताना ओछामा ओछा चार पुरुष संभाळ करनार होवा ज जोइए, ते एवी रीते के एकनी पासे कुंची, बीजानो हुकम, बीना पासे नामुं अने चोथो माणस तपासीने सही करे. आ चारमाथी द्रव्यनी मोटी रकम काढवा मूकवामां बेथी त्रण जणाओए साथे रहेg जोइए. आवो बंदोबस्त होय तो ते द्रव्यनो बगाड थवानो बीलकुल संभव रहेतो नथी. ... 3 विवेकविलास नामे ग्रंथमा कयुं छे के, देवद्रव्य कोइने
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________________ पण अंग उधार धीरवू नहीं, पण तेनुं व्याज सोना रुपाना दागीना उपर अयवा जागीर उपर धीरीने उत्पन्न करवू. मीलकत के जागीर जेनी उपर देवद्रव्य धीरवामां आवे ते एक जणना नामथी धीरवू नहीं. आ प्रकारे थवाथी कोइ रीते तेमांथी खवाइ जवानुं बनी शकशे नहीं. __.4 श्राद्धजीतकल्पमां कहुं छे के, देवद्रव्यनी व्यवस्था करनारने एक रुपैयार्नु परचुरण जोइतुं होय अने ते पोतानी पासेना देवद्रव्यनी सीलकमां होय तो पण त्रीजा माणसने पासे राख्या शिवाय तेणे काढवू नहीं. आ बाबत जेने त्यां घरदेरासर होय तेने माटे पण लागु पडे छे. आ कथन उपरथी विचारवं जोइए के ज्यारे रुपीओ नांखीने परचुरण लेवा माटे पण एकलाने सत्ता नथी अथवा व्याजबी नथी तो पछी बीनरजाए मोटी रकमो पोताना उपयोगमा लेवी ते तो केवु गेरव्याजवी तेमज दोषित कहेवाय ? . 5 द्रव्यसीत्तरी प्रकरणमां देवद्रव्य, नीच वेपारो करी, तथा नीच धंधादारीओने धीरीने वधारवानी चोख्खी ना कही छे, तेम ज केटलाएक ग्रंथमा श्रावकने धीरवा माटे पण ना कहेली छे. हा कहेली होय तेवो कोइ पण ग्रंथ दीठामां आवतो नथी.न धीरवातुं कारण मुख्य तो एज छे के श्रावके श्रावक पासे ते द्रव्यनी उघराणी लाज शरमने लीधे करी शकाय नहीं अने तेथी ते द्रव्य डुबी जाय.
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________________ . 6 केटलाएक श्रावको एम समजे छे के देवद्रव्य साचववानो अधिकार गुरुजीनो छै. आम समजीने अज्ञान श्रावको चरित्रथी भ्रष्ट थयेला एवा जतिओने ते द्रव्य सोंपे छे. पण श्रावकाचाररास तथा बीजा अनेक ग्रंथोमां साधु तथा यतिओने द्रव्यने अडकवानी पण चोख्खी ना कही छे, तो पासे राखq तथा धीरधार करवी तेमज वेपार करवो तेनी हा क्याथी ज होय ? माटे एवी रीते जति विगेरेने तेनी सोपण करवीज न जोइए, आ प्रमाणे समजवामां आव्या छतां जे श्रावक तेओने देवद्रव्य अथवा स्वद्रव्य आपे छे ते तेना महाव्रतोनो भंग करावनार थाय छे. . - 7 श्राद्धविधि तथा योगशास्त्रदीपिका विगेरे अनेक ग्रंथोमां कधुं छे के, पुन्यवंत श्रावकोए पुन्यधर्मनी वृद्धिने हेते तथा शासनना उद्योतने निमित्ते देरासरो, धर्मशाळाओ, पोसहशालाओ, उपाश्रयो, ज्ञानना भंडारो, प्रभुना आभुषणो, प्रभु पधराववाना रथो, पालखीओ, इंद्रध्वजो, चामरो, चैत्यना उपगरणो तथा ज्ञानना उपगरणो विगेरे अनेक वस्तुओ पोताना द्रव्यथी, अथवा प्रयासथी निष्पन्न थयेलुं के करेलुं देवद्रव्य के साधारण द्रव्य होय तेमाथी नीपजाववी; नीपजावीने ते साहित्योथी शासननी उन्नत्ति करी, पाछळ तेनी व्यवस्था थाय तेवो बंदोबस्त करी अथवा उपज करी आपी श्रीसंघने संभाळने अर्थे सोपवी अने पोते पोतानी हयातीमां बनती रीते मदद करी देखरेख राखवी; पण ते प्रमाणे नं करता जो कोइ पोतानी मोटाइ गणी, आपवा लेबाना काममा
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________________ (7) हुकमपणुं धरावी, व्यवस्था करवानुं काम पोते राखे तो ते कामनो वहीवट पोतानी सारी स्थिति होय अने द्यानत पाक रहे त्यां सुधी तथा पोतानो कुटुंब परिवार धर्मीष्ट होय त्यां सुधी जुज काळ सारी रीते चाले पण दैव योगथी पोतानी अथवा पोताना कुटुंबनी स्थिति वगाडवा मांडे त्यारे " भुखी कुतरी भोटीलांने खाय" ए कहेवत प्रमाणे पोतानी आबरु राखवाना तथा द्रव्यवान रहेवाना हेतुथी परमेश्वरनी, तथा आगामी भवनी के पापनी बीक न गणतां ते द्रव्यनो उपभोग लाचारीथी के खुशीथी करे छे, अने पछी ते वात ढांकवा अनेक प्रकारनां कालां घोळां करवा पडे छे, तो पण छेवटे ते ढांक्युं रहेतुं नथी, तेथी आ भवमां आवरुनी हानी थाय छे, कोइ सत्ताधारी सामा पड्या होय छे तो भक्षण करेलं द्रव्य ओकवू पडे छ अने आवता भवमां संसारमा रझळवानुं अंगीकार करवु पडे छे, तेमज तेनी पाछळ तेना नातीला जातीला कुटुंब परिवार तथा महोवतवाळाओने शरमावु पडे छे अने नीचाजोj थाय छे. आ उपरथी देवद्रव्यनी संभाळ घणीज सावचेतिथी पोताने डाघ न लागे तेवी रीते करवी जोइए. पण डाघ लागवाना भयथी संभाळज न करवी एवो विचार कोइए पोताना हृदयमां धारण करवो न जोइए. कारण के देवद्रव्यनी संभाळ करवानुं कार्य श्रावकने माटेज छे. तेमज उवेखी मूकवाथी श्रावकने प्रायश्चित्त पण कहेलुं छे. आ बावत आगळ उपर वधारें लखवामां आवशे.
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________________ (8) 8 केटलाएक ग्रंथोमां कयुं छे के, जेणे देवद्रव्यर्नु भक्षण कर्यु होय अथवा जेनी पासे देवद्रव्य लेणुं रघु होय तेनी पासेथी हरेक प्रकारे वसुल करवं, पण जो ते शख्सनी द्रव्य आपवानी शक्ति न होय अने ते संघ पासे देवाथी छुटो थवा आजीजी करतो होय तो श्रीसंघे तेनी योग्यता जोइने छुटको करवो अथवा तो पुन्यवंत श्रावके पोताना पदरथी रुपीया भरी खातुं चुकतुं कराव, परंतु जे शख्स छती शक्तिए बदद्यानतथी आपतो न होय तो तेना घरनुं पाणी पीयूँ ते पण श्रावकने कल्पतुं नथी, एटलुंज नहीं परंतु तेने पूरती शिक्षाए पहोंचाडी बीजाओ तेवी बदद्यानत करतां आंचको खाय तेम करवू जोइए. वळी देवद्रव्यमां दुषित थयेल शख्स आवरुवान अथवा धनाढ्य होय अने तेनी सामा पडी शकवानी शक्ति न होय अने तेने घरे दाक्षिणताए करीने कदी जमवू पडतुं होय तो ते जमवानी किंमत श्रावके देरासरना भंडारमा नाखवी, परंतु फोगट जमवू नहीं. . 9 श्रीचंदकेवळीना चरित्रमा कयुं छे के, कोइ गामना घणा श्रावकोए देवद्रव्य भक्षण करेलु तेथी ते गामनी स्थिति घणीज बगडेली, ते जोइ श्रीचंदकुंवर ते गामना श्रावकोने सारी रीते उपदेश दइ देवद्रव्यना दोषयी मुक्त थवा समजावी ते गामनुं पाणी पण पीधा शिवाय चाल्या गया. 10 केटलाएक पुन्यवंत श्रावको उजमणां करी हजारो रुपीया खरची चंदरवा, पुंठीयां, तोरण, रुमाल, पाठी, सोना रुपा
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________________ (6) ना कळश; रकाबीओ, धूपधाणांओ, वाटकीओ विगेरे मूके छे; आ सपळो सामान ज्यां ज्यां योग्य लागे त्यां त्यां तरतज आपी देवानुं तथा मोकलावी देवानुं शास्त्रकारे कह्या छतां तेमांनो जुन सामान घटित जग्याए आपी बाकीनो शोभीतो अने किंमती सामान पोताना घरमां संघरी राखे छे. अने वखतपर वापरवा काढे छे अथवा वापरवा आपे छे, परंतु ते अयुक्त छे. कारण के तेवी रीते करवाथी वखतनी बारीकाइ अथरा अस्तोदयना चक्रभ्रमणथी ज्यारे पोतानी स्थिति बदलाय छे त्यारे ते सामान खवाइ चवाइ जतो, वेचातो अथवा खेंचाइ जतो जोवामां आवे छे, अने तेथी करीने पुन्य करतां पापनो बंध अधिक थइ पडे छे. शास्त्रकारे जेवो दोष देवद्रव्यने माटे कहेलो छ तेवो ज दोष तेने माटे पण कहेलो छे. 11 केटलाएक श्रीमंत गृहस्थो ज्ञानना भंडारो करीने लाखो रुपिया खरचे छ तेमज प्राचीन काळमां तेवा भंडारो अ. संख्य द्रव्य खरचीने करी नयेला मोजुद छे. आ भंडारो मांहेनां पुस्तको तथा तेना रुमाल पाठां विगेरे उपगरणो मोटा मोटा उपाश्रयमां मूकलां होय छे अने मूकाय छे; काळना दूषणथी तेवा उपाश्रयनी अंदर वास करनारा यतिओ गृहस्थनी जेवा थइ पडवा थी तमाम भंडारने फना करी मूके छे, एटले अयोग्य स्थानके . आपी दे छे, वेची नाखे छे, अव्यवस्थित रहेवाथी बगडी जाय छ, अथवा तो तेवा भंडारोना मालीक पोतेज थइ पडी कोइ पण
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________________ सेवगी मुनि महाराजने अथवा सुज्ञ श्रावकोने वांचवा पण आपता नथी अने पोते तो कर्मदोषथी बुद्धिहीण ज होय छे तेथी तेनो उपयोग अगर संभाळ करी शकता नथी, तेथी केटलाक वर्षे तेवां ताळा वाशी राखेला भंडारोमांना पुस्तको सडी जइ तेनो नाश थइ जाय छे, अर्थात् उपयोगमा आवे तेवां रहेतां नथी. माटे आ बाबतमा भंडार करावनाराओए अगाउथीज आगळ उपर सारी रीते बंदोबस्त रहेवा माटे अने जे कार्यने माटे भंडार करवामां आवे छे ते कार्य सफळ थवा माटे व्यवस्था करी राखवी जोइए. प्रसंगोपात उजमणां तथा ज्ञानना भंडारो विगेरे बाबतो उपर लक्ष जवाथी मूळ विषय जे देवद्रव्यनो छे ते पडयो रहेलो छे. जो के ते विषयो पण देवद्रव्यनी जेवा अने तेनी साथे संबंध धरावनारा छे. ज्ञानद्रव्य, गुरुद्रव्य तथा साधारण द्रव्यनी बाबतमा पण शास्त्रकारे देवद्रव्यनी जेवाज गुणदोष कहेला छे, परंतु अहीं देवद्रव्यनी बाबतमांज वधारे कहेवानी जरुर होवाथी ते बाबतज विशेषे करीने लखेली छे. 12 श्रीसंबोधसित्तरी नामे प्रकरणमा कयुं छे के:जिणपवयणवुद्धिकरं, पभावगं नाणदंसणगुणाणं। रख्खंतो जिणदव्वं, तिथ्थयरत्तं लहइ जीवो। ... अर्थ-जिन प्रवचननी वृद्धि करनार अने ज्ञान दर्शन गुणनो
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________________ (11) प्रभावक एसे जीव जो देवद्रव्यनुं रक्षण करे छे तो तीर्थकरपणा प्रत्ये पामे छे. 13 वळी तेज प्रकरणमां कडं छे के:- . जिणपव्वयणवुहिकर, पभावगं नाणदंसणगुणाणं / भख्खंतो जिणदव्वं, अनंतसंसारीओ होइ॥ __अर्थ-जिन प्रवचननी वृद्धिनो करनार, अने ज्ञान दर्शन गुणनो प्रभावक एवो छे तोपण जो देवद्रव्यनुं भक्षण करे तो ते अनंतसंसारी थाय छे. ___आबे गाथा उपरथी एटलं तो समजाशे के गमे तेटली बीजी पुन्यकरणी करे परंतु जो देवद्रव्य भक्षण करे छे तो तेनी पुन्यनी करणी निरर्थक थाय छे अने अनंत संसार वधे छे तो पण एटलं समजवान बाकी रहेलं छे के शक्तिवान् छता कोइपण श्रावक अलग रहे, बीलकुल संभाळ न करे अथवा उवेखी मुके तो तेने पण शास्त्रकारे प्रायश्चित्त कहेलं छे. यदुक्तं श्रीसंबोधसिरत्ती प्रकरणे:भख्खे जो उवेख्खेइ, जिणदव्वं तु सावउ / पन्नाहीणो भवेजीवो, लीप्पइ पावकम्मुणा // अर्थ-देवद्रव्यनुं भक्षण करे अथवा तो बगाड यतो होय
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________________ (12) तेने उवेखी मूके ते श्रावक बुद्धिहीण थाय अने पापकर्मे करीने लेपाय. ____ आ गाथा उपरथी एटलं सिद्ध थाय छे के भक्षण करवू अने उवेखी मूक ते बंने कोइ अपेक्षाए करीने शास्त्रकारे समतुल्य कहेल्लु छे माटे दरेक श्रावक भाइओए स्वशक्ति अनुसारे देवद्रव्यना रक्षण निमित्ते प्रयत्न करवो जोइए, पण एम न समजवू के संभाळ राखवी ते काम तो श्रीमंतनुं छे. शुं साधारण स्थितिवाळाओगें नथी ? सर्वेनुं छे; कारण के संभाळ करवी ते 1 सोनु छ कारण के संभाळ करवीत पोतानी शक्ति प्रमाणे छे. कोइ स्वद्रव्य अर्पण करीने देवद्रव्यनी वृद्धि करे छे, कोइ बगाड थएलो लक्षमा लइने बगाड करनारने शिक्षा करे छे, कोइ वीखराएलं द्रव्य एकछु करे छे, कोइ गरीबावस्थावाळा श्रावको तेवा कामनी प्रेरणा करे छ, अर्थात् कलम रुपी शमशेर चलावीने देवद्रव्यनी वृद्धि करावे छे अने नाश करनारने शिक्षा करावे छे. प्रसंग पडवाथी लोह समशेर करतां कलमरूपी समशेर वडे वधारे काम करी बतावे छे. आ वात ध्यानमा राखीने सर्व श्रावकोए यथाशक्ति प्रयत्न करवा उद्युक्त रहे जोइए. हवे तेमां पण जे उघराणी करवानी चिंता छे ते देवादिद्रव्यनी वृद्धिमा विशेष उपयोगी छे. तेथी ते विषे चिंता करनाराए पोताना द्रव्यनी जेम तेमां अभंग चित्ते प्रवर्तवू. अन्यथा जो उघ
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________________ (13) राणीना कार्यमा बहु विलंब थाय तो दुकाळ, देशभंग के दारिद्र विगेरे आववानो संभव छे, अने जो तेम थयुं तो पछी घणो उपक्रम करतां पण ते काम सिद्ध नहीं थतां देवादिद्रव्यना विनाशनो मोटो दोष उत्पन्न थाय छे. एवो दोष महेंद्रपुरीना एक श्रावकने लाग्यो हतो तेनी कथा श्रीद्रव्यसित्तरी प्रकरणनी टीकामां मीचे प्रमाणे छे:-- ___ " महेंद्रपुर नगरमां अर्हत् चैत्यने माटे चंदन, पुष्प अने अक्षत विगेरे लाववा सारु तथा देवद्रव्यनी उघराणी करवानी चिंता राखवाने माटे संघे चार श्रावकोने नीम्या हता, तेओ सारी रीते चिंता राखता हता. एक वखते ते चारे श्रावकोमा मुख्य हतो ते उघराणी करवा विगेरेमा जेनां तेनां विरुद्ध वचनो सांभलीने कंटाळी गयो, तेथी ते विषेनी चिंता राखवामां ते शिथिल.. थई गयो, आथी करीने मुख्यने अनुसरीने सर्व व्यवहार चालतो होवाथी बीजा त्रण श्रावको हता. ते पण शिथिल थई गया. आ अरसामा अकस्मात् देशभंग थंवाथी घणुं देवद्रव्य विनाश पामी गयु. आवी रीते ते मुख्य माणसे , प्रमादयी पोताना छतां बल वीर्य गोपव्यां, तेथी तेने सानुबंध पापकर्म लाग्युं, तेथीं तेने असंख्य भवोमा परिभ्रमण करवू पडयु." . उपर प्रमाणे अधिकार जाणीने अविलंबी उघराणी करीं श्रावको पासेथी देवादिद्रव्य उत्तम श्रावकोए उत्साहथी ग्रहण क
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________________ (14) रखं अने पोते पण अविलंबे जे देवद्रव्य आपवान होय ते आपी देवू, एक क्षणवार पण राखवू नहीं. विवेकी पुरुषो बीजानुं देवू आपबामां विलंब करता नथी तो आ देवज्ञानादिकना देवाने माटे केम विलंब करे ? वळी ज्यारे जे श्रावके जेटलीवार माळा विगेरे धारण कर्यु होय त्यारे तेटलीवार तेटलं बीजं पण देवादिद्रव्य देवू थयुं गणाय, तो तेनाथी तेनो शी रीते उपभोग करी शकाय, तेमज तेनो लाभ पण शी रीते लेवाय ? कारण के, तेम करवाथी पूर्व कह्या प्रमाणे देवादिद्रव्यना उपभोगनो प्रसंग आवे, तेथी ते देवादिद्रव्य सद्य अर्पण करवू ज योग्य छे. कदि जो कोइ सघ आपी देवाने अशक्त होय तो तेणे प्रथमथीज पखवाडिये के अर्थ पखवाडिये आपवानो चोखी रीते अवधि करवो अने ते अवधिनी अंदर पाग्या विना पोतानी मेळे ज आपी देवू. जो दैवयोगे अवधिनु उल्लंघन थइ गयुं अने तेटलामां पापनो उदय थयो तो देवदव्यना उपभोगनो दोष स्फुट रीते लागी जाय. ते प्रमाणे “ऋपभदत्त" नामना एक श्रावकने थयुंहतुं. तेनी कथा नीचे प्रमाणे ऋषभदत्तनी कथा. - "महापुर नगरमां ऋषभदन नामे एक श्रेष्ठी हतो,ते परम श्रावक हतो. एक वखते पर्वणीनो दिवस आवतां ते जिनचैत्यमां दर्शन करवा गयो, ते वखते देवनी आगळ धरवाने पोतानी पासे काइ द्रव्य न इतुं, एटले तेणे उधारे परिधापनिका लइ आगळ धरी.
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________________ त्याथी घेर मया पछी बीजा गृहकार्यमा व्यग्र थवाथी ते आपवानुं भूली गयो. तेवामां दुर्दैवयोगे तेना घर उपर धाड पडी, तेमां तेनुं सर्वस्व लुटाइ गयु. छेवटे लुटाराओए ते श्रेष्ठीने मारी पण नांख्यो. त्यांथी मृत्यु पामीने तेज नगरमा कोइ निर्दय, दरिद्री अने कृपण एवा महिषवाहकने घेर ते पाडो थइने अवतो. त्यां प्रत्येक गृहे लइ जवा माटे पाणीनी पखालोविगेरेनो भार वहन करवा लाग्यो, अने नित्य उंची भूमि उपर चडवाथी, अहोरात्रि बोजो वहन करवाथी, घणी क्षुधा तृषावडे पीडित रहेवाथी अने सदा निर्दयपणे . चाबुक विगेरेना घातथी ते महाव्यथा सहन करवा लाग्यो. आ प्रमाणे चिरकाळ सहन करतां एक वखते कोइ नवीन जिनचैत्य थतुं हतुं तेना गढने माटे ते महिषने जल वहन करवा लइ जवामां / आव्यो, त्यां चैत्यनी पूजा विगेरे जोवाथी तेने जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न थयु, एथी ते चैत्य आगळ्थी कोइ रीते चाल्यो नहीं. आ समये पूर्वभवना पुत्रोने ते वृतांत कोइ ज्ञानीए जणाव्यो एटले तेओए आवी, द्रव्य आपीने तेने महिषवाहकनी पासेथी छोडाव्यो, अने पूर्व भवे तेणे लीधेला देवद्रव्यथी सहस्त्रगणुं देवद्रव्य आपीने तेने ते ऋणमांथी मुक्त कर्यो. पछी ते महिष अनशन करीने स्वर्गे गयो, अनुक्रमे मोक्षने पग प्राप्त थशे." . - उपरनी कथा उपरथी देवद्रव्य आपवामां के लेवामां विलंब करवो नहीं, विलंब न करवाथी देवद्रव्यनी विशेष वृद्धि थाय छे. अने पोताने तेवो अभ्यास पडवाथी सावधानपणे तेना विरोधी
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________________ कर्म तथा आत्मदोषनो त्याग थाय छे अने पोताना नियमोनो निवाह, अपूर्व गुणनी वृद्धि अने विशेष धर्मर्नु उपार्जन विगेरे उत्तम गुणोनो स्थिरवास थाय छे.. . चैत्यद्रव्यनो नाश करनारने अनंत संसार भटकवू पडे छे. तेनुं मूळ कारण तेना सम्यक्त्वरूपी अमूल्य रत्ननो नाश थाय छे ते छे. आ बाबत श्रीसंबोधसित्तरी प्रकरणमांज कयुं छे के: चेइअदव्वविणासे रिसीघाए पव्वयणस्स उड्डाहे। संजइ चउथ्थभंगे, मूलग्गी बोहीलाभस्स // अर्थ-चैत्यद्रव्यनो विनाश करवाथी, मुनि महाराजानो घात करवाथी, साशंननी उड्डाह करवाथी अने साध्वीना चतुर्थ व्रतनो भंग करवाथी बोधिबीज जे सम्यक्त्व तेना मूळने विष अग्नि लागी जाय छे. एटले अनिए करीने दग्ध थरलं वृक्ष जेम नवपल्लव थतुं नथी तेम चैत्यद्रव्यनो नाश करनारना समकित रूपी वृक्षनु मूळ आग्गिए करी दग्ध थइ जाय छ ते फरीने अंकुर धारण करतुं नथी एटले समकितनी प्राप्ति थती नथी. समकित शिवाय व्रतनी प्राप्ति थती नथी अने व्रत शिवाय मोक्षनी प्राप्ति थती नथी, एज कारणथी तेने संसारमा अनंतो काळ पर्यट्टण करवू पडे छे. आवी रीते सर्वे सुकार्योनो नाश फक्त एक देवद्व्यनो नाश करवाथी थाय छे.
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________________ (17) आ विषय एटलो मोटो अने गहन तेमज गंभीर छे के तेना.संबंधमां जेटलं लखीए तेटलं थोडं छे, माटे आ विषय पूरो करतां अगाउ देवद्रव्यनुं भक्षण करनारने आ भवे अने परभवे केवां दुःखो भोगवां पडे छे, केवी केवी नीच योनिमां जन्म धारण करवो पडे छे, केवा प्रकारे भवभवने विषे मृत्यु प्राप्त थाय छे ते, तेमज देवद्रव्यनी वृद्धि करवाथी यावत् केवी रीते पदवी अने मोक्ष सुख प्राप्त थाय छे ते बताववा माटे श्राद्धविधि ग्रंथमाथी सागर शेठनुं दृष्टांत आ नीचे लख्युं छे, जेथी सर्व सज्जनो ते दृष्टांतने पोताना हृदयमां को। राखी तेवा अकार्यथी निरंतर दूर रहेशे. सागर शेठ- दृष्टांत. श्रीसाकेतपुर नामे नगरने विषे सागर नामे शेठ परमभक्तिवंत सुश्रावक हतो. तेने सर्वे श्रावकोए योग्य जाणीने चैत्यद्रव्य सार संभाल तथा योग्य रीते व्यय करवा निमित्ते आप्यु भने कयु के, तमारे देरासरनी अंदर सूत्रधार एटले सुतार विगेरे कारीगरो पासे कामकाज करावq अने तेने मजुरीना पैसा रीतसर आपवा. सागर शेठने आ प्रमाणे सुप्रत थवाथी लोभने वशे करीने ते मुतार विगेरे कारीगरोने रोकडं द्रव्य आपे नहीं, चैत्यना द्रव्यथी संघरी राखेखें धान्य, गोळ, घी, तेल, वस्त्र प्रमुख आपे अने तेमां जे कमाणी थाय ते पोताना घरमा राखे. आवी रीते वेपार -
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________________ (18) करतां तेणे एक हजार कांगणी उपार्जन करी' अने पोताना घरमां राखी. तेणे करी घोरकर्मनो बंध करी अंत समये आळोया पडीकम्या विना त्यांथी मरण पामीने समुद्रने विषे ते जळचर मनुष्य थयो. ते जळचर वज्रऋषभनाराच संघयणना धणी होय छे अने तेना शरीरमां जळतरणी गुटीको थाय छे. ए गुटीकाने ग्रहण करनारा वेपारीओए ते मच्छने पकड्यो, अने वज्रनी घंटीने विषे छ मास मुधी दल्यो, जेथी अत्यंत पीडा भोगवी त्यांची काळ करी त्रीजी नरके गयो. वेदांतने विषे पण क्रयुं छे के: देवद्रव्येण या वृद्धिः, गुरुद्रव्येण यद्धनं // तद्धनं कुलनाशाय,मृतोपि नरकं व्रजेत् // .1 / / ____अर्थ-देवद्रव्ये करीने जे वृद्धि थाय ते अने गुरुद्रव्ये करीने जे धननी प्राप्ति थाय ते धन कुळना नाशने अर्थ थाय छे अने मरण पाम्या पछी पण नरक प्रत्ये पमाडे छे. नरकने विषे अपार दुःख भोगवी त्यांची नीकळीने समुद्रने विषे पांचशे धनुषना शरीरवाळो मच्छ थयो. तेने म्लेच्छ लोकोए पकडी सर्वांग छेदन करी महाकदर्थना पमाडी. त्यांची काळ करीने छोथी नरके गयो. एवी रीते पहेलेथी मांडीने सातमी नरक सुधी घणी वखत जइ आव्यो, त्यार पछी कांगणी पोतानी उपजीवीकामां 1 हजार कांगणीना रुपिया साडाबार थाय छे. 3 गोळी.
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________________ (16) लीधेली हती तेथी तमाम जातिने विपे हजार हजार वार उत्पन्न थयो. - हजारवार खाडने विषे भुंड, हजारवार बोकडो, हजारवार हरण, हजारवार ससलो, हजारवार साबर, हजारवार शीयाळ, हजारवार बीलाडो, हजारवार ऊंदर, हजारंवार नोळीयो, हजारवार गृहकोकीला, हजारवार गोधो, हजारवार सर्प, हमारवार वांछी अने हजारवार विष्टाने विषे कृमी थयो; एवी हजार हजारवार पृथ्यि, पाणी, अग्नि, वायु, वनस्पति, शंख, जळे, कीडा, माखी, फमरो, मच्छर, काचबो, रासभ, पाडो, अष्टापद नामे जनावर खचर, घोडो, हाथी, वाघ, सिंह, विगेरे तमाम जातिने विषे लाखो भव पर्यंत भ्रमण करीले प्राये दरेक भवने विषे शस्त्रघाते करीने महा व्यथा भोगवी मरण पाम्यो. एवी रीते दुःख भोगवतां घj कर्म क्षीण थइ गयुं, थोडं रघु, त्यारे वसंतपुर नामे नगरने विषे वसुदत्त अने वसुमतिने त्यां पुत्रपणे उत्पन्न थयो. गर्भमां आवतां ज सर्व लक्ष्मी नाश पांमी. जन्मने दिवसे पिता मरण पाम्यो, पांचमे वरसे माता मरण पामी; तेथी लोकोए मळीने तेनुं अपुनीओ नाम पाडयु. अनुक्रमे ते वृद्धि पाम्यो. एकदा तेनो मामो त्यां आव्यो, ते तेने अति दुःखी जाणीने पोताने घेर तेडी गयो. तेज रात्रे चोरोए तेनुं घर लूटी लीधुं. एवी रीते जेने घरे जाय तेने त्यां तेज दिवसे चोर, धाड, अग्नि विगेरेनो उपद्रव थाय तेथी तेने कोइए राख्यो नहीं. अत्यंत दुःख पामवाथी उद्वीग्न चित्तवंत थइने देशांतरने विषे चाल्यो, अनुक्रमे तामलीतपुरीने विषे आव्यो.
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________________ (20) तामलीतपुरीने विषे विनयंधर शेठने त्यां सेवकपणे रह्यो, तेज दिवसे तेनुं घर अग्निए करीने बळी गयुं, तेथी तेने श्वाननी पेरे घर बहार काढी मूक्यो,त्यांथी भमतो भमतो अनुक्रमे समुद्रने तीरे आव्यो. तेवामां घनावह नामे शेठ धन निमित्ते प्रवहणमां बेसीने जतो हतो तेनी साथे सेवकपणे ते अपुनीओ पण तेज वहाणमां बेठो. वहाग सुखे करीने अन्य द्वीप प्रत्ये पहोंचवा आव्युं, तेटलामां अपुनीओ मनमा विचारवा लाग्यो के अहो ! मारूं भाग्य हवे उघडयुं जणाय छे, कारणके मारा बेठा छतां आ वहाण भाग्युं नहीं. आवो विचार करे छे तेवामां तत्क्षण कोइ देवे आवीने प्रचंड दंडना प्रहारे करीने ते वहाणना कटके कटका करी नांख्या. कांइक भाग्योदयथी अपुनीआना हाथमां पाटीआनो कटको आव्यो. तेनी साथे तरतां तरतां समुद्रने कीनारे कोइ गाम हशे त्यां पहोंच्यो. ते गामना ठाकुरनी साथे इर्षा धरावनार ते गामनी नजीकनी एक पाळना पल्लीपतिए ते दिवसे त्यां धाड पाडी अने अधुनीआने ठाकोरना पुत्रनी भ्रांतिए बांधीने उपाडी गया. जे दिवसे अपुनीआने पाळमां लाव्या तेज दिवसे बीजा पल्लीपतिए ते पाळने भांगी अने तेनो विनाश को. पल्लीपतिए अपुनीआने निर्भागी जाणीने काही मूक्यो, कयुं छे के:-- खल्वाटो दिवसेश्वरस्य किरणैः संतापितो मस्तके, वांछन् स्थानमनातपं विधिवशात् बिल्वस्य मूलं गतः।
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________________ (2.1) तत्राप्यस्य महाफलेन पतता भग्नं सशब्दं शिरः, प्रायो गच्छति यत्र दैवहतकस्तत्रैव यांत्यापदः // 1 // अर्थ-दिवसेश्वर जे सूर्य तेना तापे करीने संतापित थयेलो एवो कोइ उघाडा मस्तकवाळो पुरूष तडका विनानुं स्थान वांछतो छतो भाग्यना वशे करीनेबीलाना झाड नीचेगयो. त्यां पण ते झाडनुं फळ मस्तक उपर पडयुं जेथी माथु फुटी गयु. माटे एमज समजवू के पाये भाग्यहीन पुरुष ज्यां जाय त्यां आपदा आवीने पडे छे. . अपुनीआने पाळ बहार काळ्या पछी तेना भाग्यहीनपणाथी 999 वार अन्य अन्य स्थानकने विषे चोरनो, जळनो, अग्निनो, स्वचक्रनो, परचक्रनो ए विगेरे अनेक उपद्रवो थया अने दरेक स्थानकथी ते भ्रष्ट थयो. तेथी छेवटे ममतां भमतां एक मोटी अटवीने विषे सेलक नामे यक्षना देरा पासे आव्यो. त्यां आवीने एकाग्र चित्ते पोताना दुःखनु निवेदन करतो छतो एकवीश उपवास करतो हवो, एकवीशमे उपवासे यक्ष तुष्टमान थइने बोल्यो के ' हे पुरुष ! संध्याकाळने विषे मारी समीपे सुवर्णना हजार पीछाए अलंकृत एवो मोटो मोर आवीने नृत्य करशे, दररोज तेनुं सुवर्णमय एक पीछं पडशे ते तारे ग्रहण कर.' ए प्रमाणे कहीने यक्ष अदृश्य थयो. .. यक्षना कहेवा प्रमाणे दररोज अकेक पछि ग्रहण करतां * करतां अनुक्रमे नवशे पीछां तेने मळ्यां. बाकी सो पीछां रह्यां
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________________ (22) तेटलामा दुष्कर्मनो प्रेयों थको ते अपुनीओ चितववा लाग्यो के, हवे आ सो पीछां लेवाने माटे मारे केटला दिवस आं अटवीने विषे रहे, ? माटे आजे मोर नाटक करवा आवे त्यारे एक मुष्टीए करीने सोए पीछां लइ लउं. आ प्रमाणे चितवन करीने संध्या समये ज्यारे मोर आव्यो अने नाटक करवा मांडयुं त्यारे अपुनीओ ते पीछां एकदम लइ लेवाने माटे उद्यमवंत थयो. ते वखते तरतन ते मयुर कागडो थइने उडी गयो. अने अगाउना मळेलां नवशें पीछां पण नष्ट थयां , ___ आवी रीते पोतानी आशामां निराश थवाथी अपुनीभो विचारवा लाग्यो के 'धिकार छे मने के में फक्त सो दिवसने माटे उच्छकपणुं कयु.' एम विचारी खिन्न चित्त थयो थको अटवीमां भमे छे, तेवामां एक मुनिमहाराजाने दीठा. देखीने नमस्कार पूर्वक पोताना पूर्वकर्मनुं स्वरूप पूछवा लाग्यो. गुरुमहाराजाए तेना पूर्व भवनुं स्वरूप कही बताव्यु. एटले अपुनीए कह्यु के 'हे भगवंत ! में पूर्व भवे देवद्रव्यथी करेली उपजीविकानुं जे पायश्चित्त होय ते बतावो.' गुरु महाराजाए कडं के 'हे देवानुप्रिय ! आजथी तने व्यापार विगेरे कार्यमा जे काइ लाभ प्राप्त थाय तेमाथी फक्त वस्त्र अने आहार शिवाय जे वधे ते देवद्रव्यमा अर्पण कर, एटले तें भक्षण करेला द्रव्यथी ज्यारे एक हजार गणुं द्रव्य अर्पण करीश त्यारे पूर्व कर्मथी छुटीश.' आ प्रकारनां गुरुमहाराजानां वचनने अंगीकार करीने ते
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________________ (23) विशुद्ध श्रावक धर्मने आदरतो हवो. पछी पूर्व कर्मनो क्षय थइ जवाथी ते ज्यां ज्यां गयो त्यां त्यां व्यापारमा घणा द्रव्यनी प्राप्ति थवा मांडी. तेणे पण आजीवीका मात्र द्रव्य शिवाय तमाम चैत्यद्रव्यमा अर्पण करवा मांडयुं. थोडा दिवसोमा पूर्वे भक्षण करेली हजार कांगणीना बदलामां दशलाख कांगणी तेणे देवद्रव्यमा आपी अने ऋण रहित थयो. त्यार पछी अनुक्रमे घणु द्रव्य मेळवीने पोताना नगरने विषे आव्यो. राजाए तेने घणुं मान दइने नगरशेठनी पदवी आपी. त्यार पछी तेणे पोताना द्रव्ये करीने अनेक चैत्यो कराव्यां. तेमां निरंतर पूजा प्रभावना आदि शुभ कार्यों करतां अने यथायोग्य रीते दरेक चैत्यनी सारसंभाळ तथा तेना द्रव्यनुं रक्षण करतां तेणे तीर्थकर नाम कर्म उपार्जन कयु. ____ अवसरें दीक्षा ग्रहण करी, सम्यक् प्रकारे चारित्र पाळी, गीतार्थ थइ, शुद्ध धर्मदेशना दइ भूवि जीवने प्रतिबोधी, जिनभक्तिरूप प्रथम स्थानक आराधी, तीर्थकर नामकर्मनो निकाचीत बंध करी, अंत समये अणसण करी, सर्वार्थसिद्ध विमाने देवता थयो. त्यांथी चवी महाविदेह क्षेत्रने विषे तीर्थकरपणुं पामी मोक्षे जशे. ... इति देवंद्रव्य भक्षणरक्षणोपरि सागरश्रेष्टीनी कथा.
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________________ (24) उपरतुं द्रष्टांत श्रवण करवाथी सर्वे श्रावक भाइओना चित्तने विष देवद्रव्य संबंधी वास्तविक रीति प्रतिष्ठित थइ हशे, माटे हवे ते विषे क्यारे लखवानुं प्रयोजन नथी, एम जाणीने लेख पूरो कर्या अगाउ जणाव, जरुरतुं छे के, देवद्रव्य रक्षण करवू ते मुख्यत्वे करीने श्रीमंतोनी फरज छे. सबबके पुन्य प्राप्ति थवा माटे ज्ञान प्राप्त करवु अर्थात् विद्या भणवी, सामायक पोसहादि धर्मानुष्ठान करवा, छह अहमादि तपस्या करवी विगेरे जे जे कारणो शास्त्रकारे बतावेलां छे तेमांनां श्रीमंतोथी घणां थोडां बने छे, माटे श्रीमंतोने अपार पुण्यनी प्राप्ति करी लेवानुं ते मुख्य साधन छे. ___ आ उपरथी गरीबावस्थावालाए एम चिंतवq जोइतुं नथी के ज्यारे देवद्रव्यना रक्षण- काम श्रीमंतोनुं छे, त्यारे आपणे ते काममा चित्त शा माटे आपवू जोइए ? एवो विचार करवो ज घटित नथी; कारणके पूर्व लखायेला श्रीसंबोधसित्तरीना पाठमा सबै श्रावकोनी फरज छे एम बतावेलं छे. आ लेखनी पुष्टि माटे बीजा पण दृष्टांतनी जरुर जणातां तेवा त्रण चार दृष्टांतो आ नीचे आपवामां आव्यां छे. श्रीउपदेशप्रासाद ग्रंथना व्याख्यान १९३मामां चैत्यद्रव्यना संबंधमां नीचे प्रमाणे लखे छे.
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________________ (25) "अक्षतादि देवद्रव्यनुं भक्षण करवाथी प्राणी दोषने पामे छे तेथी अत्यंत यत्नवडे विवेकी जनोए देवद्रव्यनी रक्षा करवी." आ विषय उपर शुभंकर श्रेष्टीनुं दृष्टांत छे ते आ प्रमाणे शुभंकर श्रेष्टीनी कथा. कांचनपुर नगरमां शुभंकर नामे धनाढ्य श्रेष्टी रहेतो हतो. ते नित्य जिनपूजा तथा जिनवंदन करतो हतो. एकदा जिनेश्वरनी प्रतिमाने नमस्कार करीने आगळ उभो हतो, ते अवसरे कोइ देवताए थोडाक ज वखत अगाउ प्रभु पासे पुष्कळ दिव्य तंदुळनी त्रण ढगलीओ करी हती, ते तेनी दृष्टिए पडी. रांधला नहीं छतां पण अत्यंत सुगंधवाळा ते अक्षतो जोइने जीव्हाना आस्वादने वश थयेला ते श्रेष्ठीए तेनाथी त्रण गुणा चोखा पोताने घेरथी मंगावी त्यां मूकीने ते तंदुळ ग्रहण कया. पछी पोताने घेर आवी चोखानी क्षीर रंधावी तेनी सुगंध चारे बाजुए विस्तार पामी. हवे ते श्रेष्ठीने घेर मासक्षपणने पारणे कोइ सुविहित मुनि भिक्षाने अर्थ पधार्या. श्रेष्ठीए पेली क्षीरमांथी थोडी तेमने यहोरावी. मुंनि परमार्थने नहीं जाणता सता ते आहार झोळीमां मूकीने आगळ चाल्या. ते मुनि 47 दोषरहित शुद्ध आहारना लेनारा होवाथी शुद्ध देहवाळा हता, छतां अयोग्य आहार लेवाथी तेना मंघमात्रना महिमावडे तेना मनमा अयोग्य विचारोए प्रवेश कर्यो. मुनि विचारवा लाग्या के-" अहो! आ धनाढ्य श्रेष्ठीना अवतारने
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________________ धन्य छे. अमारा करता तेनो मनुष्यभव सफळ छे के जे नित्य स्वेच्छाए यथेष्ट एवा मनोहर अशननुं आस्वादन करे छे." आ प्रमाणे अयोग्य आहारथी गंधमात्रथी तेनुं चारित्र संबंधी ध्यान नष्ट पाम्युं. पछी ते मुनि एवो विचार करता करतां उपाश्रये आव्या. त्यां आवीने विचारवा लाग्या के-' गुरु समक्ष गोचरी बतावीने आहार संबंधी आलोचना करवानुं शुं काम छे ? कारणके आजे आहार बहु सुंदर मळेलो छे, तेथी कदी स्वादना लोभथी गुरु पोतेज ते लइने खाइ जाय तो पछी हुं धुं करूं ? माटे आजे तो तेमने बताववाथी सर्यु." आम विचारीने शिघ्र ते मुनि लावेल आहार खावा बेसी गया. खातां खातां विचारवा लाग्या के" अहो ! केवो मजानो स्वाद छे.? आवं स्वादिष्ट भोजन देवने पण दुर्लभ छे. आजेज मने तो आ मनुष्यजन्म पाम्यानुं सार प्राप्त थयुं. आज सुधी फोगट में आ देहर्नु दमन कयु अने तेने कुश करी नांख्यु. आवो आहार जेने नित्य प्राप्त थाय तेनो जन्म ज सफळ छे. " आ प्रमाणे विचार करता करता आहार करीने ते मुनि सुखे सुइ गया. तरतज निद्रा आवी गइ. आवश्यकादि क्रिया समये पण ते उठ्या नहीं. एटले आचार्य विचारवा लाग्या के-" निरंतर सुविनित एवो आ साधु आजे प्रमादी थइ गयो तेनुं कारण जरुर तेणे काइ अशुद्ध आहार करेलो. होवो जाइए, माटे तेणे आजे शुं आहार को छे तेनी तजवीज करवी." एम विचार करतां ते रात्रि तो व्यतीत थइ गइ. आहो ! केवो मजान मने तो आदेहन दमन
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________________ (27 बीजे दिवसे सवारे पेला शेठ प्रातःकाळमाज आचार्यने वांदवा आव्या. पेला मुनिने त्यां सुधी सुइ गयेला देखी तेमणे तेनुं कारण आचार्यने पूछयु. गुरुए कह्यु के 'काले आहार करीने सुतेल छे ते उठाड्या छतां हजु सुधी उठ्या नथी.' ते सांभळीने शेठ बोल्या के-" हे पूज्य ! काले आहार तो ए मुनिए मारे घेरथीज लीधो हतो." गुरुए पूछयु के-" तमे सर्व दोष रहित आहारवडे प्रतिलाभ्या हता के नहीं ? " शेठ बोल्या के-" दोष तो में कांइ जाणेलो नथी, पण अहीं जिनमंदिरमा कोइए सुगंधी चोखा मूकेला हता, ते त्रण गणा चोखा मूकीने काले में लीधा हता, अने तेनी क्षीर रांधी हती, तेमांथी ए साधुने वहोरावी हती." आ प्रमाणे भद्रकपणाथी शेठे सर्व वात गुरुमहाराजने कही बतावी. ते सांभळीने गुरु बोल्या के-" हे श्रेष्ठी ! तने एम करवू योग्य . नहोतुं. जैनसिद्धांतमां कहेलुं छे के, जिनप्रवचननी वृद्धि करनार अने ज्ञान दर्शन गुणनी प्रभावना करनार एवा देवद्रव्यनुं भक्षण करवाथी प्राणी अनंतसंसारी थाय छे, अने तेवाज देवद्रव्यर्नु रक्षण करवाथी परित्त संसारी थाय छे. वळी हे श्रावक ! सांभळ ! कोइक नगरमा एक धनाढ्य शेठ रहेतो हतो, ते पाडोशमा रहेता नटने पीडा करतो हतो. तेथी ते नटे विचार्यु के, आ शेठ जेम मारा जेवो थाय तेम करूं तो ठीक. अन्यदा ते शेउनुं घर नवु चणातुं देखीने तेणे कोइ देरासरनो इंटनो ककडो लावीने प्रच्छन्न रीते 1 अल्प. 2 गुप्त.
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________________ (28) तेनी भीतमां चणी दीघो. अनुक्रमे ते घरमा रहेवाथी ते श्रेष्ठी निर्धन थइ गयो. एक दिवस पेला दरिद्री नटे ते शेठने कह्यु के, मारी विडंबना कर्यानुं फळ ते हवे दीर्छ ! आ बधुं मारुं कृत्यज जाणजे. पछी ते शेठे ते नटने मीठे वचने संतोष पमाडीने तेणे जे कयु हतुं ते पूछी लीधुं, अने तेणे बतावेले ठेकाणेथी पेलो इंटनो ककडो भीत खोदीने कढावी नांख्यो. तेना प्रायश्चित्तमां ते शेठे एक नवु चैत्य कराव्युं. त्यारपछी ते शेठ सुखी थयो. माटे हे शेठ ! ते ते चोखा लीधा अने खाधा तेश्री तने महा पाप लाग्यु छे. ते सांभळीने भय पामेलो ते शेठ बोल्यो के-हे पूज्य ! मने पण गइ काले बहु द्रव्यनी हानी थइ छे. मरि बोल्या के-हे श्रेष्ठी ! तारु बाह्य धन गयुं अने मुनिनुं अंतरधन विनाश पाम्युं. माटे हवे तेना प्रायश्चित्तमां तारे हमणां तारा घरमां विद्यमान होय तेटला द्रव्यवडे चैत्य करावq युक्त छे. श्रेष्टीए तेमज कयु. पछी आचार्य पेला मुनिने रेचक,पाचक औषध आपीने तेना कोगनी शुद्धि करावी, अने ते आहारवाडं पात्र गोमय अने रक्षानो लेप करी त्रण दिवस सुधी तडके मूकी राख्यु, पछी ते ग्रहण योग्य थयु. पेला साधुए ते पापने तपवडे आलोची शुद्ध संयमना प्रतिपालनवडे पोताना आत्माने शुद्ध कर्यो, अने पछी आत्मसाधन करवा लाग्या. 1 जाणतां अजाणतां करेला अपराधनी शुद्धि माटे: प्राप्त पुरुषे बतावेलो उपाय. 2 ज्ञान दर्शन चारित्रादि.
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________________ (26) कर्तुं छे केश्राद्धो भोगाथ देवखं, मुक्तवा मूल्यं समाधिकम् // नाददेन्नैव दातव्यं, श्राद्धानां च परस्परम् // 1 // ___ " श्रावक देवने चडेली वस्तु, समान मूल्य मूकीने अथवा अधिक मूल्य मूकीने पण पोताना भोगने अर्थ ग्रहण करे नहीं तेमज बीजा श्रावकने परस्पर आपे पण नहीं." इति शुभंकरश्रेष्ठीनी कथा. ज्ञानद्रव्य अने साधारणद्रव्यनो विनाश करनाराने माटे पण नीचे जणावेली कर्मसार अने पुण्यसारनी कथा वाचवा योग्य छे ते नीचे प्रमाणे. कर्मसार अने पुण्यसारनी कथा. .. भोगपुर नामना नगरमां चोवीश कोटी सुवर्णनो स्वामी धनावह नामे श्रेष्ठी हतो. तेने धनवती नामे पत्नी हती. तेओने कर्मसार अने पुण्यसार नामे युगल पुत्र थया. ते ज्यारे आठ वर्षना थया त्यारे तेमने कोइ विद्वान् उपाध्यायनी पासे अभ्यास करवा मूक्या. पुण्यसारे सुखे सुखे सर्व विद्यान अध्ययन कयु, अने कर्मसारे घणो प्रयास को तथापि तेने एक अक्षर पण आवड्यो नहीं, तो वांचवा लखवानी तो वात ज शी करवी. ते पशु * साथे जन्मेल.
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________________ (30) जेवो होवाथी अध्यापके पण तेने भणाववो छोडी दीघो. अनुक्रमे ते बने यौवन वयने प्राप्त थया एटले माता पिता समृद्धिथी मुलभ एवा मोटा धनाढ्यनी बे कन्याओ महोत्सव साथे तेमने परणावी. पछी तेओ परस्पर कलह करे नहीं एटला माटे तेमने बार बार कोटी द्रव्य वडेंची आपीने जूदा काँ. पछी माता पिता दीक्षा लइने स्वर्ग गया. .. हवे कर्मसार स्वजनवर्गना वार्या छतां पण कुबुद्धिथी एवो व्यापार करवा लाग्यो के, जेथी तेना द्रव्यनी हानी थवा लागी. थोडा दिवसमां तो तेणे पिता आपेलं बारकोटी द्रव्य गुमावी दीg, अने पुण्यसार- बारकोटी द्रव्य चोरो खातर पाडीने लइ गया. अवी रीते वंने भाइ दरिद्री थइ गया. तेथी स्वजनोए तेमनो त्याग कर्यो, अने तेमनी स्त्रीओ पण पोतपोताना पीयर चाली गइ. तथा 'आ बने बुद्धि रहित अने निर्भागी छे / अम कंहीने लोको तेमर्नु अपमान करवा लाग्या, अटले तेो लज्जा पामीने देशांतर चाल्या गया. __ त्यां बने जुदा जुदा धनाढ्यने घेर रह्या, अने बीजो ऊपाय न सूजवाथी सेवकवृत्तिथी वर्तवा लाग्या. जे धनाढ्यने घेर कर्मसार रह्यो हतो, ते शेठ घणा कृपण होवाथी तेनी ठरावेलो पगार पण आपतो नहीं अने वारंवार तेने छेतरतो हतो. अथी घगा दिवस थया पण कर्मसारे काइ द्रव्य मेळव्यु नहीं. बीजा गृह
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________________ स्थने घेर रहेला पुण्यसारे कांइ द्रव्य मेळव्युं, पण प्रयत्नथी तेने गोपवी राख्या छतां कोइ धूर्त ते लइ लीधुं. कर्मसारे अवी रीते जूदा जूदा स्थानोमां नोकरी करी. सुवर्ण बनाववाने धातुर्वाद, द्रव्यना खाण शोधवाने खनिवाद, सिद्ध रसायण प्रयोग, रोहणगिरिए गमन, मंत्र साधन अने रुदती विगेरे औषधिनुं ग्रहण इत्यादि मोटा मोटा आरंभ अग्यार वार कर्या, पण कुबुद्धिथी अने न्याय विपरीत चालवाथी तेणे कोइ ठेकाणेथी द्रव्य उपार्जन कयु नहीं, पण उलटां ते ते ठेकाणे दुःखो सहन कयो. पुण्यसारे अग्यार वखत द्रव्य उपार्जन कयु पण प्रमाद विगैरेथी ते पाछु गुमावी दीधुं. आथी तेओ बने ऊद्वेग पामी वहाणमांबेसीने रत्नद्वीपे गया. त्या प्रत्ययवाळी ते द्वीपनी अधिष्ठायिका देवीनी आगळ मृत्युने पण कबुल करीने ते बने वेठा. आठमे उपवासे 'तमारा भाग्यमां कांइ नथी' एम जणावी देवी अंतर्धान थइ गइ. तेथी कर्मसार तो ऊठी गयो. पुण्यसारे दृढताथी बेसी एकवीश ऊपवास को. एटले देवीएं आवी चिंतामणि रत्न आप्यु. ते जोइ कर्मसार पश्चात्ताप करवा लाग्यो एटले पुण्यसारे कयुं के, बंधु ! खेद कर नहीं आ चिंतामणीरत्नथी तारुं चिंतित पण सिद्ध थशे. पछी बने भाइ प्रसन्न थइने वहाणमां बेठा. रात्रे पूर्णिमाना चंद्रनो ऊदय थतां वृद्ध बंधुए कह्यु, भ्राता ! चिंतामणीरत्न बहार तो काढो, आपणे जोइए . . . 1 परतावाळी अर्थात् इच्छा पूरनारी. 2 क्यां तो द्रव्य मळे, नहीं तो मुख्या भुख्या भले मरण थाय.
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________________ (32) तो खरा के, तेनुं तेज अधिक छे के चंद्रनुं ? पछी लघु पुण्यसार जे वहाणना तट उपर बेठो हतो तेणे दुर्दैवथी प्रेराइने रत्न हाथमां लीधुं, अने क्षणवार रत्न उपर अने क्षणुवार चंद्र उपर दृष्टि करवा लाग्यो. एम करता करता तेना हाथमाथी ते रत्न तेना मनोरथनी साथे समुद्रमां पडी गयु. जेथी बने जणा समान रीते दुःखी थइ गया. पछी पोताना नगरमां आवी कोइ ज्ञानी गुरुने पोतानो पूर्वभव पूछयो. ज्ञानी.बोल्या-"पूर्वभवे तमे चंद्रपुर नगरमां जिनदत्त अने जिनदास नामे वे परम आहेत् (श्रावक) श्रेष्टी हता. एक वखते ते नगरना श्रावकोए मळीने ते बंने श्रेष्टीने उत्तम धारी ज्ञान द्रव्य अने साधारण द्रव्य रक्षण करवाने सोंप्युं. एक वखते एवं बन्यु के जिनदत्त श्रेष्टीए पोताना चोपडामां बराबर तपासीने पोतानुं नामुं लखनारनो' मासिक पगार चडेलो तेनो निर्णय कर्यो, पण पोतानी पासे बीजुं द्रव्य न होवाथी 'आ पण ज्ञानवें स्थान छे' एवं विचारीने ते लेखकने पगारना चडेला बार द्राम ज्ञानद्रव्यमाथी आप्या. बीजो श्रेष्टी जिनदास जे साधारण द्रव्यनी व्यवस्था करतो हतो, तेणे एक वखते 'साधारण द्रव्य सात क्षेत्रने योग्य होवाथी श्रावकोने पण योग्य छ,' एम विचारी पोताना घरना जरुरी काममां बीजा.द्रव्यना अभावथी ते साधारण द्रव्यमांथी बार द्राम वापयर्या. अनुक्रमे ते बने श्रेष्टी मृत्यु पामी दुःकर्मवडे प्रथम नरके गया. ते पछी देवद्रव्यने भक्षण करनारा सागरश्रेष्टीनी जेम सर्व नरकमां अने एकेन्द्रिय, दींद्रिय, त्रींद्रिय,
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________________ चतुरिंद्रिय अने पंचेंद्रिय तिर्यंचमां बार हजार वार घणुं दुःख भोगवी दुष्कर्मनो क्षय करता करतां आ भवमा तमे बने मनुष्य थयेला छो. शेष रहेला पूर्वकर्मना योगथी आ भवमां पण तमे बार बार कोटी द्रव्य गुमाव्युं छे." आवा ज्ञानीनां वचन सांभळी बनेए श्रावकधर्म स्वीकार्यों अने तेना प्रायश्चितमा एको नियम लीघो के, “हवे ज्यांसुधी व्यापार विशेषमा हजारगणा बार द्राम जेटल्लं द्रव्य उपार्जन थाय त्यांसुधी ते सर्व ज्ञानद्रव्य अने साधारण द्रव्यमांज अर्पण करवं. त्यारपछी जे उत्पन्न याय तज द्रव्य पोतानुं करवू.' आवा नियमवडे तेओने पूर्वकर्मना थयेला क्षययी धननी वृद्धि थवा लागी एटले. तेमांथी बने स्थानमा सहस्रगणुं द्रव्य जे आपवानुं धायें हतुं ते बनेए अर्पण कर्यु. पछी अनुक्रमे ते बार. बार कोटी द्रव्यना स्वामी थया. अने मोटा धनाढ्य थइ उत्तम श्रावकपणाथी ज्ञानद्रव्य अने साधारण द्रव्यनी रक्षा अने तेनी वृद्धि विगेरेथी श्रावकधर्मने आराधी दीक्षा लइने तेओ सिद्धिपदने प्राप्त थया. . इति कर्मसार पुण्यसारनी कथा. .देवद्रव्यना संबंधां वरुणदेवनी कथा पग उपयोगी जणावाथी आ नीचे आपी छ. वरूणदेवनी कथा. मणिमंदिर नामना पुरन विषे समृद्धिवंत अने कीर्तिनी इ
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________________ (34) छावालो एक वरुणदेव नामे दुष्ट चित्तवालो कृपण श्रेष्ठी रहेतो हतो. तेने रतितिलका नामनी श्राद्धधर्मसंपन्न सौभाग्यवती भार्या हती. ते नगरमां जिनेश्वरना स्नानादिक महोत्सवो वारंवार यता ते समये सर्व श्रावको मळीने देवपूजा माटे, चैत्य माटे, ज्ञान माटे तथा सात क्षेत्रना व्यय विमेरे कार्यों माटे टीप करीने द्रव्य एकटुं करता हता. वरुणदेव पण 'हु सर्वमा मुख्य छु' एम पोताना मनमां मानीने शुभ परिणाम रहित छतां पण जिनालयमां जतो, साधुओने वांदतो, प्रायः निरंतर धर्मोपदेश सांभळतो, स्मादिक महोत्सवो करावतो, अ संघना सर्व कार्योमां भाग लेतो हतो. एक समये देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य अने साधारणद्रव्यनी टीप थती हती, ते वखते वरुणदेवे विचार्यु के-" आ दीपमा मारे प्रथम लखावq जोइए" एम धारीने पोते पोतानुं नाम प्रथम लखाव्यु. पछी ते द्रव्य आपती वखते बीजा श्रावकोए बहु वखत माग्युं, तोपण कृपणपणाथी आप्यु नहीं. बहुवार उघराणी यतां थोडं आप्यु. तेथी बीजाओ वधारे वधारे उघराणी करवा लाग्या. एटले तेमने ममें वचन बोली गाळो आपवा लाग्यो. एक दिवस तेनी स्त्रीए तेने कह्यु के-" हे स्वामिन् ! अंगीकार करेलुं देवद्रव्य केम आपता नी ?" ते बोल्यो के-“हे पिये! अति कष्टथी उपार्जन करेलुं द्रव्य केम आपी शहाय ?" रतितिलका बोलि-"ज्यारे एम हतुं तो प्रथमथी आपधा माटे अंगीकार करवू नहीं एन श्रेष्ठ छे, परंतु अंगीकार करीने पछीथी
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________________ (35) आपवू नहीं ए सत्पुरुषने उचित नथी. शाखमां कडं छे के-- लज्जोवरोहओ वा पडिवजेउ न देइ देवधणं / जो सो तिरियनरएसु दुकलखाई पावेइ // 1 // भावार्थः-लज्जाथी के कोइना आग्रहथी पण अंगीकार करेलु देवद्रव्य जे माणस आपतो नथी, ते तिर्यंच तथा नरकने विषे लाखो दुःख पामे छे." आ प्रमाणे सांभळीने वरुणदेव बोल्यो के-" हे मिये ! में देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य के साधारणद्रव्य काइ पण ग्रहण कर्यै नथी, तेम खाधुं पण नथी, परंतु अग्रेसर थइने प्रथम नाम भराववाथी तथा बीजाओने प्रेरणा करवाथी उलटी देवादिद्रव्यंनी वृद्धि करी छे. वळी धर्मकार्यमां कांइ पण जोरावरी होती नथी. केमके जे. टलो भार वहन करी शकाय, तेटलाज भारतुं भाडं मळे छे. तेवी ज रीते में जेटलुं द्रव्य आप्युं छे, तेटलं ज मने पुण्य मळशे. वळी जीर्णोद्धार, स्नात्रउत्सव विगेरे धर्मकार्यों में घणां का छेकरं छु, अने करीश पण खरो, तेथी देवद्रव्य पाप दूर थशे. तेवा पापनी शी बीक राखवी ? " ते सांभळी रतितिलका बोली के" हे प्रियतम ! मासखमण, पक्षखमण तीर्थयात्रा, चैत्यागर्माण, महादान, अने शीलादिक अनेक पुण्यकर्म कयों होय, पण देवद्रव्यनी एक इंटनो हजारमो भाग आपवो रही गयो होय, तो काजळयी चित्रनी जेम ते सर्व करेला पुण्यकर्म निष्फळ थाय छे."
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________________ (36) त्यारे ते बोल्यो के, हे पिये ! जो तुं देवद्रव्य नहि आपवाथी आटलो भय बतावे छे, तो तुंन तारा अलंकारो वेचीने ते द्रव्य केम आपती नथी ? तुं पण घरनी स्वामिनी छे." रातितिलका बोली के-" हे प्राणनाथ ! ते द्रव्य हुं आपीश. परंतु तमे देवामाथी शी रीते छुटशो ? बीजाए करेलु कर्मफळ बीजाने मळी शकतुं नथी." इत्यादि घणे प्रकारे तेने समजाव्यो तोपण तेणे संपूर्ण देवद्रव्य आप्यु नही. तेथी रतितिलकाए पोताना आमरण वेचीने पोताना स्वामीनुं बाकी रहेलं सर्व देवं आप्युं. त्यारपछी काळे करीने वरुणदेव देवद्रव्यनो देवादार रहेवाथी मरीने पहेली नरके गयो. - त्यांची नीकळीने तिर्यंचगतिमा गयो. एम नरक तथा तिर्यचमा सात सातवार जइने असंख्याता भव सुधी संसारमा भटक्यो. दरेक स्थाने क्षुधा, तृषा, शस्त्र, अग्नि अने जळादिकनी महा व्यथा भोगवीने मरण पाम्यो. त्यारपछी कांइक पापकर्म ओर्छ थवाथी पुष्करवरद्वीपमां जिनेश्वर नामना नगरना राना नरपाळनो सिंहकेतु नामे पुत्र ययो. त पुत्र युवावस्था पामतां ज ज्वर, भगंदर, जळोदर विगेरे महा व्याधि भोथी पीडावा लाग्यो. तेवी नरकथी पण अधिक वेदना तेने साठ हजार वर्ष सुधी रही. पछी रोग रहित थयो. अनुक्रमे ते राजा थयो. त्यांथी मरीने नरक अने तियेच ए बे गतिमा घणा भव भटकयो."
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________________ __ (37) - त्यां दरेक भवे शस्त्रादिकनी पीडा पामी छेवट सुवर्णपुरमां नरकचुड मंत्रीनी सौभाग्यसुंदरी नामनी भार्यानी कुक्षिमा पुत्री रुपे उत्पन्न थयो. ते महा वेदनाओ सहन करतो बार वर्ष सुधी गर्भमां ज रह्यो. त्यारपछा महा कष्टे जन्म पाम्यो. ते पुत्रीनुं नाम तारुण्यतिलका राख्यु. ते पुत्री युवावस्था पामतां ते ज गामना मनोनंदन मंत्रीना पुत्र मदनावह साथे परणावी. पण मदनावहने तेणीनी साथे प्रीति बंधाइ नहीं. पछी केटलेक काळे मदनवाह ते स्त्रीनो त्याग करीने त्यांथी नाशी गयो. तारुण्यतिलकाए तेनी घणी शोध करी, पण पत्तो लाग्यो नहि. एटले ते तेना पिताने घेर दुःखी अवस्थामां रही. एक दिवस त्यां श्री तीर्थकर महाराज समवसर्या, तेने वांदवा माटे तारुण्यतिलका पोतानी माता साथे गइ. त्या धर्मदेशना सांभळीने पछी सौभाग्यसुंदरीए पूछयु " हे भगवन् ! आ मारी पुत्रीए अन्य जन्मने विषे | पाप कर्यु छ ? के जेथी आ प्रमाणे दुःख पामे छे." भगवान् बोल्या के--" आ दुःख तो कांई पण नथी परंतु पूर्व देवद्रव्यर्नु देवू नहीं आपवाना पापथी घणा भवोमा असह्य दुःखो सहन कयों छे. तेनो संपूर्ण हेवाल कहेवाने सर्वज्ञ पण समर्थ नथी." एम कहीने भगवाने वरुणदेवना भवथी मांडीने सर्व वृत्तांत कह्यो. पीं कधु के-" वरुणदेवनी भायर्याए पोताना पतिनुं देवं आभरण वेचीने आप्युं ते पुण्यथी देवलोकमां उत्पन्न थइ. त्यांथी मनुष्यभव पामी. एवी रीते देवलोक तथा मनुष्य भवमां सत्तर वार
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________________ (38) उत्पन्न थइने अति सुख भोगवी छेवट आ भवे तुं सौभाग्यसुंदरी थइ छे अने वरुणदेवनो जीव तारी पुत्रीरुपे थयो छे. " ते सांभळीने सौभाग्यसुंदरीने जातिस्मरण ज्ञान थयुं तेथी तीर्थंकर प्रत्ये बोली के-" हे भगवन् ! आपनुं कहेवू सत्य छे, मने जातिस्मरण थयुं छे, तेथी मने पूर्ण श्रद्धा थइ छे; आ मारी पापी पुत्री तीर्थकरना वचनपर पण श्रद्धा राखती नथी, तेथी तेने जातिस्मरण थयुं नहीं. परंतु हे भगवन् ! आ मारी पुत्री क्यारे मोक्ष पामशे ?" भगवान बोल्या के-" अहींथी भर्ताना वियोगे करीने दुःखी अवस्थाए ज मरण पामीने तिर्यंच योनिमा उत्पन्न थशे. त्यार पछी असंख्य सागरोपम कोटाकोटी प्रमाण काळ गया पछी महाविदेह क्षेत्रमा मनुष्यपणुं पामीने जिनधर्म अंगीकार करशे. त्यांथी देवलोकमां जइने मनुष्यभव पामशे. त्यां केवळी थइने सभामा पोतानां वरुणदेवथी आरंभीने सर्व भवो कही घणा लोकने प्रतिबोध पमाडीने सिद्धिपदने पामशे." ___आ प्रमाणे भगवानना मुखथी सांभळीने सौभाग्यसुंदरी दीक्षा ग्रहण करी शिवमुख पामी. माटे हे भव्य प्राणीओ ! देवादी द्रव्यं न आपवाथी केवां दुःख अने आपवाथी केवां सुख प्राप्त छे ते जाणीने धर्मकार्यमा प्रमाद रहित थइ देवादिद्रव्यनी वृद्धि करवी. इति वरुणदेव कथा समाप्त
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________________ (36) उपर प्रमाणे शुभंकर श्रेष्टी, कर्मसार पुण्यसारखें ने वरुण देषनुं तेमज प्रथम आवी गयेल महेंद्रपुरना श्रावक, ऋषभदत्तनुं अने सागरश्रेष्टि- ए द्रष्टांतो उपरथी देवद्रव्यादिना रक्षणमां यथाशक्ति अवश्य उद्यमवंत थq. तेना विनाशनी उपेक्षा न करवी अने यथाशक्ति तेनी वृद्धि पण अवश्य करवी. आटलो आ आखा लेखनो सार छे. तेने हृदयमां धारण करीने जे सुज्ञ श्रावको ते प्रमाणे वर्चशे तेना आत्मानुं कल्याण थशे. तथास्तु. प्रांत मुनिराजनी फरज आ संबंधमां शुं छे ते जणाववा माटे के बोल कहेवानी जरुर जणाय छे. ज्यांना श्रावको देवद्रव्यना दोषथी दुषित होय , देवद्रव्यना देवामां डुबी गया होय अथवा अन्यधर्मी के स्वधर्मी देवद्रव्यनो विनाश करतो होय तेनी उपेक्षा करता होय, सगावहालाना के ओळखाण पीछाणना संबंधथी अथवा बीजा कोइ जातना स्वार्थथी कही शकता न होय अने देवद्रव्य विनाश पामतुं होय त्यां मुनिराजनी पण फरज छे के तेमणे देवद्रव्यना विनाशंनी उपेक्षा न करवी अने दरेक प्रकारना योग्य प्रयत्नो वडे देवद्रव्य एकत्र करावी तेना रक्षणना उपायो योजी देवा. जो मुनि पण आ फरज बजावता नथी तो ते उपेक्षा करवाना दोषना भागी थाय छे. इत्यलम् विस्तरेण.
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________________ (40) सात प्रकारनी शुद्धि साचववानी जरुर. ... * अंग वमन मन भूमिका, पूजोपगरण सार; ... न्याय द्रव्य विधि शुद्धता, शुद्धि, सात प्रकार. ... 1 अंग शुद्धि, 2 वस्त्र शुद्धि, 3 चित्त शुद्धि, 4 भूमिकाशुद्धि, 5 पूजा उपगरण शुद्धि, 6 द्रव्यशुद्धि अने 7 विधि विधान शुद्धि ए सात प्रकारमा शुद्धि आत्मार्थी जनोए पचित्र यात्रा प्रसंगे.पण अवश्य आचरवा योग्य छे. कहयुं छे के " साते शुद्धि समाचरी, करीये नित्य प्रमाण" मतलब के उक्त साते शुदिनु यथायोग्य सेवन करीनेज श्री तीर्थराजने प्रतिदिन प्रमाण करवो घटे छे...... . .. , .. प्रथम अंगशुद्धि-संसारीक कार्यमां रच्यापच्या रहेनार मलीनारंभी गृहस्थ जनोए परमपूज्य श्रीतीर्थपतिनी पूजा सेवामा प्रवर्तता देह शुद्धि विवेक पूर्वक करवी युक्त छे. श्रीमान् हरिभद्र सरिवरे अष्टकमां कह्युज छे के " प्रायः जळ व्यतिरिक्त जीवोनी विराधना न थाय तेम जयणा सहित देवाधिदेव तीर्थकर भगवान्नी तेमज निस्पृही मुनिजनोनी सेवाभाक्त करवा निमित्ते गृहस्थ जनोने द्रव्य स्नान करवानी अनुमति छे. अने तेम करतां गृहस्थ जनानो उद्देश उच्च होवाथी से तेमने पापबंधभणी नहिं, परंतु पुण्यपुष्टि निमित्ते थाय छे. सामान्य रीते तो शास्त्रमा कंइक उष्ण जळ वडेज शरीरशुद्धि करवा सूचव्युं छे. परंतु तीर्थजळ प्रस्तावे उष्ग जळनोज
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________________ (41) आग्रह घटतो नथी; स्वभाविक तीर्थजळनां रजकणोनोन विशेष महिमा ठेकाणे ठेकाणे शास्त्रमा तेमज लोकमां पण प्रसिद्ध छे. तेवां प्रभाविक तीर्थजळोने तपावी-उष्ण करी के करावीने तेवडे स्नान करवानी रुढि सुखशीलपणानेज पुष्टि आपनारी जणाय छे; ते बाबत पुरतो विचार करी हितकर मार्गज आदरवो युक्त छे. पवित्र जळथी देह शुद्धि थया बाद भींजेला मलीन वस्त्रथी शरीरने लूंछवाथी पुनः अंग अशुद्ध जाय छे, माटे तेवे प्रसंगे अलायदा शुद्ध वस्त्रनोज उपयोग करवो घटित छे. बनता सुधी स्नान करती वखत पहेरवानुं वस्त्र पण मेलं-दुर्गधीवाळु नहि वापरतां ते पण अलायदुंज राखवू जोइए. एम करवाथी शरीर- आरोग्य पण सचवाइ शके छे. तेवे प्रसंगे नाहक अन्य एकेन्द्रिय प्रमुख जीवोनी विराधना थवा न पामे तेवी सावचेती राखवानी पण जरुरीयात छे. जळने सारी रीते गाळ्या बादज वपराशमा लेवाथी तेमन सूकी अने निर्जीव भूमिर्नु यथायोग्य शोधन करीने स्नान करवाथी तेवी जीवयतना सुखे पळी शके छे. प्रभुाज्ञामांन धर्म रहेलो होवाथी अने आज्ञा विरुद्ध करेली के करवामां आवती धर्मकरणी निष्फळप्रायः थती होवाथी सद्गृहस्थोए जीव जयणा माटे अवश्य काळजी राखवी घटे छे. अने एमज वर्ततां अनुक्रमे आत्मकल्याण साधी शकाय छे. माटे विवेकथी शरीरशुद्धि करवी घटे छे. वळी वायुप्रकोप, विशूचिका (अजीर्ण) प्रमुख रोग पेदा न थाय अने शरीर समधात बन्युं रहे तेवो शुद्ध सात्विक खोराक मितसर ले
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________________ (42) वाथीज स्वधर्म-कर्म सुखे साधी शकाय छे अने एथी उलटा चालवाथी शरीरनी अस्वस्थता थइ जतां धर्मकरणी करवामां अंतराय पडे छे अने वखते देव गुरुनी के तीर्थनी सेवा भक्ति करखा जतां आशातना लागवानो पण प्रसंग आवी पडे छे, ते माटे जेम शरीर शुद्धि सारी रीते जळवाइ रहे तेम वखतोवखत खानपानादिक प्रसंगे पण बहुज काळजी राखवानी जरुर छे. एम कस्वाथी स्वहित साधनमां अधिक सरलता थइ शकशे. वळी वस्त्र संबंधी शुद्धि राखवानी पण जरुर छे. बीजी वस्त्र शुद्धि-उत्तम देव गुरुर्नु पूजन-अर्चन करवा प्रसंगे तेमज पवित्र तीर्थराजनी सेवा भक्तिना प्रसंगे पण अंग शुद्धिनी पेरे वस्त्र शुद्धिनी तेटलीज जरुर छे. तेवा उत्तम प्रसंगे पहेवा ओढवानां वस्त्र मेला के फाटेलां तूटेलां नहिं राखतां ते सारां साफ करेलां अखंडज राखवां जोइए. अने ते पण देव पूजामां छाजे एवां उमदां राखवां जोइए. . एक शाटक उत्तरासंग-देव गुरुने वंदन करवा जता सांधासुंधी कर्या वगरनुं सलंग अखंड उत्तरासंग राखवानुं गृहस्थ-श्रावकने कहेलं छे तेम अन्य उचित वस्त्र आश्री पण स्वतः समजी लेवानुं छे. जेम शरीर शुद्धियी चित्तनी प्रसन्नता बनी रहे छे, तेम वस्त्र शुद्धिथी पण मन उपर सारी असर थइ शके छ; लेथी तेवी बाबतमा केवळ उपेक्षा के
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________________ (43) खोटी करकसर नहिं करतां पोतपोताना गजा प्रमाणे तेवा उत्तम प्रसंगे तो जरुर वस्त्र शुद्धि माटे पण काळजी राखवी उचितज छे. जेओ साधन संपन्न होय (सारी स्थितिमा होय) तेमणे तो संसारिक कार्यमा वपरातां वस्त्रोथी जूदां जूदां धार्मिक कार्यों माटे खास करीने सारां शुद्ध वस्त्रो अलायदांज राखी ममतारहित तेनो यथायोग्य उपयोग करवोज जोइए. जेओ वस्त्रशुद्धिना नियमनो भंग करो जेवां तेवा मलीन वस्खो वडेज सर्व व्यवहार चलावे छे तेमने तेमनी गंभीर भूलने लीधे शरिरादिकना आरोग्य माटे पण वधारे सहन करवू पडे छे. एम विचारी शाणा माणसो पण वस्त्रशुद्धि माटे पण वधारे काळजी राखे छे. त्रीजी चित्त शुद्धि-प्रबळ राग द्वेष रुप, कषाय, मिथ्यात्व अने अज्ञानता रुप मळने दूर करी देवाथी चित्त शुद्धि थइ शके छे अथवा भय, द्वेष अने खेदरुप दोषने दूर करवाथी पण चित्त शुद्धि थइ शके छे. परिणामनी चंचळता एज भय, सद्गुण के सद्गुणवाळी वस्तु उपर अरुचि आववी ते द्वेष अने कल्याणकारी क्रिया करता थाकी जइए ते खेद; मतलब के जे जे अंतर विकारोवडे चित्तशुद्धि थती अटके छे, ते ते विकारोने विवेकवडे समजी दूर करवाथी चित्त शुद्धि सहेजे संपजे छे. राग देष अने मोह प्रमुख महाविकारोथी सर्वथा मुक्त थयेला वीतराग परमात्माए बतावेलां सघळां आत्मसाधननो मूळ हेतु अंतर शुद्धि करवानो ज छे. ते वात सहु कोइ आत्मार्थी भाइ व्हेनोए खास
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________________ (44) करीने लक्षमा राखवा योग्य छे. जो ए मुद्दानी वात लक्षमा राखी गमे ते आत्मसाधनना मार्गमा यथाशक्ति प्रवते तो तेथी अज्ञान, मिथ्यात्व, कषाय प्रमुख अतंर विकारो उपशम्या वगर रहेता नथी. परंतु उपर जगावेली प्रभुभाज्ञा तरफ दुर्लक्ष राखी, जो आपमतिथी के गतानुगतिकताथी क्रिया करवामां आवे तो तेवी अज्ञान क्रियाथी राग द्वेषादिक अंतर विकारो दूर थवाने बदले उलटा वधवानोज संभव क्यारे रहे छे. जेम लाभनो अर्थी व्यापारी गमे ते व्यापार करतां परिणामे पोताने नुकशान नहिं थतां थोडो घणो पण चोख्खो लाभज थाय तेवोज व्यापार करे छे तेम आत्मार्थी जनोए पण हरेक धर्म करणी करतां पोताना राग द्वेष मोह मिथ्यात्वादिक अंतर विकारो दूर थता जाय अने चित्त शुद्धि प्रमुख उत्तम लाभ मळतो जाय तेवीज रीते प्रवर्तवु उचित छे. कोइ प्रकारे विकारनी वृद्धि तो थवा न ज पामे तेवी पूरती काळजी हरेक प्रसंग राखवी जोइए. . ___चोथी भूमिका शुद्धि-वे प्रकारनी भूमिका शुद्धि कहेवाय छे. एक द्रव्य भूमिकाशुद्धि अने बीजी भाव भूमिकाशुद्धि. देव गुरुने जुहाराव जतां जयणा सहित विधि पूर्वक चैत्यद्वारमा के उपाश्रयमा पेसी दूरथी पण देव गुरुनुं दर्शन थतां ज अंजलिबध नमन करी प्रदक्षिणा दइ नजरे पडती आशातना टाळी देव गुरु सन्मुख अति नम्रपणे आवी पंचांग प्रणाम करती वखते उत्तरासंग प्रमुख वडे यथायोग्य भूमि प्रमार्जन करीनेज शुद्ध देव
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________________ गुरुनी पूजा भक्ति के स्तुति करवी उचित छे. आ प्रमाणे विधि साचववानो हेतु पोतानी भाव भूमिका-हृदयशुद्धि करवी एज छे. पूर्वोक्त भय, द्वेष अने खेद दोषोने दूर करवाथी भाव भूमिकानी शुद्धि थइ शके छे. जेम जिन चैत्यादिक निर्माण करतां भूमिका शुद्धि करवा माटे भूमिमां रहेलां शल्यादिक दूर करी देवामां आवे छे, तेम हृदय भूमिमां रहेलां राग द्वेषादि (कषाय ) शल्य, मिथ्यात्व शल्य, तेमज पूर्वोक्त भयादिक शल्यो अवश्य दूर करवां ज जोइए. त्यारेज यथार्थ अंतर शुद्धि थयेली गणाय छे.. जेम शल्य रहित शुद्ध भूमिका उपर चणावेला प्रासादमां सुखे निवास करी शकाय छे तेम जेमां अंतर शल्य दूर थयां छे एवी हृदय शुद्धिवाला सज्जनो ज सहजानंदयां निमम रही शके छे. खरेखलं सुख हृदय शुद्धिमां ज छे. तेथी जेम सत्वर हृदय शुद्धि थाय तेम पवित्र लक्ष सहितज हरेक प्रसंगे आत्मार्थी जनोए प्रवतवानुं छे. गाडरिया प्रवाहे प्रवर्तवाथी कशुं आत्महित नथी. तेथी जेवी रीते हृदय शुद्धि थवा पामे तेवा अंतर लक्ष-उपयोग सहितज सकळ धर्म करणी करवी हितकर छे. बाकी लोक रंजनार्थ के अंध परंपराए वर्तवामां कई पण अधिक हित नथी ज. .. पांचमी पूजा उपगरण शुद्धि-श्री तीर्थराजने भेटती वखते शुद्ध देवगुरुनी सेवा भक्तिना प्रसंगे जे कई उपगरणो-पूजा सामग्रीनी जरूर पड़े, ते अति उदार दीलथी सारी संभाळपूर्वक उत्तम प्रकारनी मंगलिक द्रव्यो वडे निपजावेल होय तो चित्तनी प्रस
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________________ नता साथे भाव उल्लासना वृद्धि निमित्ते बने छे. पूर्व महा पुरुपोए प्रभु भक्ति. प्रसंगे जे मर्यादा अंकित करेली छे तेने अनुसरी यथाशक्ति. प्रमाद रहित आपणे पण आत्म कल्याणार्थे लाभ लेवो उचित छ... ..... स्वस्व शक्ति-साधन प्रमाणे अनेक प्रकारे प्रभु पूजा थई शके छे, तेमां अष्ट प्रकारी पूजा प्रतिदिन लक्ष पूर्वक करवा दरेक श्रद्धालु भाई बहेनोए उजमाळ रहेवू जोईए.. अष्टप्रकारी पूजा जेम अंतर लक्ष सहित करवामां आवे तेमज अधिक आत्महित रुप होवाथी ते बाबत अत्र प्रसंगोपात संक्षेपथी ब्यान करीए छीए.. . 1 जळपूजा-शुद्ध करेलां पवित्र कुंभादिकमां जयणा सहित गाळीने आणेला तीर्थनकादिकवडे स्नात्र अभिषेक (प्रक्षालन ) करतां हृदयमां भावq के प्रभु अभिषेकना प्रभावे अमारा अनादि कर्म-कश्मल दूर थई जाय. शुचि-पवित्र जळयी जयणासहित स्नान करी इन्द्रनी पेरे उत्तम वस्त्रालंकार धारण करी निर्मळ नीरनी धाराथी अंतर लक्षपूर्वक श्री जिनेश्वर प्रभुने न्हवरावतां उत्तम भावना योगे पोतेज पोताना आत्माने कर्म मळ र. हित करी शके छे... .. प्रभुने अभिषेक करी रह्या बाद घणांज सुंबाळां बारीक बस्त्री प्रभुना पवित्र गात्रने आदर सहिन लुंछी लेवु, त्यारपछी
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________________ (47) अनुक्रमे उत्तम चंदनादिकवडे पूजा करवी उचित छे.. ... 2 चंदन पूजा-पभुना आखा अंगे उत्तम चंदन प्रमुख शीतळ पदार्थो एकठा मेळवी विलेपन कर, जोईए. आजकाल केटलाक मुग्ध भाई व्हेनो उपर मुजब अंग विलेपन करवू मुकी दइ प्रभुना अंगे पुष्कळ केशर चढावे छे. जो के चोख्खु केशर मळे तो ते बडे प्रभुना अंगे तिलक प्रमुख करवा निषेध नथी परंतु खास करीने चंदननोज मोटो भाग वापरवानो छे. अंतर लक्षथी चंदन प्रमुखना शीतल रसवडे प्रभुने विलेपन करतां भाविक आत्मा पोतानेज कषाय तापथी मुक्त करी शीतळ करी शके छे. प्रभुना आलंवनथी पोतेज शीतळ बने छे एटले राग द्वेष रुप कषाय तापयी मुकाई शांत थाय छे. 3 कुसुम (पुष्प ) पूना-उत्तम प्रकारनां तानां खुशबोदार खोलेला अखंड फुलोवडे प्रभु पूजा करनार प्रभुना आलंबने चितनी प्रसन्नता प्राप्त करी शके छे. काची कळीओ के नहिं उघडेलां तेमन वासी अने जीवाकुल पुष्पो प्रभुने चढावा योग्य नथी. थोडां के घणां उत्तम जातना फुलवडेन प्रभु पूजा करवी उचित छ. शास्त्र नीति अनुसारे फुलने किलामना न उपजे तेम पुष्पमालाओ, पुष्पगृह के पुष्पना पगर भरवादिक बढे पण प्रभु पूजा कराय छे. केटलाक भोग लोको शास्त्र नीतिने बाजु मुकी फुलने सोयथी घोचीने पुष्पमाला तैयार करावी ले
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________________ (48) छे, ते व्याजबी जणातुं नथी. काचा सुतरना दोरा घडे शिथिल गांठ दईने उत्तम सुगंधी पुष्पोनी जे माळा जयणाथी करवामां आवी होय तेवडे प्रभु पूजा करवी उचित गणाय छे. '.. 4 धूप पूजा-उत्तम द्वादशांग, कृष्णागरु, कर्पूर प्रमुख द्रव्योथी, बनावेल धूपनी घटा उवेखतां जेम धूप घटा उंची चढे छे अने दुर्गधने दूर करी सुवासना विस्तारे छे तेम धूप पूजा करनार आत्मा प्रभु आलंबने अनादि मिथ्यात्वरुप कुवासनाने टाळी मुश्रद्धान रुप सुवासनाने विस्तारी उंची गति पामवानो अधिकारी थई शके छे. लघु कल्पमा कयु छे के सामान्य धूप पूजा करवायी पंदर उपवासनुं फळ मळे छे अने उत्तम कर्पूरादिक मिश्र धूप पूजा करवाथी एक मास उपवासनुं फळ मळे छे. तेथी उक्त पूनामां अधिक प्रीति जोडवी उचित छे... ... दीप पूजा--गायना उत्तम सुगंधी घी वडे दीपक पूजा करनार पोतानो अनादि अंधकार दूर करी उत्तम ज्ञान प्रकाश मेळवी शके छे. परंतु ते प्रसंगे दीपकमां पतंगादिक जीवो जंपलाई पडी विनाश न पामे तेवी जयणा खातर फानस विगेरेनो उपयोग राखवो जरुरनो छे. जिन मंदिर प्रमुखमां काई पण दीपक प्रगटावतां जयणाने विसरी जवी जोइए नहि. जेटलं काम जयणा सहित बने तेटलुंज कल्याणकारी छे. हाडी, जुमर विगेरेमां पण दीपको प्रगटी राखता राखतां जरुर जयणा राखंवी जोइए.
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________________ (46) 6 अक्षत-अखंड (अणीशुद्ध) तांदुलवडे आत्माने स्वस्तिकल्याणकारी स्वस्तिक रचनार आत्मा उत्तम भावना योगे रत्नत्रयीरुप प्रभुना मार्गने पामी चार गतिने छेदी, अंते सिद्धि गतिपामी शके छे. स्वस्तिक ( साथिओ) रचतां प्रभु समीपे उपर जणावेलि ज प्रार्थना शुभ भावना सहित करवी जोईए. 7 नैवेद्य-अनादि देहाध्यास ( देह ममता ) योगे जीवने जातजातनां खान पानमा रति लागेली छे तेथी विरक्त थवाने प्रभु समीपे विध विध जातनां पकवान, रसोई ढोकी एवीज प्रभु प्रार्थना करवानी छे के प्रभु ! अनादि पुद्गलानंदीपणुं तजावी अमने अणाहारी पद प्राप्त करावो. 8 फळ-सरस उत्तम जातिनां विध विध फळ प्रभु पासे ढोकी एवी प्रार्थना करवानी छे के हे जगदीश ! आप अमारां अनादि जन्म जरा मरण संबंधी अनंतां दुःख निवारी अमने अक्षय मुखमय मोक्ष सुखनी बक्षीस आपो ! आवी रीते संक्षेपथी हेतु सहित समजावेली अष्ट प्रकारी पूजा हरेक श्रद्धालु भाई ब्हेनोए प्रतिदिन करवा नियम करवो जोईए. उक्त द्रव्य पूजा का बाद चैत्यवंदन प्रमुख वडे प्रभुना गुणग्राम करी आत्माने तल्लीन करवो युक्त छे. .. छठी द्रव्य शुद्धि-प्रभु पूजादिक निमित्ते जोईतां बधां पूजोपमरण न्याय युक्त द्रव्यथी मेळववा प्रयत्न करवो जोईए. म
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________________ तलब के श्रद्धावंत गृहस्थे प्रथम तो अनीति के अन्यायनो मार्ग तजी नीतिन्यायना धोरणनेज अवलंबी रहे, जोईए. नीतियी व्यापारादिक करतां द्रव्य न मळे एकी मान्यता केवळ मुर्खाइ भरेलीज जाणवी. शास्त्रकार तो द्रव्य उपार्जन माटे खरो उपायज नीतिनो बतावे छे, नीतिथी द्रव्य मळे छे एटलंज नहि पण मकेलं द्रव्य सुखे भोगवी शकाय छे अने स्थिर टकी रहेवाथी वंश परंपरा सुधी चाल्या करे छे. वळी नीतिना द्रव्ययी सबुद्धि सुजे छे, तेनो सद्व्यय थाय छे अने परिणामे ते महा लाभदायी नीवडे छे. वळी अनीतिना मार्ग उपार्जेला धनना भोगक्टाथी बुद्धि बगडे छे, ते भोगवतां कइक विघ्नो आवे छे, अने थोडा वखतमां तेनो नाश पण थई जाय छे. सळेला धान्यनी पेरे अनीनिनुं द्रव्य फळदायी थई शकतुं नथी. तेथीन ज्ञानी पुरुषो पोकारी पोकारी नीतिनोज मार्ग आदरवा आग्रह करे छे. ते मार्गे चालनार प्रभुनी आज्ञानुं पालन करनार लेखाय छे अने ते सद्गतिनो भागी थइ अते परम पद-मोक्ष सुखनो भोक्ता थइ शके छे. सातमी यथायोग्य विधि शुद्धि-तीर्थ यात्रा करवा जतां आपणा आत्मानुं एकांत हित सधाय तेवी रीत जयणा सहित जाQ. मार्गमा कोइ प्रकारनी विकथा करवी नहिं. कोइ साथे क्लेशमा उतरवु नहि. कोइने अप्रिय लागे अने अहितरुप थाय तेवू
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________________ (51) वचन नज कहे. शांत वृत्तिथी चित्तमां शुभ भावना भाववां भावतां अळवाणां ( उघाडे) पगे संभाळ राखी राखीने चालवू. विना कारण कोइने बोजारुप न था. पवित्र तीर्थराजनो योग पामी सुखशीलपणुं ओर्छ करवू. पोताना मन वचन कायाने बनी शके तेटलां नियममा राखवा. कोइना वचन उपर खीजवाइ जइ पोताना मननी शांति खोइ देवी नहि. एवी रीते काळजी राखीने विधि सहित तीर्थ स्पर्शना करवी. तेवा प्रसंगे कृपणादिक दोषो दूर करी उदार वृत्ति आचरवी. तीर्थपति श्रीअरिहंत महाराजने भेटी भाव सहित, चढता परिणामे प्रभुनी पूना अर्चा (सेवा-भक्ति ) करवी. आपणी समज प्रमाणे प्रभुनी स्तुति करवी. सामान्य रीते सघळां चैत्यो आदरपूर्वक जुहारवां अति नम्रपण प्रभु मुद्राओने निहाळीने नमन करतां जq. अने विशिष्ट स्थळोए स्थिरताथी चैत्यवंदन प्रमुख करवा पण लक्ष राखq. प्रदक्षिणा देतां क्यांय कोइ प्रकारनी आशातना थती के थयेली नजरे पडे तो ते निवारवा-दूर करवा खास चीवट राखवी. पोताना. . थी जे थइ नज शके एवं होय ते करवा अन्य योग्य जनने भ. लामण करी देवी. पण तेवी बाबतमा छक उपेक्षा तो नज करवी आशातना टालवी ते पण भक्तिर्नुन अंग गणाय छे. मार्गमा चा. लतां के तीर्थ उपर चढतां प्रभु आज्ञाना खपी, एटले पवित्र शा. . . सन गणी जे कोइ साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका मळे तेमनो उचित्त विनय साचववो. बनी शके तेटली तेमनी सेवा भक्ति
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________________ (52) वडे आराधना करवी, परंतु विराधना तो कदापि पण करवीज़ नहिं. उपर के नीचे जिन चैत्यादिकमां चैत्यवंदन करतां आपणाथी जे ज्ञानादिक गुणमां अधिक होय तेवा वडील जनोनो अधिक विनय साचववो. तेओ चैत्यवंदनादिक करता होय तो आपणे ते नम्र वृत्तिथी श्रवण कर, परंतु तेमनाथी जूदुं करीने सामुं डोळी नांखवु नहिं तेम छतां जूढं करवा जेवोज प्रसंग होय, तोपण एवा मंद स्वरथी करवू के जेथी बीजानी भक्तिमां कोइ पण प्रकारे व्याघात पडे नहिं जिन मंदिरमा पेसता के नीकळतां घंटादिक वगाडतां पण एवो ख्याल अवश्य राखवो. मतलब के जे कंइ करणी आपणे करीये ते एवा अंतर लक्षयी करवी के तेथी आपणुं एकांत हित थवा उपरांत बीजा पण आत्मार्थी जनो तेनुं अनुमोदन तेमज अनुकरण करे. स्थिर चित्तथी करेली धर्म करणी लेखे थाय छे, तेथी आपणी स्थिरता टकी रहे तेवी अने तेटली करणी प्रसन्नचित्तथी करवी. दुनियाना सर्व जीवो साये तेमां पण आपणा साधर्मी भाइओ तथा व्हनो साथे विशेषे करीने मैत्री भाव राखवो. धर्मचूस्त सद्गुणी जनोमां प्रगटी नीकळेला सद्गुणो निहाळी निहाळीने दीलमां बहुज राजी था. तेमनामांथी बनी शके तेटला सद्गुण ग्रहण करीनेज कृतार्थ था. द्वेष इर्षा अदेखाई प्रमुख दुर्गुगोने तो देशवटोज देवो. दोष दृष्टिथी गुण ग्रहण करी शकाताज नथी, परंतु उलटा आपणामां दोपनीज वृद्धि थाय छे. जे बापडा नवीन-शिखाउ होय एटले धर्म अभ्या
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________________ (53) समां पश्चात् होय तेमना उपर अनुकंपा लावी जेम तेओ पण अ. भ्यासमा आगळ वधी आपणी बरोबर थाय तेम इच्छQ अने करवू पण नाहक तेमनी उपेक्षा के अवगणना करवीज नहिं. गमे तेवा पापी तथा देव गुरुना निंदक होय तोपण तेमनी उपर द्वेष करवामां पोताने तेमन तेमने कशो फायदो थतो नथी, तेथी द्वेष तो नज करवो. तेमज तेवा निर्दय प्राणीओ साथे राग पण करवामां कशुं स्वहित के परहित सधातुं नथी तेथी राग पण न करवो. तेमनाथी तो तद्दन उदासीनज रहेg हितकारी छे. उपर संक्षेप मात्रथी कहेली मैत्री, मुदिता, करुणा अने माध्यस्थ्य भावनाथी सदाय आपणा आत्माने सुवासित राखवो. वळी विधिना प्रस्तावे शास्त्रकारे कहेलुं छे के: " दग्ध शून्य ने अविधि दोष, अति प्रवृत्ति जेह, चार दोष छंडी भजो, भक्ति भाव गुण गेह." मतलब के विधि रसिक जनोए दग्धदोष, शुन्यतादोष, अविधिदोष अने अतिप्रवृत्तिदोष; ए चार दोषोने अवश्य तजवा जोइए. उक्त चार दोष रहित देव गुरु के तीर्थ संबंधी.सेवा भक्ति बहु गुणकारी-अत्यंत लाभदायी थई शके छे, माटे ते चारे दोषनुं स्वरुप समजवा अने समजीने निर्दोष करणी करवा प्रयत्न करवो घटे छे. . 1 दग्धदोष-कोइ एक धर्मकरणी करतां बीजी बीजी क
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________________ (54) रणी करवा मन दोराय, मन मुकामे नहि रहेता, चालती क्रियानो लाभ नहि लेतां अन्य अन्य स्थाने भटके, तेथी चालु करणी निष्फळपाय थई जाय. चालु क्रियामां अंगारानी वृष्टिवत् लेखी शकाय. - 2 शून्यतादोष-जे कई धर्मकरणी करवामां आवे ते संमूर्छिमनी परे उपयोग शून्यपणे समज वगर अथवा शब्द, अर्थ के तदुभयना लक्ष वगरज कराय अथवा तो हुं शुं करुं छु ? में शुं कयु ? तमेज हवे मारे शुं करवातुं छे ? तेनुं जेमां कशुंज भान न होय, एवी शून्य करणीथी शो लाभ थई शके ? कशोन नहिं. भाव वगरनी करणीमां शो रस ? 3 अविधि दोष-जे धर्मकरणीनो जेवो क्रम ( मर्यादा) जणावेल होय तेथी विपरीत-उलटपालट आपमतिथी करे के ज्ञा. नीने पूछी यथार्थ समज मेळव्या वगरज जेम फावे तेम गाडरीया प्रवाहे करे या तो अधिक ओछी करे अथवा आगळ पाछळ करे तेथी स्वहित भाग्येज थाव, अविधिथी तो उलटुं अहित पण थाय. - 4 अति प्रवृत्ति दोष-दिगंबरनी पेरे देश, क्राळ, भावने तपास्या वगर गजा उपरांतनी क्रिया करवानो खोटो आग्रह कहो के कदाग्रह करे तेथी पण लाभने बदले हानिज थाय छे. .
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________________ . उक्त चारे दोषोनुं स्वरूप गुरु गम्यथी विशेषे जाणी जेम बने तेम निर्दोष-दोषरहित धर्मकरणी करवा खप करवो जेमज जेओ विधि रसिक होई सेववामां आवती धर्मकरणी- रहस्य गुरुगम्य मेळवी ते प्रमाणे आदर सहित आचरण करता होय तेवा उत्तम पुरुषोनो समागम मेळवी तेमनी शुद्ध निर्दोष धर्म करणी निहाळी पोतानी धर्म करणीमां चलावी लेवाती भुलो सुधारवाना खपी थर्बु बहु जरुरनुं छे. जे भाग्यवंत जनो यथार्थ विधि युक्त धर्मकरणी करे छे, तेओ धन्य कृतपुन्य छे. तेमज जेओ पोते यथाशक्ति निर्दोष धर्म करणी करवा उपरांत अन्य योग्य जनोने तेमां सहाय करे छ, निर्दोष करणीनी अनुमोदना करे छे-तेनी मुक्ति कंठथी प्रशंसा करे छे. यावत् तेनी प्राणांते निंदा तो कदापि करताज नथी, तेओ पण धन्य छे. निर्दोष धर्मकरणीनी तेमज निर्दोष करणी करनारनी निंदा करनारने निकाचित कर्म बंध थाय छे जेथी तेने बहुज संसार परिभ्रमण करवु पडे छे; तेथी तेवी निंदा तो सर्वथा वर्जवा योग्य छे. जेमने शरुआतमां धर्मकरणी करतां सहज स्खलनारुप अ. 'विधि दोष लागे छे, परंतु तेनो यथार्थ विधि जाणवा अने आदरवा से खप करे छे तेओ पण शुभ भावना योगे सारो लाभ मेळवी
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________________ (56) शके छे. जेओ कहे छ के अविधियी करवा करतां नहिज कर सारं, ते तेमनुं कहेवू विपरीत-शास्त्र विरुद्धज छे. आत्मार्थी भाई व्हेनोए प्रमाद तजी विधिना खपी तो थQज जोइए. ( समाप्त. )
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________________ मनु० देवव्यना संबंधमां बीजी सूचनाओ. 1 श्रावके देवद्रव्य अंग उधार के मकान या घरेणा विगेरे उपर गीरो तरीके व्याजे लेवू नहीं. कारणके स्थितिना फेरफारे कदी देवू रही जाय तो पछी संबंधादि कारणथी श्रावकभाइयो कही शके नहीं, मागी शके नहीं अने डुबी जवानो वखत आवे. 2 देरासरमां मुकायेल फळ नैवेद पैकी जे राखी मुकवाथी बगडे नहीं तेवां श्रीफळ, सोपारी, बदाम, पतासां, साकर विगेरे तो वेचवामां आवे छे ने तेनुं उत्पन्न द्रव्यमां जाय छे, परंतु तिथि पर्वादिके या महोत्सवादि प्रसंगे ज्यारे पुष्कळ फळ नैवेद चडाक्वामां आव्यु होय त्यारे गोठी, भोजक, माळी विगेरे जे प्रभुनी भक्तिना करनारा के तेनी सारी संख्या होय तो आपी देवं. नहीं तो योग्य माणसने वेचीने तेर्नु उत्पन्न देवद्रव्यमां नाखवं, श्राम श्राद्धविधिमा लेख छे, परंतु ज्यां शासननी हीलना तेम करवाथी थाय तेम होय त्यां वेचवू नहीं, पण वेचाय तेवू न होवाना कारणथी योग्य अयोग्य जे होय तेने अथवा पोताना वगवाळाने आपq नहीं, विचारपूर्वक योग्य व्यवस्था करवी. 3 चोखाना भंडारनी अंदर चोखा विगेरे थोडा आवेल होय के पधारे आवेल होय पण दर मासे आवश्य भंडार खोली काढी लइ वेचवा विगेरे व्यवस्था करी नाखती, वधारे मुदत राखवाथी घणी वखत अंदर जीवोत्पत्ति थाय छे अने काढतां तेनो विनाश थाय छे, माटे जीव यतना बराबर थाय तेवू लक्ष वहीवटकर्ताओए अवश्य राख.