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________________ (42) वाथीज स्वधर्म-कर्म सुखे साधी शकाय छे अने एथी उलटा चालवाथी शरीरनी अस्वस्थता थइ जतां धर्मकरणी करवामां अंतराय पडे छे अने वखते देव गुरुनी के तीर्थनी सेवा भक्ति करखा जतां आशातना लागवानो पण प्रसंग आवी पडे छे, ते माटे जेम शरीर शुद्धि सारी रीते जळवाइ रहे तेम वखतोवखत खानपानादिक प्रसंगे पण बहुज काळजी राखवानी जरुर छे. एम कस्वाथी स्वहित साधनमां अधिक सरलता थइ शकशे. वळी वस्त्र संबंधी शुद्धि राखवानी पण जरुर छे. बीजी वस्त्र शुद्धि-उत्तम देव गुरुर्नु पूजन-अर्चन करवा प्रसंगे तेमज पवित्र तीर्थराजनी सेवा भक्तिना प्रसंगे पण अंग शुद्धिनी पेरे वस्त्र शुद्धिनी तेटलीज जरुर छे. तेवा उत्तम प्रसंगे पहेवा ओढवानां वस्त्र मेला के फाटेलां तूटेलां नहिं राखतां ते सारां साफ करेलां अखंडज राखवां जोइए. अने ते पण देव पूजामां छाजे एवां उमदां राखवां जोइए. . एक शाटक उत्तरासंग-देव गुरुने वंदन करवा जता सांधासुंधी कर्या वगरनुं सलंग अखंड उत्तरासंग राखवानुं गृहस्थ-श्रावकने कहेलं छे तेम अन्य उचित वस्त्र आश्री पण स्वतः समजी लेवानुं छे. जेम शरीर शुद्धियी चित्तनी प्रसन्नता बनी रहे छे, तेम वस्त्र शुद्धिथी पण मन उपर सारी असर थइ शके छ; लेथी तेवी बाबतमा केवळ उपेक्षा के
SR No.004476
Book TitleDevdravya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Sakarchandji
PublisherMohanlal Sakarchandji
Publication Year1917
Total Pages58
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size5 MB
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