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________________ (36) उपर प्रमाणे शुभंकर श्रेष्टी, कर्मसार पुण्यसारखें ने वरुण देषनुं तेमज प्रथम आवी गयेल महेंद्रपुरना श्रावक, ऋषभदत्तनुं अने सागरश्रेष्टि- ए द्रष्टांतो उपरथी देवद्रव्यादिना रक्षणमां यथाशक्ति अवश्य उद्यमवंत थq. तेना विनाशनी उपेक्षा न करवी अने यथाशक्ति तेनी वृद्धि पण अवश्य करवी. आटलो आ आखा लेखनो सार छे. तेने हृदयमां धारण करीने जे सुज्ञ श्रावको ते प्रमाणे वर्चशे तेना आत्मानुं कल्याण थशे. तथास्तु. प्रांत मुनिराजनी फरज आ संबंधमां शुं छे ते जणाववा माटे के बोल कहेवानी जरुर जणाय छे. ज्यांना श्रावको देवद्रव्यना दोषथी दुषित होय , देवद्रव्यना देवामां डुबी गया होय अथवा अन्यधर्मी के स्वधर्मी देवद्रव्यनो विनाश करतो होय तेनी उपेक्षा करता होय, सगावहालाना के ओळखाण पीछाणना संबंधथी अथवा बीजा कोइ जातना स्वार्थथी कही शकता न होय अने देवद्रव्य विनाश पामतुं होय त्यां मुनिराजनी पण फरज छे के तेमणे देवद्रव्यना विनाशंनी उपेक्षा न करवी अने दरेक प्रकारना योग्य प्रयत्नो वडे देवद्रव्य एकत्र करावी तेना रक्षणना उपायो योजी देवा. जो मुनि पण आ फरज बजावता नथी तो ते उपेक्षा करवाना दोषना भागी थाय छे. इत्यलम् विस्तरेण.
SR No.004476
Book TitleDevdravya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Sakarchandji
PublisherMohanlal Sakarchandji
Publication Year1917
Total Pages58
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size5 MB
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