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________________ (6) ना कळश; रकाबीओ, धूपधाणांओ, वाटकीओ विगेरे मूके छे; आ सपळो सामान ज्यां ज्यां योग्य लागे त्यां त्यां तरतज आपी देवानुं तथा मोकलावी देवानुं शास्त्रकारे कह्या छतां तेमांनो जुन सामान घटित जग्याए आपी बाकीनो शोभीतो अने किंमती सामान पोताना घरमां संघरी राखे छे. अने वखतपर वापरवा काढे छे अथवा वापरवा आपे छे, परंतु ते अयुक्त छे. कारण के तेवी रीते करवाथी वखतनी बारीकाइ अथरा अस्तोदयना चक्रभ्रमणथी ज्यारे पोतानी स्थिति बदलाय छे त्यारे ते सामान खवाइ चवाइ जतो, वेचातो अथवा खेंचाइ जतो जोवामां आवे छे, अने तेथी करीने पुन्य करतां पापनो बंध अधिक थइ पडे छे. शास्त्रकारे जेवो दोष देवद्रव्यने माटे कहेलो छ तेवो ज दोष तेने माटे पण कहेलो छे. 11 केटलाएक श्रीमंत गृहस्थो ज्ञानना भंडारो करीने लाखो रुपिया खरचे छ तेमज प्राचीन काळमां तेवा भंडारो अ. संख्य द्रव्य खरचीने करी नयेला मोजुद छे. आ भंडारो मांहेनां पुस्तको तथा तेना रुमाल पाठां विगेरे उपगरणो मोटा मोटा उपाश्रयमां मूकलां होय छे अने मूकाय छे; काळना दूषणथी तेवा उपाश्रयनी अंदर वास करनारा यतिओ गृहस्थनी जेवा थइ पडवा थी तमाम भंडारने फना करी मूके छे, एटले अयोग्य स्थानके . आपी दे छे, वेची नाखे छे, अव्यवस्थित रहेवाथी बगडी जाय छ, अथवा तो तेवा भंडारोना मालीक पोतेज थइ पडी कोइ पण
SR No.004476
Book TitleDevdravya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Sakarchandji
PublisherMohanlal Sakarchandji
Publication Year1917
Total Pages58
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size5 MB
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