Book Title: Devdravya
Author(s): Mohanlal Sakarchandji
Publisher: Mohanlal Sakarchandji

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Page 39
________________ (38) उत्पन्न थइने अति सुख भोगवी छेवट आ भवे तुं सौभाग्यसुंदरी थइ छे अने वरुणदेवनो जीव तारी पुत्रीरुपे थयो छे. " ते सांभळीने सौभाग्यसुंदरीने जातिस्मरण ज्ञान थयुं तेथी तीर्थंकर प्रत्ये बोली के-" हे भगवन् ! आपनुं कहेवू सत्य छे, मने जातिस्मरण थयुं छे, तेथी मने पूर्ण श्रद्धा थइ छे; आ मारी पापी पुत्री तीर्थकरना वचनपर पण श्रद्धा राखती नथी, तेथी तेने जातिस्मरण थयुं नहीं. परंतु हे भगवन् ! आ मारी पुत्री क्यारे मोक्ष पामशे ?" भगवान बोल्या के-" अहींथी भर्ताना वियोगे करीने दुःखी अवस्थाए ज मरण पामीने तिर्यंच योनिमा उत्पन्न थशे. त्यार पछी असंख्य सागरोपम कोटाकोटी प्रमाण काळ गया पछी महाविदेह क्षेत्रमा मनुष्यपणुं पामीने जिनधर्म अंगीकार करशे. त्यांथी देवलोकमां जइने मनुष्यभव पामशे. त्यां केवळी थइने सभामा पोतानां वरुणदेवथी आरंभीने सर्व भवो कही घणा लोकने प्रतिबोध पमाडीने सिद्धिपदने पामशे." ___आ प्रमाणे भगवानना मुखथी सांभळीने सौभाग्यसुंदरी दीक्षा ग्रहण करी शिवमुख पामी. माटे हे भव्य प्राणीओ ! देवादी द्रव्यं न आपवाथी केवां दुःख अने आपवाथी केवां सुख प्राप्त छे ते जाणीने धर्मकार्यमा प्रमाद रहित थइ देवादिद्रव्यनी वृद्धि करवी. इति वरुणदेव कथा समाप्त

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