Book Title: Devdravya
Author(s): Mohanlal Sakarchandji
Publisher: Mohanlal Sakarchandji

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Page 51
________________ तलब के श्रद्धावंत गृहस्थे प्रथम तो अनीति के अन्यायनो मार्ग तजी नीतिन्यायना धोरणनेज अवलंबी रहे, जोईए. नीतियी व्यापारादिक करतां द्रव्य न मळे एकी मान्यता केवळ मुर्खाइ भरेलीज जाणवी. शास्त्रकार तो द्रव्य उपार्जन माटे खरो उपायज नीतिनो बतावे छे, नीतिथी द्रव्य मळे छे एटलंज नहि पण मकेलं द्रव्य सुखे भोगवी शकाय छे अने स्थिर टकी रहेवाथी वंश परंपरा सुधी चाल्या करे छे. वळी नीतिना द्रव्ययी सबुद्धि सुजे छे, तेनो सद्व्यय थाय छे अने परिणामे ते महा लाभदायी नीवडे छे. वळी अनीतिना मार्ग उपार्जेला धनना भोगक्टाथी बुद्धि बगडे छे, ते भोगवतां कइक विघ्नो आवे छे, अने थोडा वखतमां तेनो नाश पण थई जाय छे. सळेला धान्यनी पेरे अनीनिनुं द्रव्य फळदायी थई शकतुं नथी. तेथीन ज्ञानी पुरुषो पोकारी पोकारी नीतिनोज मार्ग आदरवा आग्रह करे छे. ते मार्गे चालनार प्रभुनी आज्ञानुं पालन करनार लेखाय छे अने ते सद्गतिनो भागी थइ अते परम पद-मोक्ष सुखनो भोक्ता थइ शके छे. सातमी यथायोग्य विधि शुद्धि-तीर्थ यात्रा करवा जतां आपणा आत्मानुं एकांत हित सधाय तेवी रीत जयणा सहित जाQ. मार्गमा कोइ प्रकारनी विकथा करवी नहिं. कोइ साथे क्लेशमा उतरवु नहि. कोइने अप्रिय लागे अने अहितरुप थाय तेवू

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