Book Title: Devdravya
Author(s): Mohanlal Sakarchandji
Publisher: Mohanlal Sakarchandji

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Page 34
________________ चतुरिंद्रिय अने पंचेंद्रिय तिर्यंचमां बार हजार वार घणुं दुःख भोगवी दुष्कर्मनो क्षय करता करतां आ भवमा तमे बने मनुष्य थयेला छो. शेष रहेला पूर्वकर्मना योगथी आ भवमां पण तमे बार बार कोटी द्रव्य गुमाव्युं छे." आवा ज्ञानीनां वचन सांभळी बनेए श्रावकधर्म स्वीकार्यों अने तेना प्रायश्चितमा एको नियम लीघो के, “हवे ज्यांसुधी व्यापार विशेषमा हजारगणा बार द्राम जेटल्लं द्रव्य उपार्जन थाय त्यांसुधी ते सर्व ज्ञानद्रव्य अने साधारण द्रव्यमांज अर्पण करवं. त्यारपछी जे उत्पन्न याय तज द्रव्य पोतानुं करवू.' आवा नियमवडे तेओने पूर्वकर्मना थयेला क्षययी धननी वृद्धि थवा लागी एटले. तेमांथी बने स्थानमा सहस्रगणुं द्रव्य जे आपवानुं धायें हतुं ते बनेए अर्पण कर्यु. पछी अनुक्रमे ते बार. बार कोटी द्रव्यना स्वामी थया. अने मोटा धनाढ्य थइ उत्तम श्रावकपणाथी ज्ञानद्रव्य अने साधारण द्रव्यनी रक्षा अने तेनी वृद्धि विगेरेथी श्रावकधर्मने आराधी दीक्षा लइने तेओ सिद्धिपदने प्राप्त थया. . इति कर्मसार पुण्यसारनी कथा. .देवद्रव्यना संबंधां वरुणदेवनी कथा पग उपयोगी जणावाथी आ नीचे आपी छ. वरूणदेवनी कथा. मणिमंदिर नामना पुरन विषे समृद्धिवंत अने कीर्तिनी इ

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