Book Title: Devdravya
Author(s): Mohanlal Sakarchandji
Publisher: Mohanlal Sakarchandji

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Page 36
________________ (35) आपवू नहीं ए सत्पुरुषने उचित नथी. शाखमां कडं छे के-- लज्जोवरोहओ वा पडिवजेउ न देइ देवधणं / जो सो तिरियनरएसु दुकलखाई पावेइ // 1 // भावार्थः-लज्जाथी के कोइना आग्रहथी पण अंगीकार करेलु देवद्रव्य जे माणस आपतो नथी, ते तिर्यंच तथा नरकने विषे लाखो दुःख पामे छे." आ प्रमाणे सांभळीने वरुणदेव बोल्यो के-" हे मिये ! में देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य के साधारणद्रव्य काइ पण ग्रहण कर्यै नथी, तेम खाधुं पण नथी, परंतु अग्रेसर थइने प्रथम नाम भराववाथी तथा बीजाओने प्रेरणा करवाथी उलटी देवादिद्रव्यंनी वृद्धि करी छे. वळी धर्मकार्यमां कांइ पण जोरावरी होती नथी. केमके जे. टलो भार वहन करी शकाय, तेटलाज भारतुं भाडं मळे छे. तेवी ज रीते में जेटलुं द्रव्य आप्युं छे, तेटलं ज मने पुण्य मळशे. वळी जीर्णोद्धार, स्नात्रउत्सव विगेरे धर्मकार्यों में घणां का छेकरं छु, अने करीश पण खरो, तेथी देवद्रव्य पाप दूर थशे. तेवा पापनी शी बीक राखवी ? " ते सांभळी रतितिलका बोली के" हे प्रियतम ! मासखमण, पक्षखमण तीर्थयात्रा, चैत्यागर्माण, महादान, अने शीलादिक अनेक पुण्यकर्म कयों होय, पण देवद्रव्यनी एक इंटनो हजारमो भाग आपवो रही गयो होय, तो काजळयी चित्रनी जेम ते सर्व करेला पुण्यकर्म निष्फळ थाय छे."

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