Book Title: Devdravya
Author(s): Mohanlal Sakarchandji
Publisher: Mohanlal Sakarchandji

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Page 17
________________ कर्म तथा आत्मदोषनो त्याग थाय छे अने पोताना नियमोनो निवाह, अपूर्व गुणनी वृद्धि अने विशेष धर्मर्नु उपार्जन विगेरे उत्तम गुणोनो स्थिरवास थाय छे.. . चैत्यद्रव्यनो नाश करनारने अनंत संसार भटकवू पडे छे. तेनुं मूळ कारण तेना सम्यक्त्वरूपी अमूल्य रत्ननो नाश थाय छे ते छे. आ बाबत श्रीसंबोधसित्तरी प्रकरणमांज कयुं छे के: चेइअदव्वविणासे रिसीघाए पव्वयणस्स उड्डाहे। संजइ चउथ्थभंगे, मूलग्गी बोहीलाभस्स // अर्थ-चैत्यद्रव्यनो विनाश करवाथी, मुनि महाराजानो घात करवाथी, साशंननी उड्डाह करवाथी अने साध्वीना चतुर्थ व्रतनो भंग करवाथी बोधिबीज जे सम्यक्त्व तेना मूळने विष अग्नि लागी जाय छे. एटले अनिए करीने दग्ध थरलं वृक्ष जेम नवपल्लव थतुं नथी तेम चैत्यद्रव्यनो नाश करनारना समकित रूपी वृक्षनु मूळ आग्गिए करी दग्ध थइ जाय छ ते फरीने अंकुर धारण करतुं नथी एटले समकितनी प्राप्ति थती नथी. समकित शिवाय व्रतनी प्राप्ति थती नथी अने व्रत शिवाय मोक्षनी प्राप्ति थती नथी, एज कारणथी तेने संसारमा अनंतो काळ पर्यट्टण करवू पडे छे. आवी रीते सर्वे सुकार्योनो नाश फक्त एक देवद्व्यनो नाश करवाथी थाय छे.

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