Book Title: Devdravya
Author(s): Mohanlal Sakarchandji
Publisher: Mohanlal Sakarchandji

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Page 22
________________ (2.1) तत्राप्यस्य महाफलेन पतता भग्नं सशब्दं शिरः, प्रायो गच्छति यत्र दैवहतकस्तत्रैव यांत्यापदः // 1 // अर्थ-दिवसेश्वर जे सूर्य तेना तापे करीने संतापित थयेलो एवो कोइ उघाडा मस्तकवाळो पुरूष तडका विनानुं स्थान वांछतो छतो भाग्यना वशे करीनेबीलाना झाड नीचेगयो. त्यां पण ते झाडनुं फळ मस्तक उपर पडयुं जेथी माथु फुटी गयु. माटे एमज समजवू के पाये भाग्यहीन पुरुष ज्यां जाय त्यां आपदा आवीने पडे छे. . अपुनीआने पाळ बहार काळ्या पछी तेना भाग्यहीनपणाथी 999 वार अन्य अन्य स्थानकने विषे चोरनो, जळनो, अग्निनो, स्वचक्रनो, परचक्रनो ए विगेरे अनेक उपद्रवो थया अने दरेक स्थानकथी ते भ्रष्ट थयो. तेथी छेवटे ममतां भमतां एक मोटी अटवीने विषे सेलक नामे यक्षना देरा पासे आव्यो. त्यां आवीने एकाग्र चित्ते पोताना दुःखनु निवेदन करतो छतो एकवीश उपवास करतो हवो, एकवीशमे उपवासे यक्ष तुष्टमान थइने बोल्यो के ' हे पुरुष ! संध्याकाळने विषे मारी समीपे सुवर्णना हजार पीछाए अलंकृत एवो मोटो मोर आवीने नृत्य करशे, दररोज तेनुं सुवर्णमय एक पीछं पडशे ते तारे ग्रहण कर.' ए प्रमाणे कहीने यक्ष अदृश्य थयो. .. यक्षना कहेवा प्रमाणे दररोज अकेक पछि ग्रहण करतां * करतां अनुक्रमे नवशे पीछां तेने मळ्यां. बाकी सो पीछां रह्यां

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