Book Title: Dashvaikalikam
Author(s): Kanchanvijay, Kshemankarsagar
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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सुमति
साधु श्रीदशवै० अ०९,
विनीतस्य पूजाईत्वम् गा.४५१४५३
मानार्हान-मानयोग्यान तपस्वी सन् , जितेन्द्रियः सत्यरत इति प्राधान्यख्यापनार्थ विशेषणद्वयं, स पूज्य | इति ॥ ४५१॥ तथा-तेसिं गुरूणंति, तेषां गुरूणामनन्तरोदितानां गुणसागराणां-गुणसमुद्राणां सम्बन्धीनि श्रुत्वा मेधावी सुभाषितानि-परलोकोपकारकाणि चरति-आचरति मुनि:-साधुः पश्चरता-पञ्चमहाव्रतसक्तः त्रिगुप्तोमनोगुप्त्यादिमान चतुष्कषायापगत इत्यपगतक्रोधादिकषायो यः स पूज्य इति ।। ४५२ ।। प्रस्तुतफलाभिधानेनोपसंहरबाह-गुरुन्ति, गुरुमाचार्यादिरूपमिह-मनुष्यलोके सततं-अनवरतं परिचर्य-विधिनाऽऽराध्य मुनि:-साधु, किंविशिष्टो मुनिरित्याह-जिनवचन(मत)निपुणः-आगमे प्रवीणः, अभिगमकुशलो-लोकप्राघूर्णकादिप्रतिपत्तिदक्षः, स एवंभूतो विधूय रजोमलं पुराकृतं क्षपयित्वाऽष्टप्रकार कर्मेति भावः, किमित्याह-भास्वरां ज्ञानतेजोमयत्वादतुलांअनन्यसदृशीं गति-सिद्धिरूपां बजतीति-गच्छति, तदा जन्मान्तरेण वा सुकुलप्रत्यागमनप्रत्ययोत्पादादिना प्रकारेण ॥ ४५३ ॥ ब्रवीमीति पूर्ववत् ।।
इति विनयसमाधावुक्तस्तृतीय उद्देशकः ९-३॥
॥१८॥
सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहिं भगवंतेहि, चत्वारि विणयसमाहिट्ठाणा पन्नत्ता। कयरे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं चत्तारि विणयसमाहिट्ठाणा पन्नत्ता ?, इमे
N॥१८॥
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