Book Title: Dashvaikalikam
Author(s): Kanchanvijay, Kshemankarsagar
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

View full book text
Previous | Next

Page 237
________________ सुमति साधु० शीलस्य श्रीदशवै. दोषाः गा. ४९२| ४९५ ॥२०५॥ निरओवमं जाणिअ दुक्खमुत्तम, रमिज तम्हा परिआइ पंडिए ॥ ४९२ ॥ धम्माउ भटुं सिरिओ अवेयं, जन्नग्गिविज्झामिवऽप्पतेअं। हीलंति णं दुविहिअं कुसीला, दाढड्डिअं घोरविसं व नागं ॥ ४९३ ।। इहेवऽधम्मो अयसो अकित्ती, दुन्नामधिजं च पिहजणमि । चुअस्स धम्माउ अहम्मसेविणो, संभिन्नवित्तस्स य हिट्ठओ गई ॥ ४९४ ॥ भुजित्तु भोगाइं पसज्झचेअसा, तहाविहं कटु असंजमं बहुं। गई च गच्छे अणभिज्झि दुहं, बोही असे नो सुलहा पुणो पुणो ॥ ४९५॥ कश्चित् सचेतनो नर एवं च परितप्यत इत्याह-अज्जत्ति, अद्य तावदह-अद्य-अस्मिन् दिवसेऽहमित्यात्मनिर्देशे, गणी स्यां-आचार्यों भवेयं, भावितात्मा-प्रशस्तआगम(योग)भावनाभिः, बहुश्रुत-उभयलोकहितबह्वागमयुक्तः, यदि किं स्वादित्याह-यदि अहमरमिष्यं-रतिमकरिष्य, पर्याये-प्रव्रज्यारूपे, सोऽनेकमेद इत्याह-श्रामण्ये-श्रमणानां सम्बन्धिनि, सोऽपि शाक्यादिभेदभिन्न इत्याह-जिनदेशिते-निर्ग्रन्थसम्बन्धिनीति ॥४९०॥ अवधानोत्प्रेक्षिणः स्थिरीकरणार्थमाह-देवलोकसमाणोति, देवलोकसमानस्तु-देवलोकसदृश एवं पर्याय:-प्रव्रज्यारूपो महर्षीणां १८ K ॥२०५॥ Jan Education Intem For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276