Book Title: Dashvaikalikam
Author(s): Kanchanvijay, Kshemankarsagar
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 217
________________ सुमति साघु० श्रीदशवे० अ० ९, उ० ४ ॥१८५॥ Jain Education International चिरन्तनं कर्म, नवं च न वनात्येवं युक्तः सदा तपःसमाधाविति ॥ ४५७ ॥ चउब्विहा खलु आयारसमाही भवइ, तंजहा - नो इहलोगट्टयाए आयारमहिट्टेजा १, नो परलोगट्टयाए आयारमहिद्वेज्जा २, नो कित्तिवण्णसहसिलोगट्टयाए आयारमहिद्वेज्जा ३, नन्नत्थ आरहंतेहिं हेऊहिं आयारमहिना ४, चउत्थं पयं भवइ । सू० २० । भवइ य एत्थ सिलोगोजिणवयणरए अतितिणे, पडिपुन्नाययमाययट्ठिए । आयारसमाहिसंवुडे, भवइ य दंते भावसंघए ॥ ४५८ ॥ अभिगम चउरो समाहिओ, सुविसुद्ध सुसमाहियप्पओ । विउलहियं सुहावहं पुणो, कुवइ असो पयखेममप्पणो ॥ ४५९ ॥ जाइ (जरा) मरणाओ मुच्चई, इत्थंथं च चएइ सव्वसो । सिद्धे वा भवइ सासए, देवे वा अप्परए महड्डिए । ४६० ॥ ति बेमि ॥ ९-४ ॥ विणयास माहीणामज्झयणं समत्तं ९ ॥ For Private & Personal Use Only आचार समाधिः सू० २०, गा. ४५८४६० ॥१८५॥ www.jainelibrary.org

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