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पुण्यपत्रीसिका.
जैसे रसव्यञ्जनमें करछी फिर सदीय, मूढतासुभावसों न स्वाद
कछु पायो है ॥ २२ ॥
संया.
चेतन ऐसेमें चैतत क्यों नहि, आय बनी सबही विधि नीकी । है नरदेह यो आरज खंत, जिनंदकी वानी सु वृंद अमीकी ॥ तामे जु आप गहो थिरता तुम, तौ प्रगटै महिमा सब जीकी । जामें निवास महासुखवास गु, आय मिले पतियां शिवतीकी ॥ २३ कवित्त,
श्रीपममें धूप पर तामें भूमि भारी जरे, फूलत हैं आक पुनि अतिही उमहिकं । वर्षाऋतुनेष झरै तामें वृक्ष केई फरै, जरत जवासा अघ आपुहीत उहिकं ॥ ऋतुको न दोष कोऊ पुण्यपाप फले दोऊ, जैसे जैसे किये पूर्व तसे रहें सहिकेँ । केई जीव सुखी होंहि केई जीव दुखी होंहिं, देखहु तमासो 'भैया' न्यारे नेकु रहिकं ॥ २४ ॥
दोहा.
पुण्य ऊर्द्ध गतिको करें, निचे भेद न कोय । तात पुण्यपचीसिका, पढे धर्म फल होय ॥ २५ ॥
सत्रहसे तेतीसके, उत्तम फागुन मास ।
आदिपक्ष नमि भावसों, कहें भगोतीदास ॥ २५ ॥ इति पुण्यपचीसिका समाप्ता ॥ १ ॥
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