Book Title: Bhagwan Mahavir ka Janmasthal Kshatriyakunda
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
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लेखक परिचय कर्मयोगी शास्त्री हीरालाल जी दुग्गड़
मैं जिस व्यक्ति की चर्चा कर रहा हूं वे इस शोधग्रंथ के रचयिता परम आदरणीय शास्त्री जी स्वनामधन्य हीरालाल दुग्गड़ हैं। जन्मसे लेकर अबतक का आपका जीवन एक संघर्षमय जीवन की गाथा है। आपका जन्म पंजाब के गुजरांवाला नगर में जो अब पाकिस्तान में है ई. स. १९०४ में हुआ। आपके पिता चौधरी लाला दीनानाथ जी प्रख्यात समाजसेवक तथा ज्योतिष के अच्छे विद्वान थे। मातृस्नेह से आप सदैव वंचित रहे। जब आप केवल ९ दिन के थे तो आपकी माता सुश्री धनदेवी जी का देहांत हो गया। पश्चात् आपकी सगी मौसी सुश्री माइयांदेवी आपकी दूसरी माता हुई । परन्तु जब आप दसवर्ष के थे तब उनका भी देहांत हो गया। इनकी मृत्यु के बाद आप माता के प्यार से सदैव केलिये वंचित हो गए। ई.स. १९७५ में आपके पिता जी का तीसरा विवाह हुआ ।
१६ वर्ष की आयु में मैट्रिक पास करके आप अपने पिताजी के साथ धातु के बरतनों का व्यवसाय करने लगे। परन्तु आपके मनपर आपके पितामह सर्वश्री मथुरादास जी के बड़े भाई शास्त्री कर्मचंद जी और अपने पिता श्री दीनानाथ जी के संस्कार थे। आपके मन में धर्म के प्रति जिज्ञासा थी । व्यवसाय में आपका मन न लगा । अतः आपने गुजरांवाला में आचार्य श्री मद्विजयवल्लभ सूरीश्वर जी महाराज द्वारा स्थापित श्री आत्मानन्द जैनगुरुकुल पंजाब के कालेज सेक्शन (साहित्यमंदिर) में प्रवेश लेलिया । पांच वर्षों में जैनन्याय, दर्शनशास्त्र, काव्य, साहित्य, व्याकरण, प्रकरण एवं आगम आदि एवं प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी, बंगाली, गुजराती, पंजाबी, उर्दू, अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं का अभ्यास कर गुरुकुल की स्नातक परीक्षा अच्छे अंकों में उत्तीर्ण की और "विद्याभूषण" की उपाधि से विभूषित हुए। उससमय जब कि मैट्रिक तक की शिक्षा ही पर्याप्त समझी जाती थी आपने उच्चशिक्षा प्राप्तकर समाज को एक नई दिशा दी। इसके एक वर्ष पश्चात् आपने संस्कृत एसोसिएशन कलकत्ता यूनिवर्सिटी रेकोगनाईज्ड की संस्कृत में जैनन्याय, तर्क- दर्शन - शास्त्र में "न्यायतीर्थ" परीक्षा उत्तीर्ण की। दूसरे वर्ष गायकवाड़ सरकार द्वारा स्थापित सेंट्रल लायब्रेरी बड़ौदा से "लायब्रेरी केटेलागिंग तथा कार्ड एकार्डर" की सनद प्राप्त की ।
अगले ही वर्ष अजमेर में व्याख्यान प्रातियोगिता में बैठे। उसमें उत्तम प्रकार से सफलता प्राप्त करने पर भारतवर्ष विद्वद् परिषद अजमेर ने आपको "व्याख्यान दिवाकर" की उपाधि से अलंकृत किया। सन् १९३५ में आपने अजमेर - निवासी नरोतीलाल पल्लिवाल दिगम्बर जैनधर्मानुयायी द्वारा पूछे गये श्री श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन धर्म के विरुद्ध ४० प्रश्नों का समाधान अजमेर से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक पत्र "जैन ध्वज" में प्रकाशित करवाकर संचोटू युक्तिपुरस्सर ऐतिहासिक, तार्किक एवं भारतीय वाङ्मय के आधार से किया। जो छः मास में समाप्त हुआ। इससे आपकी विद्वता से प्रभावित होकर अयोध्या-संस्कृत कार्यालय के मनीषिमंडल ने जिसमें हिन्दू धर्मानुयायी जगद्गुरु आदि भी सम्मिलित थे आप श्री को "न्यायमनीची" पदवी से सम्मानित किया।
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