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(८) वहां जाकर सर्पके अनेक आक्रमण के कष्ट सहन कर तीन वख काटने परभी धैर्य रक्खा जिससे सर्पका क्रोष कुछ शान्त हुवा उस समय महावीर प्रभुने उप्त सर्प को समझाया कि हे चन्दकौशिक ! तैने पूर्व में क्रोध करके साधुता के बदले यह पशुत्व पाया है अब सर्प योनिमें क्रोध कर कौन अवस्था पायेगा ? वह यह सुनकर अत्यंन शांत होगया और जाति स्मरण ज्ञान प्रकटहोने से पूर्व जन्मको देखने लगा और क्रोधका भीष्म दुःख फल देख कर हाथ जोड़नेकी योग्यता न होनेसे मस्तक नमाकर शांत पडा रहा वीर प्रभु उसकी अंतिम अवस्था अच्छी रहने के लिये तीन दिन वहां खड़ेरहे क्योंकि सर्पको अधिक कष्ट आने वालेथे
और उस कष्टमें जो क्रोध करता तो फिर दुर्दशा होती और दुर्गति में जाता जब सर्प ने किसीको न काटा तब उसमार्ग से लोग चलने लगे और सर्पका जाति स्वभाव छूट जानेसे लोग उसकी पूजा करने लगे तथा मार्ग में चलने वाली दूध वाली दूध डालती थी घीवाली घी मक्खन वाली मक्खन डालने लगीं उससे अनेक कीडिओं ने वहां आकर घी दूध के साथ उसका कोमल शरीर भी काटना शुरु किया वह वेदना यहां तक बढ़ गई कि उसके संपूर्ण शरीर में छिद्र होगये किंतु जब क्रोध जराभी देखते कि महावीर प्रभु अमृत वचन से उस का क्रोध दूरकर देतेथे तीन दिन के बाद उसने अति कष्ट सहन कर देह त्याग किया और देवलोक में गया ऐसे अनेक दृष्टांत बता कर तथा स्वयं अपना प्राण वियोग होने पर्यंत भी उन्होंने धैर्यता न छोडी न किसी के ऊपर क्रोध किया किन्तु उस दुःख देने वाले को भविष्य में दुष्कृत्य से दुष्ट फल भोगने पड़ेगे यह विचार करने से उनकी