Book Title: Bhadrabahu aur Kalpasutra Sankshipta Jain Itihas
Author(s): Manikmuni
Publisher: Biharilal Girilal Jaini

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Page 12
________________ # ( १० ) दिया तब गुब्बरगांव में गौतम गोत्र वाला एक इन्द्रभूति नामका विद्याविशारद पंडित वैदिक यज्ञ कररहा था जिसके समीप दो भाई और अन्य विद्वान् ब्राह्मण भी थे उस इन्द्रभूति ब्राह्मण को उनके व्याख्यान की लोगों से महिमा सुन कर बड़ा दुःख हुआ और वह यह विचार कर कि मैं चौदह विद्या पारंगामी हूं मेरे सामने यह विना मेरी सेवा के कैसे प्रसिद्धि पाया है, अपने भाइयों को साथ लेकर शीघ्र वाद विवाद करने को चल दिया और उनके पास गया महावीर प्रभुने उतको प्रसन्नमुख होकर बुलाया और वेद मन्त्रों से उसका भ्रम निवारण किया और वह उनके वेद वाक्यों से सन्तुष्ट होकर 'जीव शरीर से भिन्न तथा उस में ही है, यह निश्चय कर पहिला मुख्य शिष्यहुआ तथा उसके साथ के और दर्शा ब्राह्मणों ने भी वह अधिकार सुनकर क्रम क्रम से खाकर अपनी शङ्कायें निवारण कीं और सब महावीर प्रभु के शिष्य होगये । उन वारों को उन्होंने गणधर पदवी दी और उन वारहों के ४४०० चेलों ने भी दीक्षा ली और वे उन्होंने उन गणधरों के ही शिष्य बना दिये उन गणधरों का वर्णन भी कल्पसूत्र में हैं उन्हीं में पाचवें गणधर सुधर्मं स्वामी थे और सब गणधरों का परिवार भी उन को ही प्राप्त हुआ क्योंकि नवगणधर तो महावीर प्रभुके सामने ही मोक्ष को प्राप्त हो गये थे केवल सुधर्म स्वामी ही शेष रहे थे । इन्द्रभूति महावीर प्रभु का निर्वाण ७२ वर्ष की अवस्थामें पावा पुरीमें हुआ है। कार्त्ति की अमावस्या जिसको आजकल दिवाली कहते हैं उसके अगले

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