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भद्रबाहु और कल्पसूत्र _ संक्षिप्त जैन इतिहास
लेखक मुनि माणिक
प्रसिद्ध कर्ता ला. बिहारीलाल गिरिलाल जैनी ।
बिनौली वाले मु० बढौत और बिनौली ज़ि० मेरठ
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- बीर सम्बत् २४४१ १ । चन प्रथमावृत्ति ५०० प्रति सन् १६१५ ।
I Printed by P. Magni Ram atthe Dharma
Press Meerut city
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आवश्यक सूचना
-><विहार के कारण विना फ़र्मा शोधे छप जाने से लगलियां रह गई हैं और गलतियों से अर्थका अनर्थ हो जाता है इस लिये अन्त का शुद्धि पत्र देख कर वाचक ग्रंथ पढ़ें और ग्रन्थ का रास्य समझे। - कन्पसूत्र और भद्रवाहु इतने प्रसिद्ध हैं कि उन की प्रसिद्धि देनी सोने पर गिलेट चढ़ाना है किंतु जैनतत्व से विमुख भ्राताओं के हितार्थ यह ट्रेक्ट निकाला है और आप लोग इसको पढ़ कर स्वयं कल्पसूत्र पढ़ें समय मिलेगा तो भद्रबाहु की जीवनी भी देने में भावेगी किंतु छोटे ट्रेक्ट में वह अभिलाषा पूर्ण नहीं होती इतिहास और मुक्ति पांछक पुरुषों को कल्पसूत्र एक अमृत रस का कूप है उसका सरल हिंदी छपाने के लिये ५०० रुपये की
आवश्यकता है जो कोई महाशय कुछ भी मदद देने को चाहे सो प्रसिद्ध कर्ता को लिखे और काम शुरू करवावें।
मुतिमाणिक
बड़ौत सन् १९१५
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भद्रबाहु और कल्पसूत्र संक्षिप्त जैन इतिहास
-> <जैन लोगों में श्वेताम्बर दिगम्बर दो फ़िरके हैं और वर्तमान समय में राजपूतानां वगैरह देश छोड़ कर प्रायः सब जौन व्यापार में लगे हैं और व्यापार में कुशल होने से धनाढ्य भी हैं और दानवीर होने से प्रायः दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं । सेठ प्रेमचन्द रायचन्द को वलायत वाले भी अच्छीतरह से जानते हैं जिस ने अमरीका की लड़ाई के समय रुई खरीद कर क्रोड़ों रुपये थोड़े समय में प्राप्त किये थे और फिर क्रोड़ों रुपये दान में भी दिये हैं सारे भारत वर्ष में उस की स्कोलरशिप दी जाती हैं तथा उसने धर्मशालायें और स्कूलों के मकान तक बनवाये हैं वे कार्य प्राज इस के मृत्युवश होने पर भी उस यशस्वी की जीवित कीर्ति फैला रहे हैं। ___ वर्तमान काल में राय बद्री दास बहादुर वृद्ध मोजूद हैं जिन्होंने कलकत्ता के एक रमणीय जैन मन्दिर के बनाने में बेशुमार धन लगाया है संमेत शिखर पहाड़ पर पारसनाथ की. टोंक आज भी नई मोजूद है।
तीन सौ वर्ष पहिले प्रताप राणा के दुःख के समय में २५००० आदमी के बारह वर्ष तक युद्ध में पोषण के योग्य धन केक्त अपने पास से देने वाला मामासा जैन ओसवाल आज भी इतिहास में प्रसिद्ध है।
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( २ )
आबू के मन्दिर को बनाने वाले विमलसा सेठ को दुनिया जानती है जिस ने सिर्फ़ आबू के मन्दिर में ही भठारह क्रोड़ रुपये लगाये हैं जिस में स्वर्ण चाँदी जवाहिर बिल्कुल नहीं
लगाया है केवल सङ्गमरमर के पाषाण में वारीक नकशी का बढ़िया काम है दुनिया भर में प्रथम नंबर की एक ही इमारत भारतवर्ष की शोभा बता रही है जिस को बने लग भग १००० बर्ष हुवे हैं । जैनिओं के तीर्थ प्रायः सब पहाड़ पर हैं जहां लाखों यात्री कार्त्तिकी और चैत्री पूर्णिमा पर इकट्ठे होते हैं भारतवर्ष में सब पहाड़ पर जैनिओं के नामांकित मंदिर हैं कितनेक पहाड़ आज भी जैनियों के अधिकार में हैं जहां जाने के लिये जैनिभों की आज्ञा लेनी पड़ती है अकबर बादशाह ने सब धर्मों के गुरुओं को बुलाकर योग्य प्रश्न उनके धर्म के विषय में पूछ संतुष्ट होकर इनाम और जागीरें दी हैं ऐसे ही जैनियों के धर्मगुरु हीरविजय सूरिका गुजरात खंबात से बुलाकर जैनधर्म के तत्वों को पूछकर संतुष्ट होकर जागीर देने लगा किन्तु जैनसाधु पैसे किंवा स्त्री से विरक्त होते हैं इस लिये जागीर किंवा द्रव्य नहीं लिया बादशाह की बहुत प्रार्थना होने पर पवित्र दिनों में जीवहिंसा बंद करादी थी और जैन तीर्थों की जगायें जैन संघको दिलवादीं और नियम करा दियो कि वहां जाकर कोई भी जैनेतर किंवा बादशाही लशकर जैनधर्म विरुद्ध कृत्य न करे ।
आज जैनियों की संख्या प्रायः तेरह लाख के भीतर है और उन में श्व ेताम्बर दिगम्बर दोनो अपनी उन्नति के लिये योग्य उपाय ले रहे हैं उस श्वेताम्बर आम्नाय में भद्रबाहु और
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कल्पसूत्र प्रसिद्ध हैं जैनियों की ऐतिहासिक स्थिति जानने को मागधी भाषा का यह ग्रन्थ प्रसिद्ध है अंग्रेज़ी में और हिन्दी गुजराती में उसका भाषांतर होचुका है हरमनजेकोबी ने उस अन्य पर बहुत विवेचन किया है और मागधी भाषा का पूर्व की अनुसार विशेष प्रचार न होने के कारण उस कल्पसूत्र का रहस्य समझ में नहीं आता था इस लिये उसपर अनेक संस्कृत सरल टीकायें विद्वान् जैन साधुओं ने लिखी हैं उसमें से सुशोधिका, कल्पकिरणावली लक्ष्मी वल्लभी को श्राज कल संस्कृतज्ञ साध विशेष पढ़ते हैं।
ईसाइयों में बाइबिल मुसलमानों में कुरान और जैनिओं में यह कल्पसूत्र अधिक माननीय है क्योंकि कल्प नाम साधओं के प्राचार का है इसको किस तरह से पालन करना चाहिये यह बताने वाले ग्रन्थको कल्पसूत्र कहते हैं जोसाधु योग वहन (तपश्चर्या विशेष) किये हुवे हैं उन को इस ग्रन्थ के पढ़ने का और दूसरे साधुसाध्वियों को श्रवण करने का अधिकार था धीरे धीरे जब इस की अधिक मान्यता हो गई तब आनंद पुर (वडनगर गुजरात) नगर में राज पुत्र का शोक दूर करने को राजा को राज सभा में सुनाया था उस दिन से जैनी गृहस्थ भी सुनने लगे हैं भाद्रपदशुदि ४-५ के रोज जैन श्वेतांवर लोग बड़ी महिमा से श्रवण करते हैं किन्तु मागधी का अर्थ न समझने से उसके पहिले उसकी भाषा करके लोगों को साधु लोग सुनाते हैं श्वेतांबर साधु लोग चौमासे में एक जगह स्थित होते हैं उस को पर्युपणा कहत हैं और उसके लिये आषाढ़ शुदि १४-१५ से ५० दिन गिन कर यह सूत्र बांचते हैं किन्तु भाद्रपदवदी १२---१३ से
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( ४ )
आठ दिन तक पर्युषण पर्व की महिमा होती है उस पर्युपणा पर्व में यह कल्पसूत्र सुनाया जाता है वैदिक चर्चा आने से विद्वान् ब्राह्मण भी सुनते हैं ॥ कल्पसूत्र में क्या विषय है
साधुओं को उपदेश देने वाले तीर्थङ्कर होते हैं वे इस भरत क्षेत्र में आरे में २४ थे वे पूर्व में अनन्त हुए हैं और भविष्य में अनन्त होंगे किन्तु वर्तमान काल के २४ तीर्थंङ्कर हुए हैं उन के नाम नीचे लिखे हैं ।
१ ऋषभदेव, [जिन को आदिनाथ ऋषभदेव भी कहते हैं) २ अजितनाथ, ३ सम्भवनाथ, ४ अभिनन्दन, ५ सुमतिनाथ, ६ पद्मप्रभु, ७ सुपार्श्वनाथ ८ चन्द्रप्रभु, ६ सुविधिनाथ ( पुष्पदन्त ) १० शीतल नाथ १९ श्रेयांसनाथ १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४ अनन्तनाथ १५ धर्मनाथ १६ शांति नाथ, १७ कुन्थुनाथ, १८ अरनाथ, १६ मल्लीनाथ, ३० मुनिसुव्रत, २१ नमिनाथ ३१ नेमिनाथ ( अरिष्टनेमि ] २३ पार्श्वनाथ, २४ महाबीर, । इस को वर्धमान भी कहते हैं इन २४ तीर्थङ्करों के बीच में जो अन्तर है वह उस कल्पसूत्र में बताया है और २४ तीर्थङ्करों का संक्षिप्त चरित्र भी उस में वर्णन किया गया है ।
जैसे राज्यके नियम (कानून) प्रजा के लिये हैं इसी प्रकार साधुओं के लिये भी नियम (कायदे ) हैं उन नियमों के अनुसार चलने से साधु के सदाचार की रक्षा होती है आज जैनेतर किंवा स्वयम् जैनियों में जैन साधुओं की विशेष मान्यता है और लोग उन की बड़ी इज्जत करते हैं क्योंकि वे पैदल फिरते हैं रोटी मांग कर
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खाते हैं किसी जीव को त्रास नहीं देते इस लिये ५२ लाख बाबाओं को जो अपमान सहना पड़ता है वह उन को नहीं सहना पड़ता इस का कारण वही तीर्थेङ्करों का शासन है जैनी रोज़ कहते हैं कि ॥
सर्वमङ्गल मांगल्यं सर्वकल्याणकारणम् । प्रधानं सर्वधर्माणां जैनंजयति शासनं ॥
इस ज़माने में जो साधु साध्वी हैं उन को महावीर प्रभुका शासन मानना पड़ताहै जो शासन महावीर प्रभुने पावापुरी जो पटना और गया के बीच में आज छोटासा ग्राम रहगया है वहां अन्तिम समय पर सुनाया और समाप्त कियाथा और मोक्षमें गये हैं अर्थातवहां इस्तिपाल राजा की एक मोहरररोंकी शाला (मकान विशेष) मेंनिर्वाण अर्थात् मनुष्य देह किंवा आठकोंके वन्धनको मुक्तकर जन्ममरणसे रहित होकर मुक्ति सिद्धि स्थानमें स्थित हुवे हैं
महावीर प्रभु को आज मोक्ष गये २४४१ वर्ष हुए हैं और उनका जन्म क्षत्रियकुण्डनगर में हुआ था जहां सिद्धार्थ राजा राज्य करता था उसकी त्रिशला देवी नाम की सुशीला . रानी थी उस के एक पुत्र पहिले हुवा था जिसका नाम नन्दि वर्धन था जब दूसरा पुत्र हुआ तब उसका नाम माता पिता ने घर में सम्पदा इज्ज़तकी वृद्धि होती देखकर जिस वर्धमान नाम का उसके गर्भ में स्थित होने के समयमें रखने का संकल्प किया था वही नाम जन्मके बारवें दिनमें रखलिया किन्तु वह घाल्यावस्था में भी बड़े बहादुरों के कार्य करते थे जिस से महा वीर नाम से विशेष प्रसिद्ध हैं जैनग्रन्थ में किंवा जैनगृहों में
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निरन्तर बन्दे वीरम् शब्द विशेष प्रचलित है किन्तु साधुसमाज में उनका नाम श्रमण भगवान् महावीर विशेष प्रसिद्ध है क्योंकि साधुता रखने के लिये दो चीज़ की मुख्य अावश्यकता है=
१- अनुकूल इष्ट पदार्थ मिलने से रक्त होकर एक जगह बैठ न रहना और अहंकार न करना।
२ विरुद्ध दुखदाई पदार्थ मिलें अपमान होवे तो भी क्रोध प्रकट न करना न मन में दीनता लानी ये दो बातें महा वीर प्रभु में अधिक जानने योग्य और आदरणीय थीं।
महावीर प्रभु ने माता पिता के मरे बाद ३० वर्ष की उम्र में दीक्षा ली थी और उन के केवल एक पुत्री पत्नी और बड़ा भाई था उन को पूछ कर दीक्षा क्षत्रियकुण्डनगर के उद्यान में जाकर तीसरे पहर के समय ली थी दीक्षा के समय हज़ारों किंवा लाखों आदमी विद्यमान थे उन के सामने निम्नलिखित प्रतिज्ञा की थी। . .
करेमि, सामाइअं, सावज्ज, जोगं पच्चखामि जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए भकरेमि न काखेमि करतंपिअन्नंन समणुज्जाणामि तस्सभंते पडिकमामि निन्दामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।
इस प्रतिज्ञा का रहस्य यह है कि मैं आज से यावत् जीवन कोई भी पाप का कार्य मन वचन और काया से न करूंगा न कराऊगा न करने वाले को भला जानूंगा और अपने आत्मा को शरीर से भिन्न मान कर शरीर और शरीर के साथ लगी
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(७)
हुई उपाधियें जो जड़ हैं उन का मोह छोड़ कर आत्मभावना में ख्याल रखूगा शत्रु मित्र पर भी समभाव रखूगा।
वह प्रतिज्ञा किये बाद संसारी संबंधी जो भाई कुटुंब वगैरह हैं उन को छोड़ कर दूसरी जगह गये और अनेक प्रकार के जो अनुकूल प्रतिकूल उपसर्ग (मुख दुःख) प्राप्त हुवे व समताभाव से सहन किये । ___उस सहिष्णुता का वर्णन और महावीर पकी वीरता देख कर उनका नाम श्रमण भगवान् महावीर साधु लोग कहने लगे क्योंकि श्रमण नाम जो श्रमको विना खेद सहन करे उसका है वह उन्हों ने अच्छी तरह से बिना खेद सहन किया था
महावीर प्रभुको एक समय पर जो कष्ट आया है वह यह है कि कानमें लकड़ीकी बारीक कीलें बनाकर जो परस्पर मिल जावें इस प्रकार से एक गोपाल ने जो पूर्व जन्म का वैरी था लगाई थीं उनको निकालने में इतना कष्ट उन्हें सहन करना पडा कि अनंत बली होनेपर भी मुंहमेंसे चिंघाड निकलने लगीं कहते हैं कि वो इतनी भयंकर थीं कि पहाडों तक उसकी गर्जना पहुंच गई थीं।
साधनों के दश धर्म उन्हों ने पालन किये थे वह नीचे लिखे हैं।
तांति, आर्जव, मार्दव, तप, निर्लोभ, संयम, सत्य, शौच अकिंचन, ब्रह्मचर्य। - क्षमा में इतना कहना ही बस होगा कि चंदकौशिक दृष्टिविष सर्प सबको दृष्टि से ही जला देता था उस भीतिसे रास्ता बंद होगया था महागर प्रभु ने सब जीवों का कष्ट दूर करने को
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(८) वहां जाकर सर्पके अनेक आक्रमण के कष्ट सहन कर तीन वख काटने परभी धैर्य रक्खा जिससे सर्पका क्रोष कुछ शान्त हुवा उस समय महावीर प्रभुने उप्त सर्प को समझाया कि हे चन्दकौशिक ! तैने पूर्व में क्रोध करके साधुता के बदले यह पशुत्व पाया है अब सर्प योनिमें क्रोध कर कौन अवस्था पायेगा ? वह यह सुनकर अत्यंन शांत होगया और जाति स्मरण ज्ञान प्रकटहोने से पूर्व जन्मको देखने लगा और क्रोधका भीष्म दुःख फल देख कर हाथ जोड़नेकी योग्यता न होनेसे मस्तक नमाकर शांत पडा रहा वीर प्रभु उसकी अंतिम अवस्था अच्छी रहने के लिये तीन दिन वहां खड़ेरहे क्योंकि सर्पको अधिक कष्ट आने वालेथे
और उस कष्टमें जो क्रोध करता तो फिर दुर्दशा होती और दुर्गति में जाता जब सर्प ने किसीको न काटा तब उसमार्ग से लोग चलने लगे और सर्पका जाति स्वभाव छूट जानेसे लोग उसकी पूजा करने लगे तथा मार्ग में चलने वाली दूध वाली दूध डालती थी घीवाली घी मक्खन वाली मक्खन डालने लगीं उससे अनेक कीडिओं ने वहां आकर घी दूध के साथ उसका कोमल शरीर भी काटना शुरु किया वह वेदना यहां तक बढ़ गई कि उसके संपूर्ण शरीर में छिद्र होगये किंतु जब क्रोध जराभी देखते कि महावीर प्रभु अमृत वचन से उस का क्रोध दूरकर देतेथे तीन दिन के बाद उसने अति कष्ट सहन कर देह त्याग किया और देवलोक में गया ऐसे अनेक दृष्टांत बता कर तथा स्वयं अपना प्राण वियोग होने पर्यंत भी उन्होंने धैर्यता न छोडी न किसी के ऊपर क्रोध किया किन्तु उस दुःख देने वाले को भविष्य में दुष्कृत्य से दुष्ट फल भोगने पड़ेगे यह विचार करने से उनकी
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(६ ) करुणा दृष्टि से आंखों में आंसु पाजाते थे जिस के विषय में कनिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य ने लिखा है कि
कृतेऽपराधेऽपि जने कृपा मंथरतारयोः । ईषदाष्पार्द्रयोर्भद्रं श्रीवीरजिननेत्रयोः॥
महावीर प्रभु ने उन कष्टों के सहन करने के साथ २ तप भी बहुत किया था उन्होंने १२ वर्ष साड़े छ महीने में केवल ३६ दिन भोजन किया था इस प्रकारका कष्ट सहन करके व्रत धारण करने से उनके मोह अज्ञान आदि सब नष्ट होगये और वह भास्मिक सुख को भोगने लगे अर्थात् सचिदानंद, ब्रह्म, सर्वज्ञ, साकार ईश्वर होगये यहांतक हुवा कि वह कभीभी किसी को धार्मिक उपदेश न देते थे परन्तु जब कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुवा तो प्राणिमात्र का ३ काल का वृत्तान्त जानने में समर्थ हो गये और प्राणिमात्र के हितार्थ उपदेश दियो उन्हें वैशाषशुक्ल दशमी को कैवल्यज्ञान प्राप्त हुआ था वह स्थान जहां उन को कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ था गिरड़ी स्टेशन से करीव १० माइल की दूरी पर रज्जु वालिका नदी, जो वराटक नाम से प्रसिद्ध है उसके तट पर श्यामाक गृहस्थका खेत है आज वहां शान्त स्थान में १ रमणीय मन्दिर और धर्मशाला विद्यमान हैं और वह वहां थोड़ा सा उपदेश देकर महसेन वनमें आये थे वहां देवतों चे उनके लिये सभामण्डप बनाया था महसेन बन पटना और गया के बीचमें है, जहां पर आज कल तालाव के भीतर जलमें रमणीय मन्दिर बना हुवा है जिस समय उन्होंने वहां उपदेश
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( १० )
दिया तब गुब्बरगांव में गौतम गोत्र वाला एक इन्द्रभूति नामका विद्याविशारद पंडित वैदिक यज्ञ कररहा था जिसके समीप दो भाई और अन्य विद्वान् ब्राह्मण भी थे उस इन्द्रभूति ब्राह्मण को उनके व्याख्यान की लोगों से महिमा सुन कर बड़ा दुःख हुआ और वह यह विचार कर कि मैं चौदह विद्या पारंगामी हूं मेरे सामने यह विना मेरी सेवा के कैसे प्रसिद्धि पाया है, अपने भाइयों को साथ लेकर शीघ्र वाद विवाद करने को चल दिया और उनके पास गया महावीर प्रभुने उतको प्रसन्नमुख होकर बुलाया और वेद मन्त्रों से उसका भ्रम निवारण किया और वह उनके वेद वाक्यों से सन्तुष्ट होकर 'जीव शरीर से भिन्न तथा उस में ही है, यह निश्चय कर पहिला मुख्य शिष्यहुआ तथा उसके साथ के और दर्शा ब्राह्मणों ने भी वह अधिकार सुनकर क्रम क्रम से खाकर अपनी शङ्कायें निवारण कीं और सब महावीर प्रभु के शिष्य होगये ।
उन वारों को उन्होंने गणधर पदवी दी और उन वारहों के ४४०० चेलों ने भी दीक्षा ली और वे उन्होंने उन गणधरों के ही शिष्य बना दिये उन गणधरों का वर्णन भी कल्पसूत्र में हैं उन्हीं में पाचवें गणधर सुधर्मं स्वामी थे और सब गणधरों का परिवार भी उन को ही प्राप्त हुआ क्योंकि नवगणधर तो महावीर प्रभुके सामने ही मोक्ष को प्राप्त हो गये थे केवल सुधर्म स्वामी ही शेष रहे थे । इन्द्रभूति महावीर प्रभु का निर्वाण ७२ वर्ष की अवस्थामें पावा पुरीमें हुआ है। कार्त्ति की अमावस्या जिसको आजकल दिवाली कहते हैं उसके अगले
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दिन प्रातःकाल के समय सबसे बड़े इन्द्रभूति जी को कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ है कैवल्यज्ञानी शिष्य परम्परा की खटपटमें कम पड़ते हैं यदि कोई शिष्य होता भी है तो उपदेश देकर स्थिविरों को देदेते हैं इस लिये गौतम इन्द्रभूति जी ने शिष्य परम्परा नहीं ली थी।
स्थिविर की व्याख्या (१) ६० वर्षकी अवस्था वाला वयःस्थिविर कहा जाता है।
(२) जिसको दीक्षा लिये २० वर्ष हो जाते हैं वह चारित्र्य पर्याय स्थिविर कहा जाता है। । (३) सब सूत्र सिद्धान्त ६ दर्शन को पठन करके जो पण्डित हुआ है वह ज्ञानस्थिविर कहा जाता है।
इन तीनों प्रकार के स्थिविरों में ज्ञान स्थिविर चाहे अवस्था में छोटा हो किन्तु ज्ञान स्थिविर श्रुतज्ञानी ही को वह अधिकार मिलता है। ___ सुधर्मा स्वामी ने महावीर प्रभु के समीप उपदेश सुन कर उस ग्रन्थकी रचना की थी जो आगम नामसे प्रसिद्ध है पाक्षिक सूत्र में उन सबके नाम हैं उनको चतुर्दशी के दिन प्रत्येक साधु गुरु के सम्मुख उच्चारण करता है और उनके पढ़ने में यदि प्रमाद होजाता है तो क्षमा मांगनी पड़ती है सार यह हुवा कि अपनी योग्यतानुसार सब साधु शिष्यों को उस ग्रन्थ के पढ़ने की आवश्यकता है।
आगमों में आचारांग वगैरह ११ अंग हैं उसमें अंतिम अंग दृष्टिवाद है उसमें चोदह पर्वभी शामिल हैं उन पर्यों में से और
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( १२ ) दशाश्रुत स्कन्धमें से कल्पसूत्र का भद्रबाहूजी ने उद्धार किया है
सुधा स्वामी के शिष्य जंबु स्वामी हुए वह बाल काल से ब्रह्मचारी होनेके कारण अधिक प्रख्यात हैं । उस समयतक कैवल्य ज्ञान रहा था तथा उन के बाद संभव स्वामी हुवे उन के बाद शय्यंभव सूरि और उन के वाद यशोभद्र सूरि उन के बाद संभूतिषिजय उनके बाद भद्रबाह हुए यहांतक संपूर्ण श्रुत ज्ञान रहाथातथा सिद्धांत ग्रन्थों के बल से सब अधिकार वे कहसक्त थे भद्रबाहू ने कल्पसूत्र की रचनाकी है जिससे वह सर्वमान्य हैं उन को सवा दो हजार वर्ष होगये हैं तो भी इस की.भाषा में फेर फोर नहीं हुआ है और भाषा इतनी सरल है कि आज संस्कृत व्याकरणका ज्ञाता उसको भली भांति समझ सकता है उसको पहिला सूत्र नवकार मंत्र के बाद यह है । " तेणं कालणं तेणं समयणं समणे भगवन् महावीरे पंच हत्थुत्तरे होत्थ
अर्थात् वीर प्रभुकी पांच मुख्य बातें जिसके हस्तनक्षत्र अनन्तर है उस उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में हुई थीं। च्यवन, गर्भापहार, जन्म, दीक्षा, कैवल्यज्ञान । और स्वाति नक्षत्र में मोक्ष हुआ है वह दूसरे सूत्रमें है। ___कन्पसूत्र मूल भी छपा है भीम सिंह माणिक बम्बई भात बाज़ार में मिलता है मू० १) एक रुपया है और देवचन्द लाल भाई के ज्ञानोत्तेजक फन्ड से छपा हुआ मिलता है और प्रत्येक साधु के पास किंवा प्रत्येक भंडारमें कल्पसूत्र की लिखी हुई मति रहती है उस में सुनेरी चित्र भी होते हैं और मुनेरी स्याही से लिखी हुई सारी प्रति भी देखने में भाती है।।
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जैन ग्रन्थ लिखने का मुख्य प्रचार प्रायः महावीर प्रभु के ६८० वर्ष वाद याद करनेकी शक्ति घट जाने से प्रारम्भ हुआ है कन्पसूत्र भी उसी समय लिखा गया था उस समय की प्रतियें अव भी ताड़पत्र पर लिखी हुई जैसलमेर खंवात पट्टण के भंडार में देखने में आती हैं। ___ कल्पसूत्र के साथ उस की कल्प मुबोधिका टीका भी छपी है ६) रुपये में हीरालाल हंसराज जामनगर और बारह भाने में देवचन्द लालभाई सुरत से मिलती है।
जो स्थिविरावली, (स्थिविर आचार्य) महावीर प्रभुके बाद हुई है उसका इतिहास सूत्र लिखने वाले देवर्द्धिक्षमाश्रमण का लिखा हुआ उसमें है और साधुओं की समाचारी प्राय: चौमासे में कैसी होनी चाहिये यह अंत में दी हुई है वह उस से पहिली बनी हुई है और उस समाचारीके अंतमें यह लिखा हुमा है कि इस कल्प सूत्र के पठन करने वाला भव्यात्मा हा जाता है और उसी जन्म किंवा दुसरे तीसरे अथवा पाठवें जन्म लक अवश्य मोक्ष पाता है।
ओज जो लोग जैन को बौधकी शाखा कहते हैं उन सबसे मार्थना है कि वे इस ग्रंथको ज़रूर पढ़ें और २४ तीर्थंकरों का समयज्ञान मिलावें उससे यह ज्ञात होजायगा कि जैन लोग सब से प्राचीन हैं इतिहास शोषने में बहुत दिन तक प्रयास करने पर भी जो सच्चा सिद्धान्त है वह अनुमान पर निर्णय करना पड़ता है फिर भी बहुत से शंका स्थान रह जाते हैं परञ्च इस कल्पसूत्र के अकेले के पढ़नेसे ही वह प्रकाश होजाता है कि कुछ भी
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शङ्का वाकी नहीं रहती क्यों कि जैनों की गिनती परार्ध से नहीं होती किंतु जिससे आज के गिनने वाले थक जायें ऐसी शिष्य प्रहेलिका की गिनती से है और उसके बाद असंख्यात नामसे है और पहिले और अंतिम तीर्थकर ने अंतर बताने के लिये इस गिनती से संख्या मंद बुद्धि के समझ में न आवेगी और वे भ्रम में पड़ जावेगे इस लिये सागरोपम की गिनती से ली है एक महासागर में पानी के जितने करण हैं इतने वर्षों का एक सागरोपम होता है एक क्रोड़ को एक क्रोड़ से गुने उसे कोड़ाकोड़ि कहते हैं एक क्रोड़ाक्रोड़ि सागरोपम में ४२००० वर्ष कम प्रथम अ ंतिम तीर्थंकर का अंतर है । जैनियों में रामायण
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महाभारत का काल निर्णय भी कल्पसूत्र से ही होता है । महा वीर प्रभु के २५० वर्ष पहिले पारसनाथ हुए थे उनके ८४००० वर्ष पहिले नेमिनाथ हुए थे जिनके समय में कृष्ण भी हुए हैं उन केहीसमय में युधिष्ठिर हुए हैं जिन को लोग ५००० वर्ष बता कर ही बैठ रहे हैं और इसी प्रकार यह लोग राम का भी काल निर्णय नहीं करसके हैं कंबल महिमा ही गाते हैं उम राम के विषय में कल्पसूत्र से निर्णय होता है क्योंकि २० वें तीर्थंकर मुनिसुव्रत के समय में राम हुये हैं और मुनि सुव्रत और महावीर के बीच में ५८४००० वर्षका अन्तर है ।
भरत क्ष ेत्र में जो विद्याकौशल चला है वह किस ने और कहां पहिले प्रकट किया यह भी कल्पसूत्र से ज्ञान होता है क्यों कि जैनों के पहिले तीर्थंकर ऋषभदेव ने पुरुष की ७१ कला स्त्री की ६४ कला जातियों के शिल्प कार्य बताये हैं उस
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(१५ ) ऋषभदेव का समय पूर्व में बताया है कि १ कोड़ाक्रोडि सागरोपम में ४२००० वर्ष कम वर्ष पहिले ऋषभदेव मोसमें गये हैं प्रथम राजा प्रथम शिक्षक प्रथम विवाह प्रचलित करने वाले प्रथम साधु प्रथप कैवल्य ज्ञान पाने वाले वह थे इसी से आदिनाथ नाम से भी प्रसिद्ध हैं भारत में जो पहिली नगरी बसीहै वह भी बिनीता नगरीथी जो आज अयोध्या नाम से प्रसिद्ध है वह अयोध्या नगरी उन्हों ने हा बसाई थी और उस के बसाने में देवोंने सहायता की थी और उसके पहिले जो मनुष्य थे उनको युगलिक कहते थे भारतवर्ष में उन युगलिक मनुष्यों को खोने के लिये बनस्पति (पडों) में सब पदार्थ उनके योग्य मिलजाते थे उस से उन वृनों का नाम कल्पन कहा जाता था।
उन युगलिकों में क्लेश बम होने के कारण और का . मांधता तथा मोह दृष्टि न होने के कारण दूसरे की औरत सामने देखने का भी शक न था एक मातापिताओं के एक युगलिक (दो बच्चे) साथ जन्म लेनेथे वह ही योग्य समय पर संबंध करते थे ऋषभबके समय काल पलटने से लोगों की मति भ्रष्ट हुई तृष्णा बढ़ो और आपस में क्लेश होने लगा तब वे सब मिलकर ऋषभावके बाप नाभिकुलकरके पास गये और कहाकि हमारे लियेएक राजा बना ओ नाभिकुलकर ने ऋषभदेवको राज्यासन पर बैठा दियो । उस ऋषभदेव ने राज्यासन पर बैठकर विवाह का रिवाज शुरू किया और कलाएं भी वनाई वह सब अधिकार कल्पसूत्र में है लिखने की लिपिए . व्याकरण काव्य अलंकार कोश सब उन्होंने वनाये इससे उनको प्रजापति
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कहने लगे ब्रह्मतत्वको जानने वाले थे इस लिये ब्रह्मा भी कहलाये सब कलाएं निर्माण करने से विधाता भी कहलाने लगे कुम्भार प्रजापति जो कहा जाता है उससे भी वही मतलब है कि • उन्होंने पहिला कुम्भारका धंधा बनाया था चारमुख वाले ब्रह्मा क्यों कहलाये उस का कारण भी उससे मालूम होता है जब उन्होंने धर्मोपदेश दिया तोएक दिशामें उनका मुंह मानेसे तीन दिशा में बैठने वाले को विमुख होना पड़ता इस लिये तीन दिशा में उसके सदृश मूर्ति देवतों ने बैठाई थीं,सब लोगों का आकर्षण होवे इस लिये बाजे भी मनोहर बजाते थे जैसे आज प्रदर्शनी मेंप्राकर्षित करने को उत्तम दृश्य रक्खे जाते हैं ऐसे ही देवतों ने भी सब की दृष्टि खींचने को मनोहर दृश्य बनाये थे इसके लिये नीचेका श्लोक जैनी पढते हैं।
अशोकबृक्षः सुरपुष्पवृष्टि दिव्यध्वनिश्चामरमासनंच। भामंडलं दुर्बुभिरातपत्रं
सत्पतिहार्याणि जिनेश्वराणां (१) और जो चौतीश अतिशय हैं वह उसी समय प्रकट हुए थे जिनमें चार जन्म से ही तीर्थकरो में होते हैं ११ कैवल्य ज्ञान प्रकट होने पर और १६ देवता करते हैं।
ऋषभदेव ने भरत को दीक्षाके समय राज्य दिया था ऐसे ही और-६६ पुत्रों को भी और २ देश दिये।
देशों के नाम ऋषभदेव के जो सौ पुत्र थे उनको उन्होंने जमीन दी
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और उस पर उन्हों ने खेती विद्या लेखन युद्ध बगैरह के लिये are a बनाये। उन्होंने जो जो देश आबाद किये उनमें जो देश जिसने आबाद किया उसीके नामसे उस देशका नाम पड़ा जैसे कुरु नामक पुत्र से कुरु देश हुआ श्रङ्गबङ्ग इत्यादि नाम बालों से बङ्ग देश इत्यादि नाम हुए जो आज तक विद्यमान हैं यद्यपि मुसलमान आदियों ने बहुत देशों और शहरों के नाम बदल दिये हैं तौभी कितने ही नाम आजतक वही विद्यमान हैं आर्य अनार्य
जो लोग ऐसा मानते हैं कि पहिले इस देश में आर्य न थे किन्तु और लोग रहते थे यह कहना उन का बिल्कुल झूठा है न टीवेट से आर्य आये न तातार से आये किन्तु सब से मुख्य पहिली नगरी अयोध्या [विनीता] थी और उस देश का नाम जिस में अयोध्या है कोशल था और वहां ही ऋषभदेव राज्य करते थे उन्हीं के पुत्र वहां से निकलकर पिता की आज्ञानुसार भारत वर्ष के दूसरे देशों में गये हैं वही आर्यों का पहिलास्थान है । आज जो लोग हिंदुस्तानको सिन्धु और गङ्गा के बीच में गिनते हैं वह उनकी भूल है भारतवर्ष में ३२००० देश हैं जिसमें केवल २५॥ देश आर्य कहलाते हैं बाकीको अनार्य कहते हैं जहां सदाचार धर्मप्रेम ईश्वरभक्ति परोपकार विद्या ज्यादा होवें वह आर्यक्षेत्र है और वे गुण जहां कम देखने में यावें वह अनार्य क्षेत्र है और भाज कल जो पश्चिम में विद्या का प्रकाश है वह यहां से ही गया हुआ है वह सत्र वर्णन कल्पसूत्र में है ।
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प्र
इक्ष्वाकु सूर्यवंश चन्द्रवंश कितने लोग कहते हैं कि अमुक वंशकी उत्पत्ति अमुकदेव से हुई है यह जैनी नहीं मानते क्योंकि ईक्ष्वाकु वंश की उत्पत्ति ऋषभदेव के समय में हुई है और उनके पुत्र सूर्य यशसे सूर्यवंशीहुए हैं और चन्द्रयशसे चन्द्रवंशीहुए सार यह है कि कल्पसूत्रका जब तक पूरा प्रचार आमलोगों में न होवेगा और अपनाही ग्रन्थ मानकर जब तक वैदिक ब्राह्मण न देखेंगे तब तक उन को अंग्रेज़ों के अनुमानपर ही जो सत्य असत्य बात वे कहते हैं अथवा पौराणिक ब्राह्मणों के पुराणों के अलङ्कार के गर्योों पर ही आधार रखना पड़ेगा ।
जैनियों का प्रलयकाल
सत्य, द्वापर, त्र ेता,कलि इस प्रकार चारयुग जैनेतर लोग मानते हैं ऐसेही जैनी बारह भारे का एक चक्र मानते हैं जब ऋषभदेव हुए थे वह तीसरे यारेका समय था जब महाबीर हुवे हैं वहचौथे आरेका समयथा जबद्माचार्य भद्रबाहु हुवे हैं वहपांचवे मारेका समय है छठे आरेके समय में पृथिवीका प्रलय होगा और २१००० वर्ष ऐसाही रहेगा फिर धीरे धीरे पृथ्वी आबाद होगी और फिर तीर्थंकर होंगे फिर धर्मोपदेश शुरू होगा जैनियों में एक और विशेषता है कि जैसे और लोग प्रलय में सब चीजों का नाश मानते हैं इस प्रकार जैनियों के यहां प्रलय में सर्वथा किसी चीज का नाश नहीं होता किंतु वीज मात्र सब रहते हैं और अनुकूल संयोग मिलनेसे फिर वृद्धि होती है जो लोग आज कल वानर से मनुष्य की उत्पत्ति मानते हैं अथवा विना माता
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(१६) पिता के पुत्रोत्पत्ति मानते हैं वह जैसी असंभव वात है और हास्य जनक है ऐसी ही तिस्करणीय भी है किंतु कल्पसूत्र से ज्ञात होता है कि बीज मात्र संघ चीज रहती हैं। __ईश्वर कर्तृत्व सिद्ध करने वाले अरूपी से रूपा पदार्थ होना मानते हैं और रूपी ईश्वर मानने वाले मोकार ईश्वर का उत्पन्न होना मान कर इनके द्वारा सृष्टिका उत्पन्न होना मानते हैं अथवा सृष्टि को माया जाल मानते हैं और आत्मा को एकांत निर्मल अथवा सृष्टि सदा अनित्य है ऐसा मानते हैं इन सब लोगों को इस कल्पसूत्र से बहुत बोध मिलता है जो कोई धर्म किंवा मंतव्य का कदाग्रह छोड़कर ऐतिहासिक दृष्टि से उस कल्पसूत्र को देखेगा तो मालूम होगा कि वह सूत्र दुनिया को अनादि सिद्ध करता है और इस जमाने में जो भारत वर्ष में कलाएं दीखती हैं वह करोड़ों के करोड़ों वर्ष पहले की हैं यह बताता है।
जैनीलोग वेदबाह्य हैं यह दूषण अन्य लोग जैनियों को देते हैं वह कल्पसूत्र से दूर होता है मूलसूत्रों से मालूम हाता है कि जो वेद पुराण इतिहास हैं वह पहिले से हैं नाम भी वही हैं अब जौनियों के महाबीर प्रभु के विषय में उन का पिता उन की माता से कहता है कि तेरा बेटा चार वेद छै अङ्ग इतिहास पुराण का वेत्ता होगा दूसरों को सिखाने वाला होगा । और जब वे सर्वज्ञ हुए तब वेदपाठी ब्राह्मणों का शंका समाधान वेद पदों से किया है तो बताइये कि जैनी वेदवाह्य कैसे हो सकते हैं ? और जैनी वेद से विरुद्ध कैसे हैं ? जिस की इच्छा हो यदि वह अंग्रेजी वा गुजराती मागधी वा संस्कृत पढ़े हों तो शीघ्र मंगाकर खुशीसे पढ़े। हिन्दीका भी काव्य भाषांतर राजा
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(२०) शिवप्रसाद जैनी बनारस वाले ने रायचन्द कवि के पास तैयार करा कर छपाया है उस के देखने से भी बहुत कुछ मालूम हो जाता है किन्तु जब तक विद्या के प्रमो मूल ग्रन्थ जो सरल मागधी में है वह न देखेंगे तब तक उन का विश्वास पूरा न होगा इस लिए संस्कृत का थोड़ा भी व्याकरण पढ़ने वाले उस ग्रन्थको ज़रूर देखें और मालम करें कि जनी वेदवाह्य कैसे हो सक्ते हैं ? किन्तु यह बात अवश्य है जो वेद में आज हिंसा का भाग देख कर दया प्रोमिओं को घृणा होती है ऐसे ही घृणा जनक हिंसक भाग प्रवेश होने से किसी जमाने में जैनों ने वेद अमान्य करा होगा।
जैनियों में आर्य शब्द का प्रयोग ___ जो संस्कृत पढ़े हुए थे वह मांगधीके भी पंडितर्थ संसार विरक्त थे और माधुओं के नायक थे उनके साथ आर्य शब्द जोड़ा जाता था जिस का मागधी में अज्जा शब्द बनता है जितने भाचार्यों के नाम मोगधी कल्पसूत्र में भगवान् महाबीर से पीछे के हैं उन के साथ अज्जा शब्द प्रचलित है किन्तु उत्तम गुण धारण करे विना जो आय शब्द अपने साथ जोड़ देना है वह एक असमन्जस बात है और अयोग्यतासूचक है यह ध्यान रखना चाहिये।
सृष्टि की उत्पत्ति न ब्रह्मा सृष्टि बनाता है न शिव संहार करता है न विष्णु पालन करता है न ब्रह्मा नाभि कमल से उत्पन्न होता है इस विषय में कल्पसूत्र साफ साफ़ बताता है कि नाभि कुल करके घर उन्हों ने जन्म लिया और लोगों को कलायें जरूरी होने के कारण सिखाई इस से ब्रह्मा कहलाने लगे और उन्होंने संसार
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- (२१) छोड़ दिया तो शिव शंकर कल्याण करने वाले कहलाये और जैसे अन्य लोगों में भंगेरु, गंजेरुओं ने भांग गांजा पीना शुरू कर शंकर को भी भांग पीने वाला बताया ऐसे जैनियों ने नहीं माना किन्तु उन्हों ने मुक्तिप्रद शिव को माना है और वह दूषण रहित हैं।
__ भारत वर्ष के चक्रवर्ति राजा
जैनियों में एक सब से महान् राजा को चक्रवर्ति मानते हैं जिस में पहिला भरत चक्रवर्ती हुआ था वह ऋषभ देव का ही पुत्रथा और सब देशों के राजाओं का राजा था आर्य अनार्य सब उसके कब्जेमें थे और उनके साथ युन्द्रहुआथा यहभी इसकल्पसूत्रमें वर्णन है अंतमें भरत ने भी वैराग्य पाकर राज्य छोड़ा उनके बंश में बहुत वर्ष जाने बाद दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ हुए उन के समय में सगर चक्रवर्ती हुआ जिस के साठ हज़ार पुत्र देवताओं ने जला दिये थे इस बात को सुन.कर राजा को जो दुःख हुआ उस को दूर करने को इन्द्र ने क्या युक्ति की वह भी खास देखने योग्य है जैनियों में सब से ब्राह्मण अधिक पूजनीय थे राजा लोग उन की बड़ी इज्जत करते थे वे माहण नाम से पुकारे जाते थे जिन का कर्तव्य साधुओं के धर्मोपदेश के बाद में सर्वत्र फिर कर गृहस्थों को सदाचारी बनाना था
और गृहस्थ के संस्कारोंका कराना भी ब्राह्मणों का कर्तव्यथा जब ब्राह्मणों ने जीव हिंसा मिश्रित वेद बनाये उस समय से साधु ब्राह्मणों में परस्पर विरोध हुमा राजाओं के वे पुरोहित थे इस लिये प्रजावर्ग सब उनके कब्जे में आ गया था किन्तु ब्राह्मणों में भी दो भेद थे एक दया पालक और
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(२२) दूसरे दयाखण्डक थे उन में से जो दयापक्षी थे वे साधुओं से मिलकर दया प्रचार कराते थे जिससे दया धर्म का सर्वथा नाश नहीं हुआ किंतु एक एक यज्ञ में जो जारों बकरे मारे जाते थे यह पहिले न था क्योंकि कल्पसूत्र में वह वर्णन नहीं है शांतिनाथ कुंथुनाथ अरनाथ तीन चक्र वर्ती महाराजा स्वयम् तीर्थकर भी हुवे हैं जिनकी नगरी हस्तिनापुर थी जैनिओं में वह नगर परव्यात है क्योंकि ऋषभदेव की साधु होने के बाद पहिली पारणा वहां हुई थी बारह चक्रवर्ती किस के जमाने में हुए यह भी इस कल्पसूत्र से ज्ञात होगा।
वासुदेव । जैनियों में चक्रवर्ती से आधी संपदा के मालिकको वासुदेव कहते हैं उनमें पहिला त्रिपृष्ट वासुदेव हुआ था जो महावीर प्रभु का जीव था जिसने अपने शय्योपालक को गहरी रात तक बाजो बजवाने का निषेध करने पर भी बजवाने से उसी समय गरम रांग बनाकर कानमें डलवायाथा वह पापथा उसका फल महावीरके जन्ममें ही कानमें कीला लगनेका भोगनापड़ा वह सब वातें कल्पसूत्र से ज्ञात होती हैं कृष्ण भी वासुदेव थे और नेमि नाथ तीर्थंकर के पिता समुद्र विजय के. दश भाइ थे उस में बसुदेव नाम के भाई के पुत्र कृष्ण थे इसीलिये वासुदेव कहाते थे लिखा है कि वो एक सच्चे धर्मात्मा पुरुष थे।
कैलास पहाड़। जैनियों में अयोध्या से थोड़ी दूर एक पहाड़ बताते हैं जिस का नाम कैलास है उस पर भरत राजा ने २४ तीर्थंकरों के प्रतिबिंब बनाये थे और मनोहर मदिरमें स्थापन किये थे आज
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भी उस गाथा को पढ़ते हैं । चतारी अट्ठ दसदोय वंदिया जिणवरा चौविस परमठ निष्ठ अट्ठा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु जगचिंतामणि जगनाह । जगगुरु जगरख्खण ॥ जग बंधव जग सत्थवाह । जग भावविअ ख्खण ॥ अठावय संठ वियरूप । कमट्ट विणासण ॥ चवी संपिजिणवर | जयंतु अप्पडिहयसासण ||
कैलास का दूसरा नाम अष्टापद है मंदिर बनाने के बाद कोई वहां जाकर मंदिर की रत्न मय प्रतिमाओंको लोभसे खंडन न कर डाले इस लिये पीछे वहां पर दूसरे राजाने चारों तरफ खोइ खोदकर गंगा का पानी भर दिया था आज कोई वहां नहीं जा सक्ता किंतु रावन विमान में बैठकर गया था और उसने ऋषभदेव की प्रतिमा के सामने नृत्य के साथ पत्नी को साथ लेकर भक्ति की थी और स्वयं महावीरके शिष्य गौतम इंद्रभूति तपश्चर्या की लब्धि के बल से वहां गयेथे उस अष्टापद पहाड़ पर ऋषभदेव प्रभुका मोक्ष हुआ है उनकी समाधि अर्थात् मसंस्कार वर्हा हुआ था वह भी कल्पसूत्र में अधिकार हैं ।
२४ तीर्थंकरों के कितने साधु साध्वी श्रावक श्राविका थीं कितने ज्यादा ज्ञानी कितने ज्यादा तपस्वी कितने विद्या arat कितने कालतक मोक्ष मार्ग कायम रहा एक तीर्थंकर के बाद दूसरा तीर्थंकर कब हुआ यह भी कल्पसूत्र में हैं नवीन गिनती बालों को उसके समझ ने में पहिले बहुत कठिनता होगी तो भी अभ्यास से वह सत्र कठिनता मिट जाती है
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भद्रबाहु। भद्रबाहु और बराह मिहिर दोनो भाई दक्षिण देशके रहने घाले थे और विद्याविशारद ब्राह्मण थे जब दोनों ने जैनधर्म के वैराग्य तत्वमय धर्मोपदेश सुने उस समय संसारको असार मान कर दीनाली और साधु हो गये जैन सिद्धांत मब पढ़लिये और भद्रबाहु की विशेष योग्यता देखकर गुरुपहाराजने भद्रबाहु को आचार्य पदवी दी आज भद्रबाहु किंवा वराहमिहिर को कितने बरस हुए यह कल्पसूत्र से स्पष्ट ज्ञात हो जाता है बराहमिहिर को आचार्य पदवी न मिलने से जैनधर्म का वह विरोधी होगया और मरने बाद भी देवयोनि से दुःख देने लगा भद्रबाहु से लोगों ने प्रार्थना की तब उन्होने उवसगाहरंस्तोत्रं बनाकर दिया आज भी जैनी निरंतर उसको पढते हैं क्योकि इस से वराह मिहिर का विघ्न दूर हुआ था और दूसरे सादिका भी भय दूर होता है।
मागधी और संस्कृत । : पहिले लोक भाषा प्रायः मागधी थी यह सब जानते हैं
और मागधी से कितनेक शब्द थोड़ा रूपांतर पाकर आज कल की सब भारतवर्ष की भाषाएं हुई हैं गुजराती पंडित अव मुक्त कंठ से स्वीकार करते हैं कि गुजराती की माता मागधी है इस प्रचलित भाषा में तीर्थकरोंने अपने सब सूत्र बनाये कि थोड़ी धुद्धि वाले शिष्य भी उस को याद करें और समझ लेवें मागधी आजाल प्रचलित न होने के कारण विशेष कठिन भी किसी जगह हो जाती है इस लिये समयज्ञ साधुओंने उस की संस्कृत टीकाए भी बनादी हैं और गुजराती भाषा
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( २५ ) भी बनाली है तो भी ऐसा ख्याल न करना कि जैनी सूत्र सब मागधो में ही हैं किंतु एक बारवां श्रंग दृष्टिवाद जो सबसे बड़ा है उस में एक भाग में चौदह पूर व हैं वह दृष्टिवाद सब से बड़ा ग्रन्थ संस्कृत में है किंतु वह बड़ा होनेसे श्राचार्येने नहीं लिखाथा थोड़ा सा भाग मागधी में उद्धृत किया जो आज कल्पसूत्र है किन्तु यह भी मागधी में इस लिये लिखा कि मंद बुद्धि वाले भी शीघ्र उसे समझ लेवें ।
भद्रबाहु ने एक ज्योतिष ग्रन्थ भी बनाया है वह भद्रबाहुसंहिता नाम से प्रसिद्ध है भद्रबाहु विशेष कर नेपाल देश में रहते थे वहां का राजा जैनी था और नेपाल देश पहाड़ पर होने से चमत्कारी विद्यायें प्राप्त करने को और समाधि करने का अच्छा स्थान था ।
उन के पास श्रीसंघने ५०० साधु पूर्व विद्या पढ़ने के लिये भेजे थे उनमें से केवल एक स्थूलभद्र को छोड़ कर शेष सब शिष्य क्रम क्रम से लौट गये और स्थूलिभद्र ही पूरे पढ़े थे उस समय नंद नाम का जैनी राजा पटने में राज्य करता था वह वररुचि ब्राह्मण जिसकी बातें मुद्रा राक्षस में लिखी हैं, उस पर जैनशास्त्र का अधिक प्रकाश पड़ा था उस वररुचि विद्वान् ब्राह्मण का नंद राजा के मन्त्री शकटार ब्राह्मण के साथ झगड़ा हुआ था और राजा ने उस का खून करवाया था उस के दो पुत्र थे एक स्थूलभद्र वह बड़ा था उस ने बाप की प्रधान पदवी मिलने पर भी इनकार किया कि मैं ऐसे संसार में नहीं फरूंगा जिस में आज गंज्याधिकार मिले और कल खून डो वह साधु हो गया श्रीयक छोट े भाई को प्रधान की पदवी मिली शकटार के सात पुत्री थीं वह सातों भी पढ़ी हुई थीं और चाहतीं तो उसका सभा में मान भंग करसकर्ती परन्तु वे सातों
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वैराग्य पाकर दीक्षा ले भद्रबाहु की संप्रदाय में साध्वियें हुई जिस की गाथा यह है ।
जखाय जखदीना भूयातहचेव भूयाअ । सयणावेणारेणा भयणीओ थुलिभद्दस्स ॥ स्थूलभद्र और वज्रस्वामी ।
भद्रबाहु के शिष्य स्थूलभद्र शीलव्रत से अधिक प्रख्यात हैं उन्होंने जिस वेश्या के घर में बारह वर्ष रहकर भोग विलास किया था वहां साध होकर चार मास वर्षाऋतु में रहे किन्तु वेश्या में लिप्त न हुए ऐसा होना बहुत दुर्लभ है ।
स्थूलभद्र के शिष्य प्रशिष्य संप्रदाय में बजू स्वामी हुए हैं उनका चरित्र भी अधिक माननीय है छोटी उम्र याने दूध पीने के समय में वैराग्य आया तब उन्होंने माका राग छुड़ाने को कृत्रिम ढौंग किया परश्च साधुहुए और पिता के पास चलेगये और राज्यसभा में माताने बहुत लोभदिया तो भी संसारवासना से विरक्त रहे वह एक जैन संप्रदाय में ऐसे प्रभाविक पुरुष हुए हैं कि आज तक उनकी पारमार्थिक वृत्ति प्रसिद्ध है। त्यागवृत्ति और ब्रह्मचर्य में इतना ही कहना बस होगा कि एक करोड़पति की कन्याने प्रतिज्ञा की कि मैं तेजस्वी तपस्वी बाल ब्रह्मचारी वजूस्वामी के साथ अपना विवाह करूंगी कितनेक वर्ष जाने के बाद पिताने उसका विवाह और जगह करना चाहा किंतु कन्या ने स्वीकार न किया वजूस्वामी देशांतरों में फिरते २ वहां आये और कन्यापिता कन्या को धन के साथ लेजाकर वजू स्वामी को कन्या देने लगा वज्रस्वामी ने संसार की असारता समझाकर कन्या को वैरागिणी बनादी और उस की दीक्षा के महोत्सव में वह धन लगा दिया
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(20) कल्पसूत्र में बौध का नाम भी नहीं है
कल्पसूत्रमें बौध की बात बिलकुल नहीं हैं जिससे मालूम होता है कि जैनों का उनके साथ कुछ संबंध नहीं अपिंच उस समय बुद्ध किंवा उनके अनुयायी कुछ गिनती में भी न थे सिर्फ दो धर्म चल रहे थे एक वैदिक दूसरा जैन क्यों कि महावीरका चरित्र जो कल्पसूत्र में है उस में वैदिक ब्राह्मण और वेद की बहुत चर्चा है और जैनी खास कर बहुत बातो में उन से मिलते थे केवल हिंसक यज्ञ से कुछ विरोध था । बौध का समाधान
भारत वर्ष में अशोक राजा हुआ वह मगध देश में राज्य करने वाला चंद्रगुप्त का वंशज था वह पहिले वैदिकयज्ञ करने वाला ब्राह्मण था पीछे जैनी हुआ और अंतमें बौधके साधु के पास बौधानुयायी हुआ और समताभाव सब पक्षों पर धारण कर विद्या प्रेम से बौधधर्म से दुनिया भर को लाभ पहुंचाया जिससे बौध धर्म की महिमा भी बढगई कल्पसूत्र में बौधका नाम भी नहीं है यह पता अशोक के लेखके बौध की पाली भाषा में होने से लगा है और यह नहीं जानने वाले भ्रम में पड़ते हैं ।
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दिगंबर
जो दिगंबर भाई इमसे, किसी विषय में भिन्नता तात्विक दृष्टिसे बाहरी रखते हैं वह कल्पसूत्र अक्षरशः पढेंगे तो ज्ञात होगा कि दिगंबर का भी नाम उसमें नहीं हैन श्वेतांबर का नाम है इससे ज्ञात होता है कि भगवान् के निर्वाण बाद ६८० वर्ष तक दिगंबर श्वेतांवर का झगड़ा प्रकट न था धीरे धीरे ज्ञान घटने से स्वार्थमिय किंवा अज्ञान अंधकार से घेरे हुए बीचले लोगों ने महाबीर के निर्दोष धर्म में शंकास्पद स्थान बना दिया
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(२८) नहीं नो जो ग्रंथ आज अंग्रेज जर्मन किंवा जैनेतर पढ़ कर बोध से जैन को भिन्न सिद्ध करते हैं तो हमारे यत्किचित् मंतव्य वाले उस ग्रंथ से विमुख कैसे रहते ?
. साधुओं के दशकल्प अचेलूक, उद्देशिक, शय्यातर,कृतिकर्म, व्रत,जेष्ठ प्रतिक्रमण, राजपिंड, मासकल्प, चतुर्मासीकल्प,
(१) जीर्णप्रायः वस्त्र रखना ( २ ) जो साधु के लिये ही बनाया है वह आहार न लेना (३) जिस के मकान में रहे उस का आहारादि न लेना [ ४ ] छोटा साधु बड़े को बंदन करे [५] पांचमहाव्रतपाले [अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, निष्पग्ग्रिहता, यह पांच महाव्रत हैं ] ( ६ ) दूसरी दीक्षा में जो बड़ा है वह बड़ा कहलावे अर्थात् उम किंवा पहली दीक्षाका पर्याय गिनती में नहीं आता (७) यदि कुछ अपना पाप किंवा मलीनता होवे तो उसको प्रकट करना उसका पश्चात्ताप करना गुरु के पास दंड लेना वह प्रति क्रमण है (८) राजाओं का माहारादि न लेना (8) विना खास कारण वर्षाऋतु विना एकजगह एक मास से अधिक न रहना वह मासकल्प है। (१०) चार मास वर्षा ऋतुमें एक जगह रह कर धर्म ध्यान करना वह चतुर्मासी कल्प कहलाता है।
. महावीर के चौमासे महावीर प्रभु ने ३० वर्ष की उम्र में दीक्षा ली और ७२ वर्ष की उम्र में मोक्ष पाया १२ वर्ष तक धमों पदेश विन आत्महित के लिये फिरते रहे फिर ३० वर्ष तक कैवन्यज्ञान पाकर सर्वत्र धर्मोपदेश दिया और ४२ चौमासे महावीर प्रभुने कहां किये यह भी वर्णन उसमें प्रोता हैं अनेक नगरियों के जो नाम आते हैं उन,
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नगरियों में प्रायः आज कोई बिलकुल जीर्ण भी होगई कितनेक के नाम भी बदल गये हैं तो भी जैनी धनाढ्य लोगोंने वहां जाने वालों के आराम के लिये वहां मंदिर धर्मशाला बना रक्खे थे ।
बौका जोर होने पर बहुत फेर फार हुआ ऐसे ही शंकराचार्य के समय में और मुसलमानों के राज्यमें जैनी मंदिरों का बहुत नुकसान हुआ परंतु जब जैनियों का जोर किंवा पक्ष होता था कि वहां फिर जीर्णोद्धार अर्थात् नये तौर से मंदिर बनाते थे और अपद्रव्य लगाते थे जिससे कोई कोई खास तीर्थ छोड़ कर वस्ती कम होने पर भी वहां जैनी के मंदिर विद्यमान हैं ।
महावीर के समय के जैन राजा
श्रेणिक राजा जो राज ग्रही में राज्य करता था वह परम जैनी था उस के पुत्र के कारण उस का मृत्यु हुआ तो भी वह कोणिक पिता के मरे बाद भी परम जैनी रहा था किन्तु राज्य धानी बदल दी और चंडप्रद्योत वगैरह भी जैनी राजा थे किन्तु महावीर के अंत समय में 8 काशी देश और ६ कोशल (अयोध्या) के राजा उपस्थित थे उससे ज्ञात होता है कि वह देश बहुत बड़े थे अथवा छोटे छोटे टुकड़े एक एक राज्य के पड़ गये थे आज भी गुजरात काठियावाड़ में ऐसी अनेक छोटी छोटी रियासतें हैं जिस की गवर्नमेन्ट ने एजन्सि - बनाली हैं ।
महावीर जयंती
अंग्रेजी रीति के अनुसार नये रूप में जयंती का प्रकाश हुआ है किन्तु पूर्व में भी रिवाज था राम नवमी जन्माष्टमी में राम, कृष्ण के लिये उत्सव होता था ऐसे ही जैनियोंमें भीभाद्र
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पद शुदि १-२ को जब वह चरित्र कल्पसूत्र से सुनाते थे तब महिमा होती थी थोड़े वरषसे नयी रीतिसे चैत्रशुदि १३केरोज ही महावीर के जन्म के दिन जयंती होने लगी है विद्यापचार जहां ज्यादा होता है वहां आजकल महावीर चरित्र कल्पसूत्र के अनुसार सुनाया जाता है। : महावीर का निर्वाण दिन जो कल्पसूत्र में दीवाली की
रात्रि का है उस की महिमा भी सर्वत्र दीवाली के रूप से प्रचलित है मूल में लिखा है कि महावीर के मृत्यु (निर्वाण) समय थोड़ी देर तक अंधेरी काली रात्री अधिक भय दायी होने लगी वहां जो लोग उपस्थित थे उन्हों ने १८ राजाओं के साथ दीपक प्रकट किया वहाँ मूत्र है।
. भाव उद्योतकारक महावीर का अभाव है तो द्रव्य उद्योत तो दीपक से करलो वहां दीपक प्रकट किये उसी के अनुसार मसाल माफक दीपक जलाने का रीवाज आज भी जैन वस्ती वाले गुजरात देश में बहुत प्रसिद्ध है।
साधु समाचारी .... बारह मास साधु किस प्रकारसे रहते हैं यह सब आचारांग वगैरह सूत्रों में लिखा है परन्तु पाठ मास में वर्षा कम होती है जिस से छोटे जंतुओं की उत्पत्ति भी कम होती है और चौमासे में वर्षा ज्यादा होने से बहुत से जीवों की उत्पत्ति देखने में पानी है जैसे कि काई और कथ ए ऐसे बारीक होते हैं कि जब चले तव जीवे मालूम पड़े और स्थित होवे तो जड़ मालूम पड़े इस लिये साधु को जीवरक्षा के लिये बहुत सावधानी रखनी पड़ती है वह सब कानून कल्पसूत्र के अंतमें बताये हैं जो साधु अच्छी तरह से पढ़कर समझ कर उस पाचार का पालन करता है वह अपना और दूसरों का रक्षक होजाता
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( ३१ ) है न दूसरे जीवों को पोड़ा देता है और अपने अप्रमाद से अपने का भी वीछु सर्प वगैरह से बचा सकता है।
क्षेत्र के तेरह गुण गृहस्थ लोग चाहै तो घर में टट्टी जा सकते हैं परंतु साधु को अवश्य खुले मैदान में दूर जाना चाहिये और जहां कादव विशेष हो वहां साधु न रहे इस लिये गुरुमहाराज की आज्ञानुसार क्षेत्र के तेरह गुण देखे जो तेरह गुण वाला बत्र मिले तो यहां चौमासा. करे तेरहगुण न मिलें तो चारगुण अवश्य होने चाहिये वह वर्णन भी कल्पसूत्र में हैं।
मागधी भाषा में भद्रबाहु की विद्वत्ता - मागधीभाषा में संस्कृत के अनुसार समास आदि सब हैं जिसको देखना हो वह कल्पसूत्र को पढ़े । महावीर की माता त्रिशलादेवी चौदह स्वप्न देखती है उस में (१) सिंह, (२) हाथी, (३) बैल (४) लक्ष्मीदेवो (५) फूलों की दोमाला (६) सूर्य (७) चंद्रपा (८) सरोवर (8) समुद्र (१०) वालश (११) देवविमान (१२) रत्नराशि (१३) अग्निविनाधूम (१४) ध्वज इनका जहां वर्णन है वह सब पढ़जाना चाहिये क्योंकि एक लक्ष्मी देवी के वर्णन में जो निर्दोष व सार रस भरा है वह अद्वितीय है।
आश्चर्य । जो वस्तु जिस समय में नहीं होती है और वह विना किये उस समय में स्वाभाविक होवे तो लोग उसे माश्चर्य कहते हैं इन्द्रनाल में जो दृश्य मंत्रवादी दिखाता है और दृष्टि खेचलेता है वह माश्चर्य नहा हैं किंतु सच्ची बात स्वाभाविक रीति से विरुद्धता को प्राप्त होवे तो वह आश्चर्य कहाता है।
कल्पसूत्र में दश भावों का वर्णन पाता है उसका वर्णन
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( ३२ ) कल्पसूत्र में है दिगंवर भाइयों ने उनको अनुचित मान कर कल्पसूत्र को अमान्य कर नये ढंगसे और ग्रंथ पुराण नाम से कोई बनाया होगा अस्तु हमारी विद्वान् इतिहास प्रेमित्रों से प्रार्थना है कि जो आजकल असंभवित बात मालूम पड़ती है उस के कारण उस ग्रन्थ को जिसमें वह बात लिखी है अमान्य करें यह ठीक है परन्तु उसकी ऐतिहासिक और उपयोगी बातों का अभ्यास न करना न उनसे जैनियों का प्राचीनत्व बताना यह एक विचारने योग्य बात है ।
आज नयी शोध ने पूर्व की बहुत बातों को झूठी किंवा असं भवित बना दीहै ऐसे ही भविष्यमें जो विद्या बढ़ेगी किंवा घटेगी तो आज की बात उस समय पर झूठी हो जायेंगी जो माज कल लोग प्रत्यक्ष सच्ची देख रहे हैं।
नयी विद्या वाले पूर्व की सब बातें होसी में उड़ा कर शास्त्रों की उपेक्षा किंवा अपमान किया करते हैं किन्तु पश्चिम के लोगों को धन्यवाद है कि कल्पसूत्र जैसे ग्रंथ को पढ़ कर विदेशी भाषा में भाषांतर कर और लोगों को भी ज्ञानामृत चखाते हैं।
जीव रक्षा सत्य वचन अस्तेय ब्रह्मचर्य निष्परिग्रहत मादि साधु के २७ गुणों का वर्णन किंवा महावीर प्रभु क चरित्र किंवा तीर्थंकरों का अतर तो उस में से अवश्य देखन चाहिये जो विद्वान् देखेंगे तो हिंदी भाषामें सरल गद्य भाषा तर भी गुजराती के अनुसार हो सकेगा और दूसरे सूत्रों का भाषांतर और समालोचनाएं भी करनी आवश्यक होंगी और हिंदी के भी प्राचीन साहित्य का सदुपयोग होगा।
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अशुद्धि पत्रम् । पष्ठ पंक्ति, अशुद्ध
साधु ६.१८. नकाखेमि
नकावमि १८ करतंपि
नकरंतंपि ६. १६ .. तरसभंते ७. १३ वैीथा
वैरीथा उस ने ३६
३४६ यहांतक हुवा कि
वहां तक साथ
राय १० १५. बारह ।
ग्यारह ११ २२ ११
तस्स
१२.४ १२ ८. १३ १४
संभव को सवा
भभवा को प्रायः सवा
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१६ १५बामा २० १४%१६ मज्जा २० २४ . उन्हों
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वसार, ३१ २४ - नहा .. ३२. ७ ठीक है ३० २२ , कथुए
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ठीक नहीं है कथुए
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________________ सार्वजनिक हित भाग 5 वां . * जिस में हिंदुविश्वविद्यालय को उत्तेजन देने के लिये र नायें पलिक (माम लोगों) को दी हैं एक वार पार र पढ़ें मून्य 1) दो पाने प्रसिद्ध कर्ता से पत्र व्यवहार करें H . कम्पमूत्र की सूची प्रादि ग्रन्थ मिलने का पता -> 1 भात्मानंद पुस्तक प्रचारक मंडल नवघरा देहली और भावना राशन मोहल्ला 2 प्रसिदकर्ता लाला बिहारीलाल गिरीलाल जैन विनोली __ और बड़ौत ज़ि० मेरठ .. 3 'मेरठ आत्मलब्धि पब्लिक जैन लाइब्रेरी 4 देहली प्रात्मानंद जैन लाइब्रेरी छोटा दरीबा 5 भीमसिंह माणिक जैन बुकसेलर मुम्बई 6 मांडल जैनमित्र मंडल सभा मांडल ज़ि० अहमदाबाद 7 हापुड़ सरस्वती पुस्तकालय 8 देववंद वर्धपान पुस्!कालय जि० महानपुर