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शङ्का वाकी नहीं रहती क्यों कि जैनों की गिनती परार्ध से नहीं होती किंतु जिससे आज के गिनने वाले थक जायें ऐसी शिष्य प्रहेलिका की गिनती से है और उसके बाद असंख्यात नामसे है और पहिले और अंतिम तीर्थकर ने अंतर बताने के लिये इस गिनती से संख्या मंद बुद्धि के समझ में न आवेगी और वे भ्रम में पड़ जावेगे इस लिये सागरोपम की गिनती से ली है एक महासागर में पानी के जितने करण हैं इतने वर्षों का एक सागरोपम होता है एक क्रोड़ को एक क्रोड़ से गुने उसे कोड़ाकोड़ि कहते हैं एक क्रोड़ाक्रोड़ि सागरोपम में ४२००० वर्ष कम प्रथम अ ंतिम तीर्थंकर का अंतर है । जैनियों में रामायण
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महाभारत का काल निर्णय भी कल्पसूत्र से ही होता है । महा वीर प्रभु के २५० वर्ष पहिले पारसनाथ हुए थे उनके ८४००० वर्ष पहिले नेमिनाथ हुए थे जिनके समय में कृष्ण भी हुए हैं उन केहीसमय में युधिष्ठिर हुए हैं जिन को लोग ५००० वर्ष बता कर ही बैठ रहे हैं और इसी प्रकार यह लोग राम का भी काल निर्णय नहीं करसके हैं कंबल महिमा ही गाते हैं उम राम के विषय में कल्पसूत्र से निर्णय होता है क्योंकि २० वें तीर्थंकर मुनिसुव्रत के समय में राम हुये हैं और मुनि सुव्रत और महावीर के बीच में ५८४००० वर्षका अन्तर है ।
भरत क्ष ेत्र में जो विद्याकौशल चला है वह किस ने और कहां पहिले प्रकट किया यह भी कल्पसूत्र से ज्ञान होता है क्यों कि जैनों के पहिले तीर्थंकर ऋषभदेव ने पुरुष की ७१ कला स्त्री की ६४ कला जातियों के शिल्प कार्य बताये हैं उस