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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा उसकी स्वोपज्ञ-टीका आदि सभी प्रौढ़-ग्रन्थ इसी काल की रचनाएं हैं। आचार्य रत्नप्रभसूरि की समीक्ष्य कृति रत्नाकरावतारिका भी इसी कालखण्ड में निर्मित हुई है। आचार्य रत्नप्रभसरि ने अपनी इसी कृति की रचना में जहाँ एक ओर अपने पूर्ववर्ती आचार्यों की ही कृतियों का भरपूर उपयोग किया है, वहीं दूसरी ओर उनके परवर्ती जैनाचार्य जैसे- मल्लिषेण, गुणरत्न आदि उनकी इस कृति से प्रभावित ही रहे हैं।
रत्नाकरावतारिका मूलतः तो वादिदेवसूरिकृत प्रमाणनयतत्त्वालोक की एक टीका है। इस ग्रंथ में प्रमाणनयतत्त्वालोक के सूत्रों के आधार पर अन्य दार्शनिक-मतों की प्रौढ़ समीक्षा की गई है। यह सत्य है कि प्रमाणनयतत्त्वालोक मूलतः जैन-न्याय का एक सूत्रग्रंथ है। इसमें हमें जैन-न्याय का लगभग ग्यारहवीं शताब्दी तक का विकसित स्वरूप देखने को मिलता है, किन्तु मूल ग्रंथ में अन्य मतों की समीक्षा का प्रयत्न न होकर मात्र स्वमत, अर्थात जैन-मत के प्रस्तुतिकरण का ही प्रयत्न किया गया है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्रमाणनयतत्त्वालोक पर वादिदेवसूरि ने स्वयं ही स्वोपज्ञ-टीका के रूप में स्याद्वादरत्नाकर जैसे विशाल एवं प्रौढ़ टीका-ग्रंथ की रचना की थी, किन्तु यह ग्रंथ विद्यानंदी की अष्टसहस्री, प्रभाचंद्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड, कुमुदचन्द्र के न्यायकुमुदचन्द्र आदि जैन-दर्शन के प्रौढ़ ग्रंथों के समान ही अत्यन्त जटिल था। आचार्य रत्नप्रभ चूँकि वादिदेवसरि के ही शिष्य थे, अतः, उन्होंने अपने गुरु की कृति "स्याद्वादरत्नाकर' को विद्वत योग्य बनाने की दृष्टि से इस रत्नाकरावतारिका की रचना की। उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना स्याद्वादरत्नाकर रूप महासमुद्र में प्रवेश करने हेतु एक नौका के रूप में की है। यद्यपि यह ग्रंथ स्याद्वादरत्नाकर, प्रमेयकमलमार्तण्ड या अष्टसहस्री जैसा अति जटिल तो नहीं है, किन्तु यह अति सरल भी नहीं कहा जा सकता। आचार्य रत्नप्रभ ने भाषा, विषय-प्रतिपादन और समीक्षा–तीनों ही दृष्टि से मध्यम-मार्ग अपनाने का प्रयत्न किया है। यद्यपि उनकी दृष्टि में यह ग्रंथ स्याद्वादरत्नाकर की अपेक्षा सरल और सुबोध है, किन्तु यह इतना सरल और सुबोध नहीं है, जितना उन्होंने समझा था। रत्नाकरावतारिका जैन-दर्शन एवं जैन-न्याय का एक उत्कृष्ट कोटि का ग्रंथ है, अतः, हम यह कह सकते हैं कि जैन-दर्शन एवं जैन-न्याय के ग्रन्थों में रत्नाकरावतारिका एक प्रौढ़ ग्रंथ है। इसमें लगभग दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी तक के प्रायः सभी भारतीय-दार्शनिक-मतों का पूर्व-पक्ष के रूप में प्रस्तुतिकरण एवं उत्तर-पक्ष के रूप में उनकी प्रौढ़ समीक्षा उपलब्ध हो
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