Book Title: Bauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Jyotsnashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 325
________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा ज्ञान कराना होता है, अतः, इसे यहाँ पर उपाचार से समझ लेना चाहिए | 100 490 बौद्ध यहाँ पर बौद्ध - दार्शनिक यह प्रश्न करते हैं कि 'पक्ष और हेतु को बताने वाला वचन परार्थानुमान होता है- ऐसा जो निरूपण आप जैनों ने किया है, तो वह वचन तो आपके अनुसार भाषा - वर्गणा के पुद्गलरूप होने से जड़ या अचेतन होता है, जबकि जो स्व-पर-व्यवसायात्मक - ज्ञान होता है, वह चेतनात्मक है, अतः, आपका जो वचन - व्यवहार है, वह प्रमाण कैसे कहा जा सकता है ? अतः, पक्ष और हेतु को बताने वाला वचन- व्यवहार प्रमाणरूप न होने से आपका परार्थानुमान का लक्षण भी प्रमाण कैसे हो सकता है ?491 - - जैन इसके उत्तर में, जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि उस वचन - व्यापार को भी उपचार से तो प्रमाण कह सकते हैं। पक्ष और हेतु को बताने वाले लक्षण चाहे जड़रूप हों, किंतु फिर भी उनसे श्रोता के हृदय में उत्पन्न होने वाला ज्ञान चेतनात्मक होने से वह प्रमाणरूप होता है। पक्ष - हेतुरूप ये वचन कारणरूप होते हैं और उनसे उत्पन्न होने वाला बोध कार्यरूप होता है और वह चेतन होता है, इसलिए कारण में कार्य का उपचार करके वचन - व्यापार को भी प्रमाणरूप कह सकते हैं। जिस प्रकार वक्ता के हृदय में रहा हुआ स्वार्थानुमानरूप ज्ञान प्रमाणरूप होता है, उसी प्रकार पक्ष - हेतु आदि पाँचों वचनरूप अवयवों से श्रोता के हृदय में उत्पन्न होने वाला ज्ञान भी प्रमाणरूप होता है, क्योंकि वह ज्ञान भी उन शब्दों का कार्य होता है। कार्य में कारण का उपचार होता है। इस प्रकार से, श्रोता ( प्रतिपाद्य) के आश्रय से 'कारण में कार्य का उपचार होता है और वक्ता ( प्रतिपादक ) के आश्रय से 'कार्य में कारण का उपचार होता है- इस प्रकार, दोनों अपेक्षाओं से जड़ात्मक शब्द - व्यवहार भी उपचार से परार्थानुमानरूप प्रमाण कहलाता है। 182 - 492 बौद्ध अब बौद्ध - दार्शनिक परार्थानुमान में पक्ष की आवश्यकता के विरोध में अपना तर्क प्रस्तुत करते हुए जैनों से कहते हैं कि परार्थानुमान में, अर्थात् दूसरों के लिए जो अनुमान किया जाता है, उसमें पाँचों अवयवों में से प्रथम अवयव पक्ष के प्रयोग करने की कोई आवश्यकता --- 323 490 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 436 491 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 436 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 436 492 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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